सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

जनजीवन
बेढंगा विकास बनाम सुव्यवस्थित विनाश
पवन नागर
खूब झमाझम बाढ़ और उसी अनुपात का सूखा हमारे देश में आम बात है, लेकिन क्या इन दोनों संकटों से निजात पाई जा सकती है ? क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है जिससे पानी की इन दोनों अवस्थाओं से पार पाया जा सके  ?
ताजा खबर यह है कि गर्मी में जहाँ आधा देश पानी की समस्या से जूझ रहा था, वहीं अब देश के   अधिकतर राज्य बाढ़ की समस्या से दो-दो हाथ कर रहे हैं। इंसानों, फसलों, जानवरों, सड़कों, मकानों, पुल-पुलियों आदि के नुकसान की वास्तविक गणना करना नामुमकिन जैसा ही है, क्योंकि प्रशासन के पास जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले कुशल कार्यबल की संख्या बहुत ही कम है। हर साल अधिकतर राज्यों में बाढ़ आती है और हर बार काफी नुकसान करके चली जाती है। फिर भी हम विकास की अंधी दौड़ में बारिश जाने के बाद भूल जाते हैं और फिर तेजी से दौड़ने लगते हैं। इसी दौड़ के चलते हम अगले आठ महीनों में पर्यावरण को इतना नुकसान पहुँचा देते हैं कि वह खुद हमारे ऊपर संकट की तरह टूटने लगता है।
वैसे तो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने को लेकर कड़े नियम और कानून बने हुए हैं, परन्तु बड़े-बड़े उद्योगपति घराने पैसों की दम पर इन नियमों को धता बताते रहते हैं और मुआवजे और जुर्माना देकर मामले को रफा-दफा कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि बाढ़ पहली बार आई है। पिछले साल केरल में बाढ़ आई थी, पर उससे भी हमने कुछ नहीं सीखा। बिहार, असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में तो लगभग हर साल ही बाढ़ आती है। 
पिछले १५ साल के आंकड़े भी यही बयां कर रहे हैं कि लगभग हर दूसरे-तीसरे साल किसी-न-किसी राज्य या शहर में भारी बारिश और बाढ़ के कारण त्रासदी नित नए रिकॉर्ड बना-बनाकर खुद ही अगले साल अपना ही रिकार्ड तोड़ देती है। इसका ताजा उदाहरण भारत की व्याव-सायिक राजधानी मुंबई का है। जरा सोचिए, जब देश के सबसे अमीर और विकसित शहर में बारिश के पानी से निपटने की व्यवस्था नहीं है तो शेष भारत के गाँवों और शहरों की कल्पना करने की जरूरत ही नहीं । 
यह एक बहुत बड़ा प्रश्न तो है ही, साथ में आधुनिकता को ठेंगा दिखाने की प्रकृति की अपनी कला है जिसे हम समझकर भी अनजान बने हुए हैं। इसका समाधान क्या है? मुआवजा इस समस्या का हल नहीं है। मुआवजे से जीवन-यापन नहीं होगा और न ही जाने वाला वापस आएगा।
भारत में बाढ़ और पानी की कमी, दोनों समस्याओं को हल करने का सबसे आसान तरीका पुराने, परंपरागत तरीकों को अपनाकर ही मिलेगा । यदि हर खेत में तालाब होंगे तो बाढ़ का पानी या ज्यादा बारिश का पानी पहले इन तालाबों में संग्रहित होगा। हम तालाबों को ५० फीट गहरा भी बना सकते हैं। जितना गहरा तालाब होगा उतना ही ज्यादा पानी संचित होगा और यह पानी रबी की फसल में भी काम आएगा और भूजल स्तर भी बढ़ाएगा। यदि सरकार चाहे तो किसानों को साथ लेकर इस बात के लिए तैयार कर सकती है कि जिसके पास जितनी जमीन है उसके दसवें भाग में तालाब बनाना है । 
यदि किसी के पास ५ एकड़ जमीन है तो उसे सिर्फ ०.५ एकड़ में ऐसी जगह तालाब बनाना है जहां खेत का ढाल हो या जहाँ पानी एकत्रित हो सकता हो। इस प्रकार तालाब में बारिश और बाढ़  के पानी को संचित करके बाढ़ और पानी की कमी के कारण हो रही बहुत सारी समस्याओं से निजात पा सकते हैं।
जब ज्यादा बारिश होती है और ऊपर से बाँधों के दरवाजे भी खुल जाते हैं तब यह समस्या आती है कि अब इतना पानी जाए तो जाए कहाँ ? ऊपर से हमने जंगलों को मिटाकर कांक्रीट के नए जंगल बना दिए हैं जिसमें पानी के जमीन में जाने के सारे रास्ते बंद हैं। शहरों में अब जमीन बची ही नहीं और पानी बहकर मैदानी इलाकों में एकत्रित होता है और इसी प्रक्रिया में जितना भूजल स्तर बढ़ना होता है उतना ही बढ़ता है, बाकी पानी बर्बाद हो जाता है। इसका जीता-जागता उदाहरण चेन्नई शहर है जिसमें भूजल २००० फीट की गहराई पर भी उपलब्ध नहीं है। यदि हमें इससे सीख लेना है और भविष्य के खतरों से बचना है तो सरकार को तुरंत सीमेंट की सड़कों पर पाबन्दी लगानी होगी ।
मैदानी इलाकों और हर खेत में तालाब बना दिए जाएँ तो पहले फायदे के तौर पर बाढ़ की समस्या से तो निजात मिलेगी ही, साथ ही दूसरे फायदे के रूप में किसानों को रबी में फसल के लिए पानी मुफ्त में मिलेगा। तीसरा फायदा यह होगा कि भूजल के गिरते स्तर की समस्या से भी बेफिक्र   हो पाएँगे। चौथा फायदा यह होगा कि किसानों की बिजली पर निर्भरता कम होगी। पाँचवे फायदे के तौर पर गर्मी के मौसम में पानी के हाहाकार से मुक्ति मिलेगी ।
सरकार चाहे तो पायलेट प्रोजेक्ट के तौर पर पहले प्रयोग के  रूप में किसी भी अधिक बाढ़ प्रभावित जिले में यह प्रयोग कर सकती है। दूसरा प्रयोग अधिक सूखे से प्रभावित क्षेत्र में करना है। तीसरा प्रयोग अधिक-से-अधिक भूजल का दोहन करने वाले क्षेत्र में करना है जहाँ ट्यूबवेल से अधिक सिंचाई होती है। चौथा प्रयोग वहाँ करना है जहाँ नहर से सिंचाई होती है, क्योंकि बाँधों से अतिरिक्त पानी आने के कारण यहीं ज्यादा पानी बर्बाद होता है। पाँचवांं प्रयोग उस क्षेत्र में करना है जहाँ के किसान नदी से सिंचाई पर निर्भर हैं। 
छठवा और अंतिम प्रयोग उस क्षेत्र में करना है जहाँ धान की खेती की जाती है क्योंकि इस क्षेत्र में पहले से छोटे-छोटे गटे (छोटे-छोटे खेत) बनाकर पानी रोका जाता है और अधिक पानी गिरने पर किसानों द्वारा निकाला जाता है जो कि पूरा बर्बाद हो जाता है। इस क्षेत्र में पहले से पानी भरा होने के कारण जमीन में बैठता नहीं है और इसीलिए भूजल स्तर नीचे जा रहा है।
इस योजना के नियम आसान होना चाहिए । पहला नियम यह हो कि वह व्यक्ति जमीन का मालिक हो और दूसरा यह कि वह तालाब बनवाना चाहता हो । इसके आलावा और कोई जटिल नियम नहीं होने चाहिए जैसे कि बाकी योजनाओं में होते हैं। यह योजना पूरी तरह से डिजिटल होनी चाहिए। एक विशेष वेबसाइट बनाई जाए और उसमें 'लॉग इन` की सुविधा हर किसान को दी जाए। हर किसान की एक अलग आईडी बनाई जाए। 
इसी आईडी में योजना के क्रियान्वयन से संबंधित सभी जानकारी अपडेट होती रहेगी। इसमें सरकार की लैंड रिकॉर्ड की वेबसाइट काफी मदद कर सकती है। जो भी कार्य तालाब बनाने में किए जा रहे हैं उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग हो और तुरंत साझा करके किसान की आईडी पर भी भेजे जाएँ । यह काम आप किसान से ही करा सकते हैं क्योंकि आज अधिकांश किसानों के पास स्मार्ट फोन है, बस जरूरत है तो इन आधुनिक उपकरणों का सदुपयोग करने की ।
तालाब से पानी के मामले में आत्मनिर्भरता का सबसे अच्छा उदाहरण मध्यप्रदेश के देवास जिले में टोंकखुर्द तहसील है जहाँ बलराम तालाब योजना के अंतर्गत सबसे ज्यादा तालाब बने हैं और जिसके चलते यहाँ के किसान व रहवासी अब पानी की समस्या पर विजय प्राप्त कर चुके हैं ।  
हर साल बाढ़ में असीमित पानी बर्बाद हो जाता है और फिर हम गर्मी के दिनों में इसी पानी के लिए तरसते हैं। समस्या का समाधान इसी बर्बाद हो रहे पानी में छुपा हुआ है। इसी पानी का हम सब को मिलकर सही प्रबंधन करना है। यह देश की सबसे बड़ी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग योजना साबित हो सकती है।  

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