विशेष लेख
प्रदूषण का पौधों और जन्तुआें पर प्रभाव
डॉ. दीपक कोहली
सम्पूर्ण विश्व आज प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त है या हम कह सकते हैं कि संसार का कोई भी हिस्सा पूर्णतया प्रदूषण रहित नहीं है। सरल शब्दों में पर्यावरण प्रदूषण को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- `मानव गतिविधियों के फलस्वरूप पर्यावरण में अवांछित पदार्थों का एकत्रित होना, प्रदूषण कहलाता है। जो पदार्थ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं उन्हें प्रदूषक कहते हैं।`
प्रदूषण का प्रभाव सभी जीव-जन्तुओं एवं पर्यावरण पर पड़ता है। अगर पर्यावरण जीवन है तो प्रदूषण मृत्यु है। प्रदूषण को चार भागों में बांटा जा सकता है-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण। इन सभी प्रकार के प्रदूषण का प्रभाव मानव, पौधों और जन्तुओं पर पड़ता है ।
वायु में जब जहरीली गैसें तथा अवांछनीय तत्व इतनी अधिक मात्रा में मिल जाते हैं कि मनुष्य, जीव-जंतु और वनस्पतियां विपरीत रूप से प्रभावित होने लगती हैं तो यह स्थिति वायु-प्रदूषण कहलाती है। वायु प्रदूषण के प्रमुख कारकों में प्रथम है, ईंधनों का जलना । जिनके दहन से कार्बन मोनो ऑक्साइड, कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड व अनेक हाइड्रोकार्बन जैसे बैंजीपाइरिन आदि उत्पन्न होते हैं। परिवहन माध्यमों द्वारा उत्सर्जित धुआँ, कार्बन कणों, सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्सा-इड, लैड कणों आदि के कारण भी वायु निरन्तर प्रदूषित हो रही है। इस प्रकार का प्रदूषण महानगरों में अधिक देखने को मिलता है। जहाँ अनगिनत छोटे-बड़े कारखाने अपनी चिमनियों द्वारा वायुमंडल में धुएँ के बादल बनाते रहते हैंं।
इसके अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा प्रक्रम एवं तापीय बिजली घरों द्वारा भी उत्सर्जित पदार्थ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण बनते हैं। आज अत्यन्त प्रचलित शब्द यथा, 'ग्रीन हाउस प्रभाव', 'अम्लीय वर्षा' एवं 'ओजोन परत छिद्र' वायु प्रदूषण के प्रभाव से ही जनित हैं। वायु प्रदूषक विषैली गैसों से साँस की बीमारियाँ-ब्राँकाइटिस, फेफड़ों का कैन्सर हो सकता है। श्वांस रोगों के अतिरिक्त हृदय रोग, सिर दर्द एवं आँखों के सामने अंधेरा छाना आदि रोग भी हो जाते हैं । सल्फर डाई ऑक्साइड से एम्फॉयसीमा नामक रोग होता है, यह एक प्राणलेवा बीमारी है। वाहनों के धुएँ में उपस्थित सीसा कण शरीर में पहुँचकर यकृत, आहार नली, बच्चें में मस्तिष्क विकार, हड्डियों का गलना जैसे रोगों का कारण बनते हैंं। बहु केन्द्रित हाइड्रोकार्बन भी कैंसर का कारण बनते हैंं।
वायु प्रदूषण से पौधे भी अछूते नहीं हैं । पेड़-पौधों पर भी वायु प्रदूषण का प्रभाव पड़ता है। वायु प्रदूषण के कारण पौधों को प्रकाश कम मिलता है जिससे उनकी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जो पौधे घूम कोहरे के क्षेत्र में पनपते हैं, उनका विकास कम हो जाता है। उनकी पत्तियां विकृत एवं सफेद होकर गिरने लगती हैं। इसी प्रकार सौंदर्यवर्द्धक फूल एवं लताएँ वायु प्रदूषण से प्रभावित होती हैं। जहरीली गैसों के कारण फूल बदरंग होकर मुरझा जाते हैं एवं लताएँ सूख जाती हैं। वायु प्रदूषण के कारण पत्तियों में विद्यमान स्टोमेटा को धूम्रकण अवरूद्ध कर देते हैं, फलत: पौधे की जीवन संबंधी प्रक्रियाएँ रूक जाती हैं और पौधे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।
कुछ पौधे इस प्रकार के होते हैं जिन्हें 'प्रदूषक सूचक' पौधे कहा जाता है। लाइकेन एवं मॉस प्रजाति के पादप प्रदूषण से अत्यंत संवेदनशील होते हैं। लाइकेन सल्फर डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से प्रभावित होते हैं और इनकी वृद्धि कम हो जाती है। ये वायु प्रदूषण के अच्छे सूचक होते हैंं अत्यधिक वायु प्रदूषित क्षेत्रों हमे लाइकेन विलुप्त हो जाते हैं। लाइकेन केसमान कुछ ब्रायोफाइट्स पौधे जैसे मॉस भी वायु प्रदूषण के अच्छे सूचक पौधे माने जाते हैं । यह पौधे प्रदूषण के कणों को अधिक जल्दी और ज्यादा मात्रा में अवशोषित कर लेते हैं । परिणामत: वह एक अच्छे जीव सूचक का कार्य करते हैं।
आज जल प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है और व्यापक रूप से जीव-जंतुओं को प्रभावित कर रहा है। घरेलू तथा औघोगिक दोनों ही कारणों से लगातार जल प्रदूषित होता जा रहा है। घरों में साबुन, सोडा, ब्लीचिंग पाउडर एवं डिटर्जेंट का अत्यधिक प्रयोग या उद्योगों में धात्विक, अम्ल, क्षार या लवण के प्रयोग से जल प्रदूषित हो रहा है। कृषि में प्रयुक्त कीटनाशकों एवं रासायनिक उर्वरकों ने भी जल प्रदूषण की समस्या को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। जल प्रदूषण के कारण मानव तो बुरी तरह प्रभावित होते ही हैं, जलीय पौधों एवं जलीय जंतु तथा पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं।
विश्व भर में ८० प्रतिशत से भी अधिक रोगों का कारण प्रदूषित जल ही है। प्रदूषित जल से हैजा, पेचिश, टायफायड, पीलिया, पेट में कीड़े और यहाँ तक कि मलेरिया, जो कि गंदे हरे पानी में पाये जाने वाले मच्छरों के कारण होता है। आजकल जल प्रदूषण के कारण भारत की अधिकांश नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो चुकी हैं। नदियों में कारखानों द्वारा छोड़े गये प्रदूषित जल से पानी विषाक्त हो जाता है तथा बड़े पैमाने पर जलीय जीव-जंतु जैसे-मछलियां, कछुए आदि जंतु मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
महासागरों एवं समुद्रों में तैलीय पदार्थों एवं हाइड्रोकार्बन के सागरीय सतह पर फैल जाने की वजह से जलीय जीवों को ऑक्सीजन नहीं मिल पाती और वे मर जाते हैं। हालात इतने चिंताजनक हो चुके हैं कि कई जलीय जीवों की प्रजातियां समाप्ति के कगार पर हैं।
प्रदूषित जल, जलीय जीवों की प्रजनन शक्ति पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। भारी धातुुओं जैसे-पारा, सीसा, तांबा, जस्ता, कैडमियम, क्रोमियम आदि द्वारा प्रभावित मछलियों को खाने से मनुष्य के मस्तिष्क एवं स्नायु तंत्र को क्षति पहुंचती है। घरेलू वाहित मल आदि से फास्फेट्स एवं नाइट्रेट्स की मात्रा जल में अधिक हो जाती है। जिसके कारण जल में नील हरित शैवलों की संख्या बढ़ जाती है व जल में ऑक्सीजन की मात्रा में कमी हो जाती है। इस कारण जलीय जीव-जंतु मर जाते हैं।
जीव-जंतुओं के अतिरिक्त जलीय पौधे भी जल प्रदूषण से प्रभावित होते हैं। प्रदूषित जल में काई की अधिकता से सूर्य का प्रकाश गहराई तक नहीं पहुँच पाता, जिससे जलीय पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया और उनकी वृद्धि प्रभावित होती है। जल प्रदूषण के कारण जल में फास्फेट एवं नाइट्रेट युक्त कार्बनिक यौगिकों के मिलने से जल में पोषक तत्वों की अप्रत्याशित वृद्धि होती है। इसे 'यूट्रोफिकेशन' कहा जाता है। यूट्रोफिकेशन के चलते जलकुंभी या आइकार्निया पौधों से जल की सतह पट जाती है। जिससे धीरे-धीरे स्वैम्प, मार्श गैसों आदि का निर्माण होता है और अन्तत: जलस्त्रोत में उपस्थित पानी सड़ने लगता है।
विभिन्न प्रकार के रासाय-निक प्रदूषणों तथा अन्य अपशिष्ट पदार्थों का विलय प्राय: भूमि में होता रहता है। जिसके कारण भूमि प्रदूषित हो जाती है। भूमि प्रदूषण के कारकों में जीवानाशक रसायन, कृत्रिम उर्वरक, नगरीय अपशिष्ट पदार्थ, जहरीले अकार्बनिक पदार्थ व कार्बनिक पदार्थ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। भूमि प्रदूषण का प्रभाव भी पौधों एवं जंतुओं पर पड़ता है।
भूमि प्रदूषण फसलों और पौधों की पैदावार को कम कर देता है। यह मिट्टी और प्राकृतिक पोषक तत्वों के नुकसान का कारण बनता है, जिससे फसल उत्पादन मे कमी आती है। भूमि प्रदूषण से मिट्टी के भौतिक और रासायनिक गुण प्रभिााव्त हो रहे हैं। आम तौर पर ठोस अपशिष्ट पदार्थों को मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है। इससे मिट्टी की उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और पेड़-पौधों की वृद्धि रूक जाती है। कभी-कभी लोग गटर के पानी से खेतों की सिंचाई करते हैं। इससे दिन-प्रतिदिन मिट्टी में मौजूद छिद्रों की संख्या कम हो जाती है। बाद में एक स्थिति ऐसी आती है कि भूमि केप्राकृतिक मल-जल उपचार प्रणाली पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। जब भूमि ऐसी स्थिति में पहुँचती है तो उसे बीमार भूमि कहा जाता है। ऐसी भूमि पर होने वाली कृषि पर विपरीत असर पड़ता है ।
भूमि की एक ग्राम मिट्टी में लगभग १०० मिलियन बैक्टीरिया, अनेक प्रकार के कवक, शैवाल, कीट व केंचुएँ इत्यादि होते हैं। भूमि प्रदूषकों जैसे रसायनों, कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों हका जीवन-चक्र प्रभावित होता है। जिसका असर भूमि की उर्वरा क्षमता पर पड़ता है तथा साथ ही भूमि का पारितंत्र भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है।
भूमि में कूड़ा करकट एवं गंदगी की अधिकता हो जाने से उनमें कीड़े-मकौड़े के पनपने की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। परिणामस्वरूप मच्छर, मक्खी, चूहों, बिच्छुओं की संख्या बढ़ती है, जो पेचिश, हैजा, आंत्रशेध, टाइफा-इड, यकृत रोग, पीलिया आदि के कारण बनते हैं ।
रूस, चीन और भारत दुनिया के ऐसे देशों में से हैं जहाँ जहरीली जमीन का प्रदूषण तेजी से फैल रहा है। यूक्रेन में चेरनोबिल को दुनिया सबसे बड़े परमाणु दुर्घटना के लिए याद किया जाता है। परमाणु ऊर्जा दुर्घटनाओं केबाद प्रदूषक भूमि में प्रवेश करते हैंं जिससे लाखों एकड़ कृषि भूमि क्षतिग्रस्त होती है। दक्षिण अफ्रीकी देश जाम्बिया में कबाई की जमीन, १९८७ में भारी धातुओं के प्रदूषण से बुरी तरह, प्रभावित हुई थी।
पेरू में ला ओराया स्थान पर सीसा, तांबा और जस्ता के अत्यधिक खनन से मिट्टी विरीत रूप से प्रभावित हुई थी। मिट्टी में आर्सेनिक जैसे विषाक्त रसायनों के अत्यधिक होने, कोयला खनन और अन्य प्रदूषकों के कारण चीन की लिनफेन सिटी की भूमि अत्यधिक प्रदूषित हो गई। भारत में गुजरात के वापी शहर में पेट्रोकेमि-कल्स, कीटनाशकों जैसे रसायनों के अत्यधिक उत्पादन के कारण वहाँ की जमीन विषाक्त हो गई है।
भूमि प्रदूषण के कारणों में काँच, प्लास्टिक, पालीथीन बैग्स, टिन आदि भी आते हैं। एक ही स्थान पर एकत्रित होने के कारण सूक्ष्म जीवों द्वारा इनका पूर्ण विघटन संभव नहीं हो पाता है, फलस्वरूप भूमि प्रदूषित होती है। पॉलीथीन बैग्स पर यद्यपि सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है, फिर भी इनका इस्तेमाल हो रहा है। इन्हीं पॉलीथीन बैग्स के कारण कई जीवों जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि की जान भी चली जाती है।
वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण की तरह ध्वनि प्रदूषण भी मानव, जीव-जंतुओं एवं पादपों के लिए हानिकारक होता है। पर्यावरणीय स्वास्थ्य मानक के अनुसार ध्वनि प्रदूषण या शोर एक ऐसी अवांछनीय ध्वनि है, जो कि व्यक्ति, समाज के लोगों एवं जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य और रहन-सहन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। ध्वनि की तीव्रता मापने के लिए डेसीबिल इकाई निर्धारित की गयी है। सामान्य वार्तालाप में ध्वनि का स्तर ५५ से ६० डेसीबिल होता है। राकेट इंजन में ध्वनि का स्तर १८० से १९५ डेसीबिल तक पहुँच जाता है।
विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह ज्ञात हुआ है कि जब ध्वनि की तीव्रता ९० डेसीबिल से अधिक हो जाती है तो लोगों की श्रवण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। उच्च् शोर के कारण लोगों में उच्च् रक्तचाप, उत्तेजना, हृदय रोग, आँख की पुतलियों में खिंचाव, मांसपेशियों में खिंचाव, पांचन तंत्र में अव्यवस्था आदि हो जाते हैं। विस्फोटों तथा सोनिक बूम से अचानक आने वाली ध्वनि के कारण गर्भवती महिलाओं में गर्भपात भी हो सकता है। दीर्घ अवधि तक ध्वनि प्रदूषण के कारण लोगों में न्यूरोटिक मेंटल डिसआर्डर हो जाता है। स्नायुओं मेंं उत्तेजना हो जाती है। अन्य जीव-जंतुओं पर ध्वनि का असर मानव जाति से अधिक होता है। चूँकि इंसानों के पास अन्य विकसित इंद्रियां हैं, उसे केवल सुनने पर निर्भर नहीं रहना पड़ता, परंतु जानवर अपने जीवन-यापन के लिए काफी हद तक अपनी सुनने की शक्ति पर ही निर्भर करते हैं।
जंगलों में रहने वाले जंतु भी ध्वनि प्रदूषण से अछूते नहीं हैं। इन जानवरों की सुनने की शक्ति में कमी के कारण ये आसानी से शिकार बन जाते हैं। जो स्वाभाविक रूप से पूरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त जो वन्य जीव प्रजनन के आमंत्रण के लिए ध्वनि पर निर्भर करते हैं, उन्हें भी खासी दिक्कत आती है। क्योंकि मानव निर्मित ध्वनियों यानि शोर की वजह से उनकी ध्वनि दूसरा जीव सुन नहीं पाता। इस तरह ध्वनि प्रदूषण वन्य जीवों की जनसंख्या में गिरावट का कारण भी बनता है।
ध्वनि प्रदूषण वाले क्षेत्र जैसे सड़कों के किनारे, औद्योगिक क्षेत्रों और राजमार्गों के आस-पास क्षेत्रों में ४-६ पंक्तियों में वृक्षारोपण कर ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है। घने पेड़ ध्वनि को फिल्टर करते हैं और इसे लोगों तक पहुँचने से रोकते हैं। अशोक एवं नीम के पेड़ ध्वनि प्रदूषण को कम करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अवैध खनन, विभिन्न स्वचालित वाहनों, कल-कारखानों, परमाणु परीक्षणों आदि के कारण आज पूरा पर्यावरण प्रदूषित हो गया है। इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ा है कि संपूर्ण विश्व बीमार है।
पर्यावरण की सुरक्षा आज की बड़ी समस्या है। इसे सुलझाना हम सबकी जिम्मेदारी है। इसे हमें प्राथमिकता प्रदान करनी चाहिए तथा प्रदूषण पर्यावरण की सुरक्षा में योगदान देना चाहिए । स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित पर्यावरण आज की आवश्यकता है। यदि पर्यावरण निरोग होगा तो हम मानव, जन्तु और पौधे भी निरोग रहेंगे।
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