सोमवार, 5 नवंबर 2012

कृषि जगत
कृषि वानिकी : पद्धति एक, लाभ अनेक
आर.आर. पाटीदार
    देश की जनसंख्या विस्फोटक दर से बढ़ रही है जिसके कारण कृषि योग्य भूति का क्षेत्रफल कम होता जा रहा है । इसका प्रभाव वनों पर भी पड़ रहा है । फलस्वरूप मृदा की उपजाऊ शक्ति कम होने के साथ-साथ वायुमण्डलीय तापमान भी कम हो रहा है । वर्षा की मात्रा व वर्षा के दिन भी कम होते जा रहे है ।
    वर्तमान में देश को ३० करोड़ टन से अधिक जलाऊ लकड़ी, २५ करोड़ टन खाद्यान्न, २०० टन हरे सूखे चारे और ६ करोड़ घनमीटर इमारती लकड़ी की आवश्यकता आंकी गई है । इंर्धन की कमी और जलाऊ लकड़ी का मुल्य अधिक होने के  कारण प्रतिवर्ष ५०० करोड़ मीट्रिक टन गोबर को उपलों के रूप में जलाया जाता है । यदि इस गोबर को खाद के रूप में उपयोग किया जाए तो मिट्टी में उपयोगी जीवांश पदार्थ की वृद्धि हो जाएगी । भारत में कुल १२.१५ प्रतिशत भाग में वन है जबकि इस सम्बन्ध में हमारा लक्ष्य ३३.३ प्रतिशत है । विश्व में प्रति व्यक्ति औसतन १.६ हैक्टेयर वन क्षेत्र है । इसकी तुलना में भारत में यह प्रति व्यक्ति ०.०९ हैक्टेयर ही है । अत: देश में वनों का विस्तार नितांत आवश्यक है ।
    आज की बढ़ती हुई मानव एवं पशु संख्या  को इंर्धन, इमारती लकड़ी, चारा, खाद्यान्न, फल, दुध, सब्जी इत्यादि की आपूर्ति के लिये घोर संकट का सामानाकरना पड़ रहा है । ऐसी परिस्थितियों में कृषि वानिकी ही एक ऐसी पद्धति है, जो उपर्युक्त समस्याआें का समाधान करने में सक्षम है ।
    कृषि वानिकी क्या है ?
    कृषि वानिकी मृदा-प्रबन्धन की एक ऐसी पद्धति है जिसके अन्तर्गत एक ही भूखण्ड पर कृषि फसलें एवं बहुउद्देश्यीय वृक्षों/झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन व्यवसाय को लगातार या क्रमबद्ध विधि से संरक्षित किया जाता है और इससे भूमि की उपजाऊ शक्ति मेंवृद्धि की जा सकतीहै ।
    कृषि वानिकी पद्धति अपनाने के पीछे जो मुद्दे हैं उनमें प्रमुख      है :-
    (१) ईधन एवं इमारती लकड़ी की आपूर्ति करना । (२) कृषि उत्पादनों को सुनिश्चित करना एवं खाघान्न में  वृद्धि । (३) मृदा क्षरण पर नियंत्रण । (४) भूमि में सुधार । (५) बीहड़ भूमि का सुधार करना । (६) फलों एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ाना । (७) जलवायु, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण सुरक्षा प्रदान करना । (८) कुटीर उद्योगों हेतु अधिक साधन एवं रोजगार प्रदान करना । (९) जलाऊ लकड़ी की आपूर्ति करके, गोबर का इंर्धन के रूप में उपयोग करने से रोकना और इसे खाद के रूप में उपयोग करना । (१०) कृषि यंत्रों हेतु लकड़ी उपलब्ध कराना ।
    कृषि वानिकी की प्रचलित पद्धतियां :-
    कृषि वानिकी में अनेक पद्धतियां प्रचलित हैं, जिनका उल्लेख यहां किया गया है :-
कृषि उद्यानिकी पद्धति:- आर्थिक दृष्टि एवं पर्यावरण दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण एवं लाभकारी पद्धति है । इस पद्धति के अन्तर्गत शुष्क भूमि मेंअनार, अमरूद, बेर, किन्नू, कागजी नींबू, मौसमी, शरीफा ६-६ मीटर की दूरी ओर आम, आंवला, जामुन, बेल को ८-१० मीटर की दूरी पर लगाकर उनके बीच में बैंगन, टमाटर, भिण्डी, फूलगोभी, तोरई, लौकी, सीताफल, करेला आदि सब्जियां और धनिया, मिर्च, अदरक, हल्दी, जीरा, सौंफ, अजवाइन आदि मसालों की फसलें सुगमता से ली जा सकती हैं । इससे कृषकों को फल के साथ-साथ अन्य फसलों से भी उत्पादन मिल जाता है, जिससे कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा । साथ ही फल वृक्षों की काट-छांट से जलाऊ लकड़ी और पत्तियों द्वारा चारा भी उपलब्ध हो जाता है ।
    कृषि-वन पद्धति:- इस पद्धति में बहुउद्देश्यीय वृक्ष जैसे शीशम, सागौन, नीम, देशी बबूल, यूकेलिप्टस के साथ-साथ रिक्त स्थान में खरीफ में संकर ज्वार, संकर बाजरा, अरहर, मूंग, उरद, लोबिया तथा रबी में गेहूूँ, चना, सरसों और अलसी की खेती की जा सकती    है । इस पद्धति के अपनाने से इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, खाद्यान्न, दालें व तिलहनों की प्रािप्त् होती है । पशुआें को चारा भी उपलब्ध होता है ।
    उद्यान-चारा पद्धति:- यह पद्धति उन स्थानों के लिये अत्यन्त उपयोगी है जहां सिंचाई के साधन उपलब्ध न हों और श्रमिकों की समस्या भी हो । इस पद्धति में भूमि में कठोर प्रवृत्ति के वृक्ष, जैसे-बेर, बेल, अमरूद, जामुन, शरीफा, आंवला इत्यादि उगाकर वृक्षोंके बीच में घांस जैसे-अंजन, हाथी घांस, मार्बल के साथ-साथ दलहनी चारे जैसे स्टाइलो, क्लाइटोरिया इत्यादि लगाते हैं । इस पद्धति से फल एवं घांस भी प्राप्त् होती है औश्र साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है । इसके अतिरिक्त भूमि एवं जल संरक्षण भी होता है । भूमि में कार्बनिक पदार्थोंा की वृद्धि भी होती है ।
    वन-चरागाह पद्धति:- इस पद्धति में बहुउद्देश्यीय वृक्ष जैस-अगस्ती, खेजड़ी, सिरस, अरू, नीम, बकाइन इत्यादि की पंक्तियों के बीच में घांस जैसे- अंजन घास, मार्बल और दलहनी चारा फसलें जैसे-स्टाइलो और क्लाइटोरिया को उगाते हें । इस पद्धति में पथरीली/बंजर व अनुपयोगी भूमि से इंर्धन, चारा, इमारती लकड़ी प्राप्त् होती है । इस पद्धति के अन्य लाभ है :- भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि, भूमि एवं जल संरक्षण, बंजर भूमि का सुधार तथा गर्मियों में पशुआें को हरा चारा उपलब्ध होता है जिससे दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है ।
    कृषि-वन-चरागाह:- यह पद्धति भी बंजर भूमि के लिये उपयुक्त   है । इनमें बहुउद्देश्यीय  वृक्ष जैसे सिरस, रामकाटी, केजुएरीना, बकाइन, शीशम, देसी बबूल इत्यादि के साथ खरीफ में तिल, मूंगफली, ज्वार, बाजरा, मूंग, उड़द, लोबिया और बीच-बीच में सूबबूल की झाड़ियां लगा देते है, जिनसे चारा प्राप्त् होता है और जब बहुउद्देश्यीय वृक्ष बड़े हो जाते हैं, तो फसलों के स्थान पर वृक्षों के बीच में घास एवं दलहनी चारे वाली फसलों का मिश्रण लगाते हैं । इस प्रकार इस पद्धति से चारा, इंर्धन/इमारती लकड़ी व खाद्यान्न की प्रािप्त् होती है ओर बंजर भूमि भी कृषि योग्य हो जाती है ।
    कृषि-उद्यानिकी-चरागाह:- इस पद्धति में आंवला, अमरूद, शरीफा, बेल, बेर के साथ-साथ घास एवं दलहनी फसलेंे जैसे-मूंगफली, मूंग, उड़द, लोबिया, ग्वार इत्यादि को उगाया जाता है । इस पद्धति से फल, चारा, दाल इत्यादि की प्रािप्त् होती है, साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति में भी वृद्धि हो जाती है ।
    कृषि-वन-उद्यानिकी पद्धति:-   यह एक उपयोगी पद्धति है, क्योंकि इसमें मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार के बहुउद्देश्यीय वृक्ष उगाते हैं और उनके बीच में उपलब्ध भूमि पर फल वृक्षों के साथ-साथ फसलें भी उगाते हैं । इस पद्धति से खाद्यान्न, चारा और फल भी प्राप्त् होते हैं ।
    मेड़ों पर वृक्षारोपण:- इस पद्धति ने खेतों के चारों ओर निर्मित मेड़ों पर करौंदा, फालसा, जामुन, नीम, सहजन, रामकाटी, करघई इत्यादि की अतिरिक्त उपज प्राप्त् की जा सकती है । साथ ही चारा, इंर्धन/इमारती लकड़ी   भी प्राप्त् होती हैं और भूमि सरंक्षण भी होता है ।
    कृषि वानिकी के लाभ:-
(१)    कृषि वानिकी को सुनिश्चित कर खाद्यान्न को बढ़ाया जा सकता है ।
(२)    बहुउद्देश्यीय वृक्षों से इंर्धन, चारा व फलियां, इमारती लकड़ी, रेशा, गोंद, खाद आदि प्राप्त् होते हैं ।
(३)    कृषि वानिकी के द्वारा भूमि कटाव की रोकथाम की जा सकती है और भू एवं जल संरक्षण कर मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि कर सकते हैं ।
(४)    कृषि एवं पशुपालन आधारित कुटीर एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा मिलता है ।
(५)    इस पद्धति के द्वारा इंर्धन की पूर्ति करके ५०० करोड़ मीट्रिक टन गोबर का उपयोग जैविक खाद के रूप में किया जा सकता है ।
(६)    वर्षभर गांवों में कार्य उपलब्धता होने के कारण शहरों की ओर युवकों का पलायन रोका जा सकता है ।
(७)    पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में इस पद्धति का महत्वपूर्ण योगदान है ।
(८)    कृषि वानिकी में जोखिम कम है । सूखा पड़ने पर भी बहुउद्देशीय फलों से कुछ न कुछ उपज प्राप्त् हो जाती है ।
(९)    कृषि वानिकी पद्धति से मृदा-तापमान विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में बढ़ने से रोका जा सकता है जिससे मृदा के अंदर पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुआें को नष्ट होने से बचाया जा सकता है, जो हमारी फसलों के उत्पादन बढ़ाने में सहायक होते है ।
(१०)    बेकार पड़ी बंजर, ऊसर, बीहड़ इत्यादि अनुपयोगी भूमि पर घास, बहुउद्देशीय वृक्ष लगाकर इन्हें उपयोग में लाया जा सकता है और उनका सुधार किया जा सकता है ।
(११)    कृषि वानिकी के अन्तर्गत वृक्ष हमारी ऐसी धरोहर है, जो कि सदैव किसी न किसी रूप में हमारे आर्थिक लाभ का साधन बने रहते हैं ।
(१२)    ग्रामीण जनता की आय, रहन-सहन और खान-पान में सुधार होता  है ।
    कृषि वानिकी समय की मांग      है । अत: कृषकों के लिये इसे अपनाना नितांत आवश्यक है । खेत के पास  पड़ी बंजर, ऊसर एवं बीहड़ भूमि में कृषि वानिकी को अपनाने से केवल उनका सदुपयोग होगा साथ ही खाद्यान्न, जल, सब्जियां, चारा, खाद, गोंद आदि अनेक वस्तुएं उपलब्ध होगी । साथ ही रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी और पर्यावरण में निश्चित रूप से सुधार होगा ।
   

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