कविता
बूंदे टपकी नभ से
भवानीप्रसाद मिश्र
बूंद टपकी नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से
कि जैसे हंस दिया हो
हंस रही सी आंख ने जैसे
किसी को कस दिया हो
ठगा सा कोई किसी की
आंख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रोके सह गया हो ।
बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे
आंख उसकी जिस तरह
हंसती हुयी सी आंख चूमे
उस तरह मैने उठाई आंख
बादल फट गया था
चन्द्र पर आता हुआ सा
अभ्र थोड़ा हट गया था ।
बंूद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आंख मिलते ही
झरोखा बन्द हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छन्द हो ले
उस तरह
बादल सिमट कर
और पानी की हजारों बूंद
तब आएं अचानक ।
बूंदे टपकी नभ से
भवानीप्रसाद मिश्र
बूंद टपकी नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से
कि जैसे हंस दिया हो
हंस रही सी आंख ने जैसे
किसी को कस दिया हो
ठगा सा कोई किसी की
आंख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रोके सह गया हो ।
बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे
आंख उसकी जिस तरह
हंसती हुयी सी आंख चूमे
उस तरह मैने उठाई आंख
बादल फट गया था
चन्द्र पर आता हुआ सा
अभ्र थोड़ा हट गया था ।
बंूद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आंख मिलते ही
झरोखा बन्द हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छन्द हो ले
उस तरह
बादल सिमट कर
और पानी की हजारों बूंद
तब आएं अचानक ।
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