गांधी के १५०वें वर्ष पर विशेष
मानवता को रौंदता विकास
विवेकानंद माथने
आधुनिक समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द है-विकास । मौजूदा दौर में जिस तरह की अवधारणाएं विकास के नाम पर थोपी जा रही हैं वे निश्चित ही इंसानी नस्ल के अस्तित्व के लिए गंभीर संकट पैदा कर रही हैं। ऐसे में हमारे देश में गांधी हैं जिनकी समझ विकास के मौजूदा मॉडल के सर्वथा विपरीत है।
'विकास` आधुनिक दुनिया का सबसे बडा नशा है। जो उसका मजा चख रहे हैं, जो मजा चखने की कतार में लगे हैं और जो दूसरों को नशा चखते देखकर मानते हैं कि भाग्य साथ देगा तो उन्हें भी उसका मजा मिलेगा, वे सब इस नशे में अंधे हो चुके हैं। आमतौर पर इस विकास का मतलब होता है-भौतिक विकास, घर-बाहर, सभी जगह शारीरिक और मानसिक स्तर पर भोगों को भोगने के लिये सारी भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि। उन्हें पाने के लिये भौतिक साधनों का निर्माण, मशीनों का निर्माण, अधोसंरचना का निर्माण, युद्ध सामग्री का निर्माण अनिवार्य बन जाता है।
इसके लिये जमीन, पानी, जंगल, खनिज, सीमेंट, लोहा, कोयला, गौण खनिज, गैस, खनिज तेल, पेट्रोलियम, लकडी, बिजली, स्पेक्ट्रम, वातावरण आदि की जरुरत पड़ती है और उसे प्राप्त करने के लिये खदानें, बिजली परियोजनाएं इस्पात परियोजनाएं, बड़े बांध और अन्य उद्योगों का निर्माण किया जाता है।
औद्योगिक उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादों का उपयोग दोनों में ऊर्जा के उपयोग और कोयला, गैस, पेट्रोलियम आदि जीवाश्म ईंधन जलाने से जहरीली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। ये गैसें सूर्य की ऊर्जा का शोषण करके पृथ्वी की सतह को गर्म कर देती है। नतीजे में वैश्विक ताप में वृद्धि और मौसम की दशाओं यानि जलवायु में परिवर्तन होता है। वैज्ञाानिकों का कहना है कि यह व्यापक तौर पर अपरिवर्तनीय है।
इसके कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने से मौसम में बदलाव जैसे चक्रवाती तूफान, भारी वर्षा, बाढ़, हिमवर्षा, सूखा, तापमान वृद्धि, बर्फ पिघलना, मरुस्थलीकरण, समुद्री जलस्तर में वृद्धि, जैव- विविधता का हास, कृषि उत्पादकता पर प्रभाव आदि हो रहा है। वातावरण में हर साल २ पीपीएम (पार्ट/ परमिलियन) की दर से कार्बन बढ़ रहा है। यह वर्ष २०१३ में ४०० पीपीएम से २०१७ तक ४०७ पीपीएम तक बढ़ा है। वैज्ञानिक ककहते हैं कि इसे नहीं रोका गया तो केवल मनुष्य, सजीव सृष्टि ही नहीं, कुद दशकों में समूची पृथ्वी ही नष्ट हो सकती है।
मोटे-तौर पर एक यूनिट बिजली के लिये एक किलो कोयला, पांच लीटर पानी की आवश्यकता होती है। एक किलो कोयला जलाने से ४०० ग्राम राख, २७०० किलो कैलरी ऊष्णता और एक किलो ऑक्सीजन खर्च होकर १.५ किलो कार्बन-डाय-ऑक्साईड वातावरण में पहुंचती है। भारत में कोल आधारित उद्योगों में हर साल लगभग ८० करोड़ टन कोयला जलाया जाता है । जितना कोयला उतनी ही ऑक्सीजन खर्च होकर १२० करोड़ टन कार्बनडाय-आक्साइड, ३२ करोड टन राख और २१६० खरब किलो कैलरी ऊष्णता वातावरण में पहुंचती है। इसे दूसरे उद्योगों से होने वाले प्रभावों से जोडा जाए तो यह कई गुना अधिक होगा ।
औद्योगीकरण के इतने भयंकर परिणाम दिखाई देने के बावजूद भारत भी उसी होड़ में शामिल हो गया है। भौतिक उपभोगों की निजी वस्तुओं,वाहनों,अधोसंरचना और हिंसक हथियार आदि का उत्पादन घरेलू इस्तेमाल और निर्यात के लिये तेजी से बढाया जा रहा है। प्रति व्यक्ति औसत बिजली खपत के आधार पर विकास मापने वाले देशों की नकल करके भारत में भी औसत बिजली खपत विकसित देशों के बराबर पहुंचाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
विकसित अमीर देशों ने दो, ढाई दशक पहले नीति बनाई थी कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को गरीब, विकासशील देशों में स्थानांतरित करना चाहिये। इससे विकसित देशों को उद्योगों के प्रदूषणकारी प्रभावों से तो मुक्ति मिल सकती है, लेकिन राष्ट्र की सीमाएं ग्रीन-हाउस प्रभावों को रोक नहीं सकतीं। यह प्रभाव केवल उत्पादन प्रक्रिया से नहीं होता बल्कि उत्पादित वस्तुओं के उपयोग से भी प्रदूषण और तापमान में वृद्धि होती है।
विज्ञान ने हमें बताया है कि ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वह केवल रुपांतरित होती है। इसका अर्थ यह भी है कि हर भौतिक वस्तु के उपयोग की कीमत के रुप में हमें तापमान वृद्धि और प्रदूषण की कीमत चुकानी पड़ती है। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से जो जितने यूनिट बिजली, ऊर्जा का उपयोग करता है वह उसी अनुपात में पर्यावरण को हानि पहुंचाता है ।
मनुष्य की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने के लिये एक हद तक विकास की जरुरत समझी जा सकती है,उसे नकारा नहीं जा सकता । बीमारियों से निजात पाने के लिये जैसे दवाइयों में अल्कोहल या स्वाद के लिये नमक की भूमिका है, उसी हद तक इसे स्वीकारा जा सकता है। मनुष्य के श्रम के बोझ को कम करने के लिये, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना होने वाला भौतिक विकास, जो सबके लिये सहज उपलब्ध हो, उसे उपयुक्त माना जा सकता है। लेकिन ऐसी सुविधाऐं जो सबको कभी प्राप्त नहीं हो सकतीं, जो एक विशिष्ट वर्ग के लिये ही बनाई जाती हैं और जिसे दुनिया के अधिकांश लोगों के जीवन के बुनियादी अधिकार छीनकर ही उपलब्ध करवाया जा सकता है, उसे अनुमति नहीं दी जा सकती ।
प्राकृतिक संसाधन और श्रम ही मूल सम्पत्ती हैं, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के भारी दोहन और श्रम के असहनीय शोषण के बावजूद ऐसा नहीं है कि औद्योगिक क्रांति के कारण दुनिया के सभी लोगों के जीवन में खुशहाली आई हो। औद्योगिक क्रांति का तीन सौ साल का इतिहास यह बताता है कि इस दौर में आर्थिक विषमता बढी है और चरम सीमा पर पहुंची है।
दुनिया की लगभग ७५ प्रतिशत संपत्ती एक प्रतिशत धनी लोगों के पास इकट्ठा हुई है और १५-२० प्रतिशत उन लोगों को भी उसका लाभ मिला है जो जाने-अनजाने धनी लोगों की समाज को लूटने की प्रक्रिया में शामिल हैं । लेकिन जिन्होंने सबसे बड़ी कीमत चुकाई है, ऐसे ८० प्रतिशत लोगों को इसका कोई लाभ नहीं मिला है। उन्हें इसका लाभ मिल भी नहीं सकता क्योंकि उनके हित एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हैं ।
'विकास' के नशे ने पर्यावरण का नाश और पृथ्वी के अस्तित्व पर संकट पैदा किया है जिसे न रोकने से सबका विनाश होगा । औद्योगिक क्रांति इस मान्यता पर खडी है कि विकास केलिये लोगों के अधिकार छीनने ही पडेंगे। इसलिये हमें उसे पाने की होड़ में शामिल नहीं होना चाहिये। इस तरह की भौतिक सुविधायें सभी को देनी हों तो दुनिया की बडी आबादी को उसके लिये बलि चढाना होगा और प्रकृति के आज तक हुए विनाश से छह-सात गुना अधिक विनाश करना होगा ।
महात्मा गांधी ने कहा था -'मुझे तो ऐसी आशंका है कि उद्योगवाद मानव जाति के लिये अभिशाप सिद्ध होने वाला है। एक राष्ट्र द्वारा दूसरे का शोषण सदा नहीं चल सकता । उद्योगवाद तो पूरी तरह आपकी शोषण की क्षमता, विदेशों में आपके लिये बाजार मिलने और प्रतिस्पर्धियों के अभाव पर ही निर्भर है। जिस दिन भारत दूसरे राष्ट्रों का शोषण करने लगेगा और अगर उसका औद्योगिकरण होता है तो वह शोषण करेगा ही, उस दिन वह दूसरे राष्ट्रों के लिये एक अभिशाप बन जायेगा । दुनिया के लिये एक विपत्ति बन जायेगा ।
फिर दूसरे राष्ट्रों के शोषण के लिये मुझे भारत के औद्योगिकरण की बात क्यों सोचनी चाहिये ? और अगर उद्योग का भविष्य पश्चिम के लिये अंधकारमय है तो क्या भारत के लिये वह और भी अंधकारमय नहीं होगा?
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