गुरुवार, 18 अगस्त 2016

कविता
धरती की लाज बचाये 
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन 












मैं शिप्रा सा ही 
सरल सरल बहता हूं । 
मैं कालीदास की
शेष कथा कहता हूँ ।।
मुझको न मौत भी
भय दिखला सकती है । 
मैं महाकाल की
नगरी में रहता हूँ ।। 
हिमगिरी के उर का
दाह दूर करता है । 
मुझको सर, सरिता
नद, निर्झर भरना है ।। 
मैं बैठूं कब तक 
केवल कलम सम्हाले ।
मुझको इस युग का 
नमक अदा करना है ।।
मेरी श्वासों में 
मलय-पवन लहराये । 
धमनी-धमनी में 
गंगा-जमुना लहराये ।। 
जिन उपकरणों से 
मेरी देह बनी है । 
उनका अणु-अणु 
धरती की लाज बचाये ।। 

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