ज्ञान विज्ञान
पहले की तुलना में धरती तेजी से गर्म हो रही है
नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक हालिया शोध के अनुसार पिछले २००० वर्षों में पृथ्वी के गर्म होने की गति इतनी तेज कभी नहीं रही जितनी आज है । यह अध्ययन युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. बेन्जमिल हेनले और युनिवर्सिटी ऑफ बर्न के डॉ. राफेल न्यूकोम ने संयुक्त रूप से किया है ।
दरअसल, यह अध्ययन पहले माइकल मान, रेमंड ब्रोडले और मालकोम ह्जेस द्वारा १९९९ में किए गए अध्ययन को आगे बढ़ाता है जिसमें उन पुरा-जलवायु वेत्ताओं ने यह बताया था कि बीसवीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में गर्मी जिस तेजी से बढ़ी है वैसी पिछले १००० वर्षों में नहीं देखी गई थी। हजारों साल पहले की जलवायु के बारे में अनुमान हम प्राय: प्रकृति में छूटे चिंहों की मदद से लगाते हैं क्योंकि उस जमाने में आधुनिक टेक्नॉलॉजी तो थी नहीं।
अतीत की जलवायु के बारे में सुराग देने के लिए पुरा-जलवायु वेत्ता कोरल (मूंगा चट्टानों), बर्फ के अंदरूनी हिस्से, पेड़ों में बनने वाली वार्षिक वलयों, झीलों और समुद्रों में जमी तलछट वगैरह का सहारा लेते हैं। इनसे प्राप्त परोक्ष आंकड़ों का उपयोग करके वैज्ञानिक अथक मेहनत करके अतीत की जलवायु की तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं। वर्तमान शोध पत्र की विशेषता यह है कि इसमें सात अलग-अलग तरह की विधियों से विश्लेषण करने पर एक समान नतीजे प्राप्त हुए। अत: इनके सच्चाई के करीब होने की ज्यादा संभावना है।
हेनले और न्यूकोम ने इस विश्ले-षण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण ज्वालामुखी के विस्फोट से निकलने वाली धूल आदि थे । सूर्य से आने वाली गर्मी से इनका कोई सम्बंध नहीं था । अर्थात मानवीय गतिविधियों के जोर पकड़ने से पहले ज्वालामुखी ही जलवायु के प्रमुख नियंत्रक थे । वे यह भी अंदाजा लगा पाए कि पिछले २००० वर्षों में गर्मी और ठंड की रफ्तार क्या रही है । उनका निष्कर्ष है कि धरती के गर्म होने की रफ्तार पहले कभी आज जैसी नहीं रही । इसका सीधा-सा मतलब है कि वर्तमान तपन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है।
प्लास्टिक का प्रोटीन विकल्प
लगभग एक सदी पहले आविष्कृत प्लास्टिक अत्यंत उपयोगी पदार्थ साबित हुआ है। वजन में हल्का होने के बावजूद भी यह अत्यधिक लचीला और सख्त हो सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह लगभग अनश्वर है । और यही अनश्वरता इसकी समस्या बन गई है ।
हर वर्ष दुनिया में ३८ करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है । इसमें से अधिक से अधिक १० प्रतिशत का रीसाय-क्लिंग होता है । बाकी कचरे के रूप में जमा होता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक हम ६.३ अरब टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न कर चुके हैं। आज के रुझान को देखते हुए लगता है कि वर्ष २०५० तक पर्यावरण में १२ अरब टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होगा ।
एक ओर तो प्लास्टिक का उपयोग कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर प्लास्टिक रीयाक्लिंग को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। इसी बीच नए किस्म का प्लास्टिक बनाने पर भी अनुसंधान चल रहा है जो लचीला व सख्त तो हो लेकिन प्रकृति में इसका विघटन हो सके ।
इस संदर्भ में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ग्रेग कियाओ का प्रयास है कि अमीनो अम्लों के पोलीमर बनाए जाएं जिनमें प्लास्टिक की खूबियां हों । जीव-जंतु, पेड़-पौधे अमीनो अम्लों को जोड़-जोड़कर पेप्टाइड और प्रोटीन तो बनाते ही हैं। और प्रकृति में ऐसे कई एंजाइम मौजूद हैं जो इन प्रोटीन अणुओं को तोड़ भी सकते हैं। कियाओ के मुताबिक प्रोटीन प्लास्टिक का सही विकल्प हो सकता है।
उनकी प्रयोगशाला में ऐसे प्रोटीन बनाए जा चुके हैं जो काफी लचीले व सख्त हैं, जिनके रेशे बनाए जा सकते हैं, चादरें बनाई जा सकती हैं। ये वाटरप्रूफ हैं और अम्ल वगैरह का सामना कर सकते हैं।
जहां प्रकृति में प्रोटीन नुमा पोलीमर बनाने का काम एंजाइमों की उपस्थिति में होता है वहीं कियाओ की टीम इसी काम को रासायनिक विधि से करने में लगी हुई है। यदि वे सही किस्म के अमीनो अम्ल पोलीमर (यानी पेप्टाइड) बनाने में सफल रहे तो यह एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। मगर इसमें एक दिक्कत आएगी। प्लास्टिक उत्पादन के लिए कच्च माल तो पेट्रोलियम व अन्य जीवाश्म इंर्धनों से प्राप्त् हो जाता है। मगर प्रोटीन-प्लास्टिक का कच्च माल कहां से आएगा ? यह संभवत: पेड़-पौधों से प्राप्त होगा। पहले ही हम फसलों का इस्तेमाल जैव-इंर्धन बनाने में कर रहे हैं। यदि प्लास्टिक भी उन्हीं से बनना है तो खाद्यान्न की कीमतों पर भारी असर पड़ेगा।
पक्षी एवरेस्ट की ऊंचाई पर उड़ सकते हैं
वर्ष १९५३ में, एक पर्वतारोही ने माउंट एवरेस्ट के शिखर पर सिर पर पट्टों वाले हंस (करेयी हंस, एंसर इंडिकस) को उड़ान भरते देखा था । लगभग ९ किलोमीटर की ऊंचाई पर किसी पक्षी का उड़ना शारीरिक क्रियाओं की दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है। यह किसी भी पक्षी के उड़ने की अधिकतम ज्ञात ऊंचाई से भी २ कि.मी. अधिक था। इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं ने १९ हंसों को पाला ताकि इतनी ऊंचाई पर उनकी उड़ान के रहस्य का पता लगाया जा सके ।
शोधकर्ताओं की टीम ने एक बड़ी हवाई सुरंग बनाई और युवा करेयी हंसों को बैकपैक और मास्क के साथ उसमें उड़ने के लिए प्रशिक्षित किया । विभिन्न प्रकार के सेंसर की मदद से उन्होंने हंसों की ह्मदय गति, रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा, तापमान और चयापचय दर को दर्ज करके प्रति घंटे उनकी कैलोरी खपत का पता लगाया। शोधकर्ताओं ने मास्क में ऑक्सीजन की सांद्रता में बदलाव करके निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई जैसी स्थितियां निर्मित की ।
यह तो पहले से पता था कि स्तन-धारियों की तुलना में पक्षियों के पास पहले से ही निरंतर शारीरिक गतिविधि के लिए बेहतर ह्मदय और फेफड़े हैं। गौरतलब है कि करेयी हंस में तो फेफड़े और भी बड़े व पतले होते हैं जो उन्हें अन्य पक्षियों की तुलना में अधिक गहरी सांस लेने में मदद करते हैं और उनके ह्मदय भी अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिसकी मदद से वे मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन पहुंचा पाते हैं।
हवाई सुरंग में किए गए प्रयोग से पता चला कि जब ऑक्सीजन की सांद्रता माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर ७ प्रतिशत के बराबर थी (जो समुद्र सतह पर २१ प्रतिशत होती है), तब हंस की चयापचय दर में गिरावट तो हुई लेकिन उसके बावजूद ह्मदय की धड़कन और पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति में कोई कमी नहीं आई । शोधकर्ताओं ने ई-लाइफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि किसी तरह यह पक्षी अपने खून को ठंडा करने में कामयाब रहे ताकि वे अधिक ऑक्सीजन ले सकें । गौरतलब है कि गैसों की घुलनशीलता तापमान कम होने पर बढ़ती है। खून की यह ठंडक बहुत विरल हवा की भरपाई करने में मदद करती है।
हालांकि पक्षी अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे, लेकिन बैकपैक्स का बोझा लादे कृत्रिम अधिक ऊंचाई की परिस्थितियों में कुछ ही मिनटों के लिए हवा में बने रहे । इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उपरोक्त अनुकूलन की बदौलत ही वे ८ घंटे की उड़ान भरकर माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने में सफल हो जाते हैं। या क्या यही अनुकूलन उन्हें मध्य और दक्षिण एशिया के बीच ४००० किलोमीटर के प्रवास को पूरा करने की क्षमता देते हैं। और ये करतब वे बिना किसी प्रशिक्षण के कर लेते हैं। लेकिन प्रयोग में बिताए गए कुछ मिनटों से इतना तो पता चलता ही है कि ये हंस वास्तव में माउंट एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से उड़ सकते हैं।
समुद्र में २०५० तक मछलियों से ज्यादा होगी प्लास्टिक
समुद्र में लगातार बढ़ रहे प्लास्टिक कचरे से समुद्रीय जलीय जीवन के साथ पर्यावरण पर भी खतरा बढ़ रहा है ।
आइआइटी बॉम्बे के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर रंजीत विष्णुराधन और विभाग प्रमुख टीआई एल्डो की रिसर्च ने चौंकाने वाले तथ्य उजागर किए हैं । शोध के मुताबिक यदि इसी स्तर प्लास्टिक का इस्तेमाल होता रहा तो २०५० तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता दिखाई देगा । प्रो. विष्णुराधन के अनुसार दूसरे विश्व युद्ध के बाद १९५० से दुनिया में प्लास्टिक का उपयोग तेजी से बढ़ा ।
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