सामाजिक पर्यावरण
मीडिया, बच्च्े और असहिष्णुता
डॉ. कश्मीर उप्पल
विकास संवाद द्वारा प्रतिवर्ष एक राष्ट्रीय मीडिया संवाद आयोजित किया जाता है । यह सभी संवाद देश के प्राकृतिक और ऐतिहासिक महत्व के क्षेत्र मंे होते हैं ।
गत वर्ष मण्डला जिले के कान्हा-किसली मंे तो इस वर्ष हमारे इतिहास के सबसे आध्यात्मिक और धार्मिक नगर ओरछा (मध्यप्रदेश) में यह संवाद लगातार १८ से २० अगस्त तक चला । विकास संवाद देश में समान सोच वाले पत्रकारों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहा है । इसके तहत मीडिया फैलोशिप प्रोग्राम, मीडिया फोरम्स, शोध एवं जमीनी स्थितियों का विश्लेषण, स्त्रोत केन्द्र और मैदानी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ाव के लिए काम चल रहा है । विकास संवाद का यह प्रयोग मीडिया के माध्यम से जनसरोकार के मुद्दों को उठाने और उन्हें परिणाम तक पहुँचाने की कोशिश के रूप में था । यह कोशिश पिछले १५ सालों से लगातार जारी है ।
देश के चोटी के पत्रकारांे से लेकर देश के अर्न्तिम पत्रकार इस संवाद मंे अपने होने या न होने को सार्थकता देते हैं । लगभग १०० पत्रकारों का जमावड़ा, जब पत्रकारिता के अपने-अपने पृष्ठ पलटता है तो लगता है कि पूरी पृथ्वी एक गोले की शक्ल में एक हाथ से दूसरे हाथ गढ़ी जा रही हो ।
भारतीय पत्रकारिता ही नहीं अमेरिका, ब्रिटेन, ईराक, सीरिया और अफगानिस्तान के जमीनी हालात उभारने वाले संवाद दर्ज कराते हैं कि दुनिया में देशों की अर्थव्यवस्था का ही नहीं वरन् मीडिया का भी भू-मंडलीकरण हो गया है ।
देश के राष्ट्रीय स्तर के लगभग ३० पत्रकार तीन दिनों तक देश के व्यापक संदर्भों को उजागर करते रहे । इन तीन दिनों के ३० घंटों मंे मानांे भारत और इंडिया दोनों की पत्रकारिता अपनी कैफियत देती रही, लेती रही ।
अरुण त्रिपाठी सही कहते हैंकि हम इस नये युग की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाए पूरे समाज को भक्तिकाल में ले जा रहे हैं। असहिष्णुता की तलाश कठिन है । इस सूत्र को आगे बढ़ाते सिद्धार्थ वरदराजन दर्ज करते हैं कि हर जगह के लोग देश जिस दिशा मंे जा रहा है, उसमंे मीडिया की भूमिका का लेकर चिंतित हैं । इस समकालीन असहिष्णुता के महत्वपूर्ण संदर्भ राजनीति से जुड़े हैं ।
इस संदर्भ का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि भय से साम्प्रदायिककरण बढ़ाया जा रहा है । इस माहौल मंे राजनीति मीडिया का और मीडिया राजनीति का इस्तेमाल कर रहा है । मीडिया के पास जब कोई न्यूज नहीं होती तो मीडिया साम्प्रदायिकता पर चर्चा करता है । गोरखपुर मंे जिस दिन बच्च्े ऑक्सीजन न मिलने से मरे थे उन दिनांे चैनल वंदेमातरम पर बहस करा रहे थे ।
'द वायर` के संपादक वरदराजन ने यह भी स्पष्ट रेखांकित किया कि आम शहरी असहिष्णु नहीं हुआ है । इस भय का बढ़ने का कारण है सरकार द्वारा कोई कार्यवाही नहीं करना । उन्होंने कहा कि शिक्षण संस्थाओं मंे सवाल पूछने वालों पर आक्रमण कर दिया जाता है । सवाल पूछने के अधिकार को खत्म किया जा रहा है ।
अपने सम्पूर्ण अनुभव के आधार पर वरदराजन ने कहा कि इस तरह के माहौल में पत्रकार के अपने जमीर पर टिके रहने से ही फर्क पड़ता दिखता है। हमारे देश के आगामी चुनाव आने के आसपास मीडिया पर दवाब बढ़ता जायेगा । ऐसे समय मंे सोशल-मीडिया पर अच्छी बातें वायरल करना होगा । ओम थानवी यही कह रहे हैं ।
हिन्दुस्तान टाइम्स के राजनीतिक विश्लेषक विनोद शर्मा ने बात को आगे ले जाते हुए कहा कि हमारा संविधान हमें किसी भी धर्म को अपनाने की छूट देता है । भारत का संविधान भारत को साफ्ट स्टेट बनाता है। हमें अल्पसंख्यकों की मानसिकता को समझना चाहिए । मेरा सच दूसरे के सच से बड़ा और अच्छा है मानना भय पैदा करता है । हमें रोज क्यों कहना पड़ता है-भारत माता की जय । जबकि हम अपने घर मंे अपनी माँ से रोज नहीं कहते-माँ, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ ।
विनोद शर्मा ने कहा कि हम यहां संवाद कर रहे हैंपर देश मंे लोकसंवाद नहीं हो रहा है । मीडिया समूह के औद्योगिक घरानों को २५ रुपये मंे तैयार होने वाला अखबार बाजार में ५ रुपये मंे बेचना होता है । इसलिए मीडिया-घराने सरकार से डरते हैंकि उन्हें विज्ञापन मिलते रहें । बड़े अखबार पर अधिक दवाब पर छोटे अखबार अधिक स्वतंत्र हैं । दक्षिण भारत में बड़े अखबार २० से २५ रुपये में मिलते हैं । पत्रकार अपने व्यक्तिगत सच को न छोड़ें और दूसरों के सच पर सवाल खड़े करें ।
चिन्मय मिश्र ने महात्मा गांधी की पत्रकारिता का उल्लेख करते हुए कहा कि आज की पत्रकारिता की भाषा में रुखापन है। उसमें ममत्व की भाषा नहीं है। बिस्मिल्ला खान के द्वारा बच्चें को शहनाई सिखाने के प्रयास के बारे में वे कहते थे, मैं बच्चें को शहनाई इसीलिए सिखाता हूं क्योंकि बच्च्े ही माँ-बाप को सुसंस्कृत कर सकते हैं । शिवनारायण गौर ने अपनी संस्था एकलव्य की पुस्तक प्रकाशन व्यवस्था के सम्बन्ध मंे कहा कि हमें बच्चें के लिए जितनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए मिलती हैं, उनमें ९० प्रतिशत नैतिक शिक्षा के उपदेशों से भरी हुई होती हैं ।
राकेश दीवान संवाद के मध्य बिन्दुओं पर अपनी रोचक और गंभीर टिप्पणियाँ कर रहे थे । उन्होंने यह भी बताया कि छत्तीसगढ़ मंे बच्चें की मितान-वदना एक ऐसी परम्परा है जहाँ बच्चें को एक दूसरे का भाई-बहन बनाया जाता है । आपने रेखांकित किया कि किस प्रकार शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने के लिए सरकारी स्कूलों की निगेटिव रिपोर्टिंग हो रही है ।
संवाद में हस्तक्षेप करते हुए विनोद शर्मा ने कहा कि हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इस समय हमारे देश में मध्यकाल, आधुनिक-इंडिया और उत्तर-आधुनिक (पोस्ट-माडर्न) इंडिया एक साथ अस्तित्व में है ।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन के अनुसार गांधी सबसे बड़े पत्रकार हैं। गांधी ने ब्रिटिश सरकार के कम्युनिकेशन-सिस्टम को ध्वस्त कर दिया था । आजकल हवा बनाने और हवा-बिगाड़ने का काम मीडिया कर रहा है । २४ घंटे के मीडिया चैनलों के पास २-३ घंटे से अधिक के समाचार नहीं होते हैं। इसीलिए समाचारों का दोहरीकरण और उत्तेजक बहसों को जगह दी जाती है । टेलिविजन चैनल हर सुबह नीति तय करते हैं कि आज दिन भर किसको उठाना है और किसको गिराना है । हम सब वही देखने-सुनने को बाध्य हैं ।
अरविंद मोहन के अनुसार अब यह माना जाने लगा है कि मीडिया की तरह चुनावों को भी मैनेज किया जा सकता है। अखबार के प्रबंधक व्यंग्य, कहानी, कविता, ऊँचे आदर्शों की बात आदि देने के लिए कहते हैं । सवाल यह है कि प्रबंधक किसके कहने पर ऐसा करते हैं ?
डॉ. कश्मीर उप्पल ने कहा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि बैर ईर्ष्या का अचार है ठीक इसी तरह असहिष्णुता घृणा का अचार है । पंजाब में रासायनिक खेती से थका हुआ किसान अस्सी के दशक में कट्टरता की ओर मुड़ गया था । इस तरह समाज की मुख्य धारा मंे जगह पाने के लिए कुछ लोग अपनी असहिष्णुता दिखाकर अपने-अपने परिवेश के लीडर बन रहे हैं ।
अरुण त्रिपाठी ने भूमंडलीकरण की नीतियों के फलस्वरुप बढ़ रही असमानता का उल्लेख करते हुए बताया कि इस समय सभी सरकारें व्यवस्था के सजावटी काम करने में लगी हुई हैं । हमारे देश में आर्थिक राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रुप मंे देश मंे फैलाया जा रहा है ।
इन दिवसों में प्रश्न-उत्तर के कई-कई अध्याय भी सम्मिलित हैं । असहमत होने के लिए प्रतिबद्ध लोगों से विमर्श का धरातल कई बार डोला परन्तु असहिष्णुता पर विजय पाने आतुर स्वर अधिक संगठित रुप से उभरे ।
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