कृषि जगत
कार्पोरेट खेती से कृषि में संकट
विवेकानंद माथने
खेती को उद्योग में तब्दील करने की बातें कई सालों से होती रही हैं, लेकिन अब कॉर्पोरेट हितों के चलते इसे अमली जामा पहनाने की तैयारियां जोर-शोर से दिखाई देने लगी हैं ।
सरकार एवं विश्व व्यापार संगठन` सरीखे देशी-विदेशी संस्थान अव्वल तो किसानी को किसानों के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं और दूसरे सीमित होती कृषि भूमि में बाजारों के लिए भरपूर उत्पादन के मार्फत मुनाफा कूटना चाहती हैं ।
लगता है, अब भारत किसानों का देश नहीं कहलाएगा । यहां खेती तो की जायेगी, लेकिन किसानों के द्वारा नहीं, खेती करने वाले विशालकाय कार्पोरेट्स होंगे। आज के अन्नदाता किसानों की हैसियत उन बंधुआ मजदूरों या गुलामों की होगी, जो अपनी भूख मिटाने के लिये कार्पोरेट्स के आदेश पर अपनी ही जमीनों पर चाकरी करेंगे । इस समय देश में खेती और किसानों के लिये जो नीतियां और योजनाएं लागू की जा रही हैं उसके पीछे यही सोच दिखाई देती है । कार्पोरेट हितों ने पहले तो षड्यंत्रपूर्वक देश की ग्रामीण उद्योग व्यवस्था तोड़ दी और गांवों के सारे उद्योग धंधे बंद कर दिए, स्थानीय उत्पादकों को ग्राहकों के विरुद्ध खड़ा किया गया । विज्ञापनों के जरिये स्थानीय उद्योगों में बनी वस्तुओं को घटिया व महंगा और कंपनी उत्पादन को सस्ता व गुणवत्तापूर्ण बताकर प्रचारित किया गया और यहां की दुकानों को कम्पनी के उत्पादनों से भर दिया गया । इस गोरखधंधे में स्थानीय व्यापारियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने अपने व्यापार और देशी उद्योगों के पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारकर उसे कार्पोरेट के हवाले कर दिया । अब उद्योग, व्यापार और खेती पर कार्पोरेट्स एक-के-बाद-एक कब्जा करते जा रहे हैं ।
प्राकृतिक संसाधन, उद्योग और व्यापार पर तो उन्होंने पहले ही कब्जा कर लिया था। अब वे खेती पर कब्जा जमाना चाहते हैं ताकि कार्पोरेट उद्योगों के लिये कच्च माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरुरी उत्पादन कर सकें । कार्पोरेट खेती के हित में छोटे किसानों के पास पूंजी की कमी, छोटी जोतों में खेती का अ-लाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी खेती कर पाने में अक्षमता आदि के तर्क गढ़े गए । कहा गया कि पारिवारिक खेती करने वाले किसान उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नहीं हैं । इस तर्क की आड में कॉर्पोरेट्स ने प्रत्यक्ष स्वामित्व या पट्टा या लंबी लीज पर जमीन लेकर खेती करने या किसान समूह से अनुबंध करके किसानों को बीज, कर्र्ज, उर्वरक, मशीनरी और तकनीक आदि उपलब्ध कराकर खेती करने का जुगाड़ कर लिया ।
खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात-निर्यात आदि सभी पर कार्पोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं । दुनिया के विशिष्ट वर्ग की भौतिक जरुरतों को पूरा करने के लिये जैव इंर्धन, फलों, फूलों या खाद्यान्न की खेती भी वैश्विक बाजार को ध्यान में रखकर करना चाहते हैं । वे फसलें, जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ मिलेगा, पैदा की जाएंगी और अपनी शर्तोंा व कीमतों पर बेची जाएंगी । अनुबंध खेती और कार्पोरेट खेती के अनुरूप नीतिगत सुधार के लिये उत्पादन प्रणालियों को पुनर्गठित करने और सुविधाएं देने के लिये नीतियां और कानून बनाये जा रहे हैं ।
दूसरी हरित क्रांति के द्वारा कृषि में आधुनिक तकनीक, पूंजी-निवेश, कृषि यंत्रीकरण, जैव तकनीक और जीएम फसलों, ई-नाम आदि के माध्यम से अनुबंध खेती, कार्पोरेट खेती के लिये सरकार एक व्यवस्था बना रही है ।
डब्ल्यूटीओ का समझौता, कार्पोरेट खेती के प्रायोगिक प्रकल्प, अनुबंध खेती कानून, कृषि और फसल बीमा योजना में विदेशी निवेश, किसानों के संरक्षक सीलिंग कानून को हटाने का प्रयास, आधुनिक खेती के लिये इजरायल से समझौता, खेती का यांत्रिकीकरण, जैव तकनीक व जीएम फसलों को प्रवेश, कृषि मंडियों का वैश्विक विस्तारीकरण, कर्ज राशि में बढ़ौतरी, कर्ज ना चुका पाने में अक्षमता पर खेती की गैरकानूनी जब्ती, कृषि उत्पादों की बिक्री की श्रृंखला, सुपरबाजार, जैविक इंर्धन, जेट्रोफा, इथेनॉल के लिये गन्ना और फलों, फूलों की खेती आदि को बढ़ावा देने की सिफारिशें, निर्यातोन्मुखी कार्पोरेटी खेती और विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते के तहत वैश्विक बाजार में खाद्यान्न की आपूर्ति की बाध्यता आदि सभी को एकसाथ जोड़कर देखने से कार्पोरेट खेती की तस्वीर स्पष्ट होती है।
इस समय देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां रॉथशिल्ड, रिलायंस, पेप्सी, कारगिल, ग्लोबल ग्रीन, रॅलीज, आयटीसी, गोदरेज, मेरी को आदि के व्दारा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगंढ़ आदि प्रदेशों में आम, काजू, चीकू, सेब, लीची, आलू, टमाटर, मशरुम, मक्का आदि की खेती की जा रही है। उच्च् शिक्षित युवा जो आधुनिक खेती करने, छोटी दुकानों में सब्जी बेचने, प्रसंस्करण करने आदि के काम कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश कार्पोरेटी व्यवस्था स्थापित करने के प्रायोगिक प्रकल्पोंपर काम कर रहे हैं ।
भारत में किसी भी व्यक्ति या कंपनी को एक सीमा से अधिक खेती खरीदने, रखने के लिये सीलिंग कानून प्रतिबंधित करता है । इसके चलते कार्पोरेट घरानों को खेती पर सीधा कब्जा करना संभव नहीं है। इसलिये सीलिंग कानून बदलने के प्रयास किए जा रहे हैं । कुछ राज्यों में अनुसंधान और विकास, निर्यातो-न्मुखी खेती के लिये कृषि व्यवसाय फर्मों को खेती खरीदने की अनुमति दी गई है, कहीं पर कंपनियोंके निदेशकों या कर्मचारियों के नाम पर खेती खरीदी की गई है, तो कहीं राज्य सरकारों ने नाममात्र राशि लेकर पट्टे पर जमीन दी है । बंजर भूमि खरीदने या किराए पर लेने की अनुमति दी जा रही है।
कृषि में किसानों की आय दोगुनी करने के लिये नीति आयोग का सुझाव यह है कि किसानों को कृषि से गैर कृषि व्यवसायों में लगाकर आज के किसानों की संख्या आधी की जाये, तो बचे हुए किसानों की आमदनी अपने आप दोगुनी हो जायेगी । आयोग कहता है कि 'कृषि कार्यबल को कृषि से इतर कार्यों में लगाकर किसानों की आय में काफी वृद्धि की जा सकती है। अगर जोतदारों की संख्या घटती रही तो उपलब्ध कृषि आय कम किसानों में वितरित होगी ।` वे आगे कहते है कि 'वस्तुत: कुछ किसानों ने कृषि क्षेत्र को छोड़ना शुरु भी कर दिया है और कई अन्य कृषि को छोडने के लिये उपयुक्त अवसरों की तलाश कर रहे हैं । किसानों की संख्या १४.६२ करोड़ से घटाकर २०२२ तक ११.९५ करोड़ करना होगा । जिसके लिये प्रतिवर्ष २.४ प्रतिशत किसानों को गैर-कृषि रोजगार से जोड़ना होगा ।
एक रिपोर्ट के अनुसार आज देश में लगभग ४० प्रतिशत किसान अपनी खेती बेचने के लिये तैयार बैठे है । केन्द्रीय वित्त मंत्री ने संसद में कहा था कि सरकार किसानों की संख्या २० प्रतिशत तक ही सीमित करना चाहती है। अर्थात् यह २० प्रतिशत किसान वही होंगे, जो देश के गरीब किसानों से खेती खरीद सकेंगे और जो पूंजी, आधुनिक तकनीक और यांत्रिक खेती का इस्तेमाल करने में सक्षम होंगे। यह संभावना उन किसानों के लिये नहीं है जो खेती में लुटने के कारण परिवार का पेट नहीं भर पा रहा है। इसका अर्थ यह है कि आज के शत प्रतिशत किसानों की खेती पूंजीपतियोंके पास हस्तांतरित होगी और वे किसान कार्पोरेट होंगे ।
किसानों की संख्या २० प्रतिशत करने के लिये ऐसी परिस्थि-तियां पैदा की जा रही हैं कि किसान स्वेच्छा से या मजबूर होकर खेती छोड़ दे या फिर ऐसे तरीके अपनाए जिसके द्वारा किसानों को झांसा देकर फंसाया जा सके । किसान को मेहनत का मूल्य न देकर सरकार खेती को घाटे का सौदा इसीलिये बनाए रखना चाहती है ताकि कर्ज का बोझ बढ़ाकर उसे खेती छोड़ने के लिये मजबूर किया जा सके।
जो किसान खेती नहीं छोड़ेंगे उनके लिये अनुबंध खेती के द्वारा कार्पोरेट खेती के लिये रास्ता बनाया जा रहा है। देश में बांधों, उद्योगों और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिये पहले ही करोड़ों हेक्टर जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है। अब बची हुई जमीन धीरे-धीरे उन कार्पोरेट्स के पास चली जायेगी जो दुनिया में खेती पर कब्जा करने के अभियान पर निकले है। लूट की व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाकर उसे स्थाई और अधिकृत बनाना कार्पोरेट की नीति रही है।
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