सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

सामयिक
कुंभ के बहाने गंगा विमर्श
कुमार कृष्णन
    पिछले दिनों इलाहाबाद कुंभ के पहले शाही स्नान में तकरीबन एक करोड़ लोगों ने संगम मेंस्नान किया । प्रधानमंत्री को भी उद्योगों को चेतावनी देनी पड़ी कि वे कुंभ के दौरान गंगा को प्रदूषित करने से बाज आएं । लेकिन क्या कुंभ के बाद प्रदूषण पुराने स्तर पर लौट आएगा ?
    भारत में कुंभ का एक गौरवशाली इतिहास रहा है । छ: वर्ष में अर्धकुंभ, १२ वर्ष में कुंभ और १४४ वर्ष में महाकुंभ ! आखिर नदी के किनारे ही हमारे ज्यादातर मठ, मंदिर, तीर्थ और धर्माचार्योंा के ठिकाने क्यों बने ? दरअसल में भारत में कुंभ की गौरवशाली परंपरा का अभिप्राय प्रकृति संरक्षण ही था । अफसोस की बात है कि कुंभ के स्नानार्थी कुंभ का अभिप्राय ही भूल गये है । आज कुंभ की नदिया आचमन योग्य भी नहीं हैं । 
     कुंभ गंगा और यमुना के संगम इलाहाबाद में आयोजित हो रहा है । वास्तविकता यह है कि गंगा-जमुना जैसी नदियों पर प्रदूषण की मार लगातार बढ़ रही है । अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत की कोई भी नदी स्नान योग्य नहीं रह गई है । उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर बंगाल में २७ दिनों में १८०० किलोमीटर की यात्रा के बाद ११ पर्यावरण कार्यकर्ताआें ने बताया कि यमुना सर्वाधिक प्रदूषित नदी है । अपने अनुभवों के आधार पर पर्यावरण प्रेमियों ने यह भी कहा कि गांगेय क्षेत्र की नदियां जगह-जगह नालों में तब्दील हो गई हैं जो इनके किनारे बसने और इन पर जीवनयापन के लिए आश्रित लोगोंकी जान के लिए सीधे-सीधे  खतरे का सबब भी बन गई हैं ।
    यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नगरों-महानगरों की सारी गंदगी इन नदियों में लगातार छोड़ी जा रही है । नदियों के आसपास लगे हजारों कारखानों से निकलने वाला रसायन युक्त और जहरीला कचरा लाख मनाही के बाद भी बिना किसी रोक-टोक के इन नदियोंमें ही छोड़ा जाता है । करोड़ों रूपए खर्च कर लगाए गए जलशोधन संयंत्र रख-रखाव के अभाव में ठोस नतीजा नहीं दे पा रहे हैं । रही-सही कसर हमारी मान्यताआें और धार्मिक परंपराआें ने निकालकर रख दी है । हर साल दुर्गा पूजा पर लाखों की संख्या में मूर्तियों का विसर्जन इनमें किया जाता है ।
    अकेलेपटना में ही दुर्गा पूजा के अवसर पर हजारों लीटर पेंट परोक्ष रूप से  गंगा में बहा दिया जाता    है । इसी तरह छठ या अन्य पर्वोंा पर भी पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी जाती है जो सीधे-सीधे नदी की सांसें रोकने का काम करती है । पूजा के कामआए फूल-पत्तियों  व अन्य सामग्री को नदी  के ही हवाले करने के दृश्य कभी भी देखे जा सकते हैं । सिर्फ यमुना की सफाई के नाम पर १२०० करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए किंतु इसकी एक बूंद भी साफ नहींहुई  । उल्टे यमुना और मैली होती चली गई ।
    यही हाल गंगा  का है । अब जबकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, इसे फिर से नया जीवन देने और प्रदूषण की मार से बचाने को लेकर सत्ता और प्रशासन के स्तर पर कुछ सुगबुगाहट जरूर है । स्वयं प्रधानमंत्री भी गंगा की बदहाली पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं । बहरहाल, अब यह बात साबित हो चुकी है कि मौखिक चितंन करने और बगैर किसी ठोस और कारगर योजना के करोड़ों रूपए बहाने से नदियों का कायाकल्प नहीं होने  वाला । नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोगाम के ताजा अध्ययन के बाद गंगा के प्रदूषण के बारे में तमाम लोगों और विशेषकर उन राज्यों की सरकारों की आखें खुल जानी चाहिए जिन राज्यों से होकर गंगा  गुजरती है  । इस अध्ययन के अनुसार गंगा किनारे रहने वाले लोग देश के अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर रोग से ज्यादा ग्रसित हो सकते हैं ।
    इस औद्योगिक कचरे में आर्सेनिक, फ्लोराइड अन्य भारी धातुएं जैसे जहरीले तत्व भी शामिल हैं । इन्हीं के कारण नदी के किनारे रहने वाले लोगों में गॉल ब्लैडर (पित्ताशय) के कैंसर के मामले देखने मेंआए है ं जो कि पूरे विश्व में भारत को दूसरे स्थान पर खड़ा कर  देते  हैं । गंगा नदी में खतरनाक रसायनों और जहरीली धातुआें  की स्थिति बेहद अधिक है । भारत की लगभग ४० प्रतिशत आबादी गंगा के पानी पर निर्भर करती है । इसलिए अब समय आ गया है जब गंगा में बढ़ते प्रदूषण को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाए ।
    दूसरी ओर नदी में ऑक्सीजन का स्तर भी इतना कम है कि जलीय जीवन के लिए भी गंभीर खतरा है । गंगा के किनारे बसे लोगों में त्वचा का कैंसर भी पाया जा रहा है । इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि इन बातों से हिन्दू तीर्थयात्रियों के मन पर क्या गुजर रही होगी जो गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य कमाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। अनेक वनस्पतकि औषधियों को स्पर्श करता हुआ गंगा का निर्मल जल जब हरिद्वार, प्रयाग और काशी पहुंचता था तो लोग इसे अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कैनो और शीशियों में भरकर अपने घर आते थे लेकिन आज यह जल इस योग्य नहीं रह गया है ।
    केन्द्र सरकार गंगा को बचाने के लिए अब तक लगभग ९००० करोड़ रूपए खर्च कर चुकी है मगर लगता है कि सारा का सारा पैसा जैसे गटर में बह गया हो । गंगा और हिमालय भारत की पहचान रहे है इसलिए भी गंगा को बचाया जाना चाहिए ।
    औघोगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे  इतना साफ करते है कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रहे सकें । दूसरी ओर यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है । सभी राज्य सरकारों का यह फर्ज है कि वे एकजुट होकर गंगा के हर पल होते क्षय को रोकें । उनके सारे खर्च और प्रयासों को इस तरह से समन्वित किया जाए जिससे अधिकाधिक लाभ हो । उत्तप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेख यादव के इस सुझाव में दम है कि बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश की सरकारें आपस में मिल-बैठकर ऐसी रणनीति बनाएं जिससे कि इस काम को युद्ध स्तर पर कैसेपूरा किया जा सके।

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