रविवार, 18 नवंबर 2018

सम्पादकीय
प्रकृति को बचाना हमारी जिम्मेदारी है 
 विकास और प्रगति के नाम पर हमने ऐसा बहुत कुछ खो दिया है, जो हमारे जीवन को ज्यादा समृद्ध और मूल्यवान बनाता है । हमने वन सम्पदा को नष्ट किया है, खेतों को  उजाड़ दिया है और नदियों को प्रदूषित किया है । अंधाधुंध विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों को यानी पेड़ों, पहाड़ों और नदियों को बेतहाशा लूटा है । अब इसे समझने की जरूरत और सहेजने-संभालने की जरूरत है क्योंकि इनका संबंध हमारे अस्तित्व और हमारी संस्कृति से है । 
रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक कविता है देश की माटी देश का जल, हवा देश की देश के फल, सरस बनें प्रभु सरस बनें । देश के घर और देश के घाट, देश के वन और देश के बाट सरल बनेंप्रभु सरल बनें । देश के तन और देश के मन, देश के घर के भाई बहन, विमल बने प्रभु विमल बने । हमारी कला और संस्कृति ने देश की माटी और देश के जल का पुनर्वास किया है । हमारे यहां कितनी विविधता है ? यह वैविध्यपूर्ण पर्यावरण देश को समृद्ध बनाता है । इसलिए संस्कृति और प्रकृति के क्षेत्र में हमारा देश अलग और अनूठी पहचान रखता है । इस सुन्दरता को महसूस करना होगा और बचाना होगा । 
इस समय प्रकृति और संस्कृति दोनोंही खतरे में है । प्रसिद्ध कवि शिवमंगलसिंह सुमन अपनी कविता में कहते हैं - स्वातंत्रय सोचने का हक है, जैसे भी मन की धारा चले, स्वातंत्रय प्रेम की सत्ता है कि जिस ओर ह्दय का प्यार चले स्वातंत्रय बोलने का हक है जो कुछ  दिमाग में आता है । देश मेंविगत वर्षो में कहीं न कहीं असहमति में उठा हाथ इसलिए भी है क्योंकि जरूरत से ज्यादा व्यक्ति की व्यक्तिगत बातों पर निगरानी का माहौल बना है । व्यक्ति की निजता हर हाल में सुरक्षित होनी चाहिए उसे सार्वजनिक करना या न करना भी व्यक्ति का निजी अधिकार होना चाहिए । 
इसलिए एक सर्वसमावेशी दृष्टिकोण के साथ हमारी यह जिम्मेदारी है कि रचनात्मक स्तर पर कार्य किए जाए ताकि एक अधिक उदार और संवेनदशील समाज का निर्माण हो सके जो पर्यावरण और संस्कृति दोनों को बचाने में सहयोगी हो । 

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