सोमवार, 5 नवंबर 2012

हमारा भूमण्डल
अलाव से जलते हाथ
मार्टिन खोर

    भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में गिरावट की वजह अमेरिका और यूरोप में आई मंदी को बताया जा रहा है । १२० करोड़ की आबादी वाले देश की विदेशों पर इतनी निर्भरता खतरनाक सिद्ध हो सकती     है । जिस नई अर्थव्यवस्था की दुहाई देते उभरती अर्थव्यवस्थाएं नहीं थकती थीं, वे स्वयं उन्हीं के द्वारा बनाई आर्थिक नीतियों का शिकार हो गई है ।
    यूरोप और अमेरिका के आए आर्थिक संकट के फलस्वरूप विकासशील देशों पर अब विपरीत  प्रभाव पड़ने लगा है । यह उम्मीद थाी कि चीन, भारत एवं ब्राजील जैसे प्रमुख उभरती हुई अर्थव्यवस्थाआें की तेज विकास दर जारी रहेगी, वे स्वयं को पश्चिमी अर्थव्यवस्थाआें से पृथक रख पाएंगी एवं वैश्विक वृद्धि के विकल्प के रूप में उभरेंगी, लेकिन ये उम्मीद धराशायी हो गई है । हालिया आकड़े दर्शा रहे हैं कि वे स्वयं कमजोर होती जा रही है । वर्ष २००८ से २०१० तक चले वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से पश्चिम की मांग में आई कमी के परिणामस्वरूप   घटते निर्यात का प्रभाव विकासशील देशों पर भी पड़ा है । विकासशील देशों में पूंजी की आवक न केवल बाधित हुई है बल्कि पूंजी की वापसी जैसी नई स्थितियां भी पैदा हो गई है । बैंकिग उद्योग के सर्वेक्षण बताते हैं कि उभरती अर्थव्यवस्थाआें में बैंकों की ऋण संबंधी शर्तोंा में भी गिरावट आई है । हालिया रिपोर्टोंा ने भी मुख्य विकासशील अर्थव्यवस्थाआें  में गिरावट की बात को सुनिश्चित किया है ।
    चीन में इस वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर घटकर ७.६ प्रतिशत पर आ गई      है । इसकी निरंतरता को वर्ष २०१० में १०.४ प्रतिशत, वर्ष २०११ में ८.१ प्रतिशत वृद्धि से समझा जा सकता है ।
    अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर ६.१ प्रतिशत बताई है । यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो यह पिछले दो वर्षोंा में क्रमश: ६.५ एवं ८.४ प्रतिशत रही थी । वार्षिक दर के हिसाब से सिंगापुर की अर्थव्यवस्था दूसरी तिमाही सिकुड़कर १.१ प्रतिशत पर आ गई है । इसकी मुख्य वजह निर्माण क्षेत्र में आई ६ प्रतिशत गिरावट थी । इसी तरह मलेशिया आर्थिक शोध संस्थान ने इस वर्ष मलेशिया की अनुमानित वृद्धि दर ४.२ प्रतिशत बताई है । पिछले वर्ष यह ५.१ प्रतिशत थी एवं इस वर्ष की पहली तिमाही में यह ४.७ प्रतिशत ही थी ।
    इंडोनेशिया के केंद्रीय बैंक ने इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर ६.२ प्रतिशत रहने की बात कही है । तुलनात्मक रूप से देखें तो यह पिछले वर्ष ६.५ प्रतिशत एवं इस वर्ष की पहली तिमाही में ६.३ प्रतिशत रही थी । दक्षिण अमेरिकी की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाआें में भी वृद्धि में कमी की संभावना जताई जा रही है । ब्राजील में सरकार ने इस वर्ष अपनी वृद्धि दर पुर्व अनुमानित ४.५ प्रतिशत से घटाकर ३ प्रतिशत आ जाने की बात कहीं है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम अनुमान के आधार पर इसके २.५ प्रतिशत पर ही रहने की संभावना है । पिछले वर्ष वृद्धि दर २.७ प्रतिशत थी । लेकिन मई में समाप्त् हुए १२ महीनोंे के दौरान औद्योगिक उत्पादन में ४.३ प्रतिशत की कमी आई है ।
    अर्जेटीना विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाआें में से एक     था । वर्ष २०११ में इसकी वृद्धिदर ८.९ प्रतिशत थी और वर्ष २००३ से २०११ के मध्य यह औसतन ७.६ प्रतिशत बनी रही । परंतु मई में समाप्त् हुए १२ महीनों में औद्योगिक उत्पाद में ४.४ प्रतिशत की कमी जिसकी मुख्य वजह ऑटो-मोबाइल क्षेत्र में आई ३१ प्रतिशत की गिरावट रही है, के कारण यहां की अर्थव्यवस्था में ०.५ प्रतिशत की गिरावट आई है । दक्षिण अफ्रीका में पिछली तिमाही में वृद्धि दर २.७ प्रतिशत थी, जबकि वर्ष २०११ की चौथी तिमाही में यह ३.२ प्रतिशत थी ।  
    २० जुलाई को विश्व बैंक के नए अध्यक्ष जिम योंग किम ने चेतावनी देते हुए कहा था कि यूरोप का ऋण संकट विश्व के अधिकांश हिस्सों को प्रभावित करेगा । उन्होनें भविष्यवाणी की है कि यदि यूरोप में बड़ा आर्थिक संकट खड़ा हो गया तो विकासशील देशों की वृद्धि में ४ प्रतिशत या अधिक की कमी आ सकती हैं । यदि यूरोजोन के संकट को काबू में कर भी लिया जाता है तो भी दुनिया के अधिकांश हिस्सों में वृद्धि में करीब १.५ प्रतिशत की कमी आ सकती है । मुद्राकोष ने अपने नवीनतम आकलन में यूरोप एवं अमेरिका की आर्थिक स्थितियों की वजह से विकासशील देशों पर विपरीत असर पड़ने वाली तस्वीर पेश की गई है । विकासशील देशों में पूंजी वापसी की स्थिति अभी चिंताजनक स्थिति पर नहीं पहुंची है लेकिन यदि स्थितियां और बिगड़ती है तो समस्याएं पैदा हो सकती हैं । यदि विकासशील अर्थव्यवस्थाआें के वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखें तो साफ समझ में आता है कि एकाएक आए परिवर्तन के परिणामस्वरूप ये उभरती वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं पश्चिम में आई मंदी की शिकार हो गई हैं ।
    दक्षिण केन्द्र (साउथ सेंटर) के मुख्य अर्थशास्त्री यिल्माज अक्यूझ द्वारा तैयार दस्तावेज मेंकहा गया है कि दक्षिण के आश्चर्यचकित कर देने वाले उदय वाले सिद्धांत ने बतला दिया है कि विकासशील देशों की बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई आर्थिक तरक्की को बेवजह विकसित देशों के दुर्भाग्य या आर्थिक लाभों से अलग करके दिखाया जा रहा था । पिछले दशक में विकासशील देशों की उच्च् वृद्धि दर पश्चिमी देशों द्वारा पैदा की गई अनुकूल बाहरी स्थितियों का ही परिणाम थी ।
    अमेरिका की उच्च् उपभोक्ता वृद्धि चीन एवं अन्य पूर्वी एशियाई देशों के उच्च् निर्यात की मुख्य वजह थी । ठीक इसी तरह अफ्रीका एवं दक्षिणी अमेरिका में वस्तुआें (कमाडिटी) के मूल्योंमें आई तेजी भी इसी का परिणाम थी । मुख्य विकासशील देशों के पूंजी प्रवाह मेंआई तेजी से भी उनकी वृद्धि में ईधन का काम किया और उनमें से अनेक के घाटे की पूर्ति में सहायता दी । लेकिन वर्ष २००८-०९ के वैश्विक संकट ने विकासशील देशों की निर्यात वृद्धि एवं पूंजी की वापसी को बढ़ावा दिया ।
    लेकिन विकसित देशों में मंदी के खिलाफ उठाए ठोस कदमों, वित्तीय प्रोत्साहन, कम ब्याज दरें एवं तरलता में वृद्धि के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात वृद्धि एवं पूंजी की वापसी को बढ़ावा दिया । लेकिन विकसित देशों में मंदी के खिलाफ उठाए ठोस कदमों, वित्तीय प्रोत्साहन, कम ब्याज दरें एवं तरलता में वृद्धि के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात वृद्धि एवं पूंजी को पुन: आना प्रारंभ हो गया है । इसके बावजूद विकसित देशों द्वारा मितव्यतता अपनाने एवं यूरोप में मंदी की स्थिति से एक बार पुन: विकासशील देशों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है ।
    दक्षिण या विकासशील देशों के अनुकूल स्थितियां अब कायम नहीं है बल्कि ये नकारात्मक होती जा रही हैं । इस वजह से विकासशील देशों की प्रगति धुंधली नजर आ रही है तथा विकास रणनीति में परिवर्तन आवश्यक हो गया है । इस बीच वांशिगटन पोस्ट ने लिखा है कि यूरो जोन संकट की वजह से हाल की महीनों में उभरती अर्थव्यवस्थाआें की ऋण की स्थितियों में गिरावट आई  है । अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में उभरते बाजार बैंकों में ऋण की स्थिति कठिन हो गई है वहीं दूसरी तिमाही में डूबत ऋणों की संख्या में भी वृद्धि हुई   है । इन परिणामों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आगे आने वाले समय में उभरती अर्थव्यव-स्थाआें के सामने संकट गहराएगा क्योंकि एशिया और लेटिन अमेरिका में बैंकों ने गहरी चिंता दर्शाना प्रारंभ कर दिया है, जिसकी परिणिति कमजोर ऋण व्यवस्था को जन्म दे सकती है ।

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