शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

कविता
बूंदे टपकी नभ से 
भवानीप्रसाद मिश्र

बूंद टपकी नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से 
कि जैसे हंस दिया हो
हंस रही सी आंख ने जैसे 
किसी को कस दिया हो
ठगा सा कोई किसी की
आंख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रोके सह गया हो । 

बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे 
आंख उसकी जिस तरह 
हंसती हुयी सी आंख चूमे
उस तरह मैने उठाई आंख
बादल फट गया था
चन्द्र पर आता हुआ सा
अभ्र थोड़ा हट गया था । 

बंूद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आंख मिलते ही 
झरोखा बन्द हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छन्द हो ले 
उस तरह 
बादल सिमट कर
और पानी की हजारों बूंद
तब आएं अचानक । 

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