कविता
धरती की लाज बचाये
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन
मैं शिप्रा सा ही
सरल सरल बहता हूं ।
मैं कालीदास की
शेष कथा कहता हूँ ।।
मुझको न मौत भी
भय दिखला सकती है ।
मैं महाकाल की
नगरी में रहता हूँ ।।
हिमगिरी के उर का
दाह दूर करता है ।
मुझको सर, सरिता
नद, निर्झर भरना है ।।
मैं बैठूं कब तक
केवल कलम सम्हाले ।
मुझको इस युग का
नमक अदा करना है ।।
मेरी श्वासों में
मलय-पवन लहराये ।
धमनी-धमनी में
गंगा-जमुना लहराये ।।
जिन उपकरणों से
मेरी देह बनी है ।
उनका अणु-अणु
धरती की लाज बचाये ।।
धरती की लाज बचाये
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन
मैं शिप्रा सा ही
सरल सरल बहता हूं ।
मैं कालीदास की
शेष कथा कहता हूँ ।।
मुझको न मौत भी
भय दिखला सकती है ।
मैं महाकाल की
नगरी में रहता हूँ ।।
हिमगिरी के उर का
दाह दूर करता है ।
मुझको सर, सरिता
नद, निर्झर भरना है ।।
मैं बैठूं कब तक
केवल कलम सम्हाले ।
मुझको इस युग का
नमक अदा करना है ।।
मेरी श्वासों में
मलय-पवन लहराये ।
धमनी-धमनी में
गंगा-जमुना लहराये ।।
जिन उपकरणों से
मेरी देह बनी है ।
उनका अणु-अणु
धरती की लाज बचाये ।।
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