सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

हमारा भूमण्डल

डरबन में धीमी रफ्तार से पहल
मार्टिन खोर

पिछले दिनों डरबन में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में काफी गहमा-गहमी रही । आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर भी चला । दो सप्तह के इस सम्मेलन में कई रूकावटें भी खड़ी हुई लेकिन अंतत: एक नई जलवायु नीति निर्माण की दिशा में पहला कदम भी रखा गया । कुल मिलाकर यह सम्मेलन भी पिछले जलवायु सम्मेलनों से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया ।
डरबन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का ११ दिसम्बर २०११ को समापन वर्ष २०१५ तक एक नई वैश्विक जलवायु नीति बनाने के संकल्प के साथ हुआ । इस नई नीति का उद्देश्य है सभी भागीदारों द्वारा आपसी समझैते हेतु अधिकतम प्रयासों का किया जाना । इसका अर्थ है देशों को या तो ग्रीन हाउस उत्सर्जन में अत्यधिक कमी करनी होगी या उनके उत्सर्जन की वृद्धि दर को कम करना होगा । यह संलेख (प्रोटोकॉल) एक अन्य कानूनी दस्तावेज या कानूनी शक्ति वाले परिणाम के रूप में सामने आएगा । एक नाटकीय घटनाक्रम में यूरोपियन संघ ने भारत और चीन पर दबाव डालकर यह प्रयास किया कि वे एक कानूनी बाध्यता वाले प्रपत्र (प्रोटोकॉल) पर हस्ताक्षर करें और संभावित नतीजों की सूची में से कानूनी निष्कर्ष या परिणाम जैसी शब्दावली को निरस्त कर दें । उनका मानना था कि यह अत्यन्त कमजोर विकल्प है ।
यूरोपियन यूनियन एवं अमेरिका का कहना था कि वे चाहते हैं कि मुख्य विकासशील देश उनके जैसे ही उत्सर्जन कम करने वाले बंधनों को मानें । यह उस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से अलग हटना है, जिसने अमीर देशों के लिए उत्सर्जन में बंधनकारी कमी की बाध्यता और विकासशील देशों द्वारा स्वैच्छिक तौर नर कमी किए जाने के मध्य भेद किया था । ११ दिसम्बर को भारत की पर्यावरण मंत्री श्रीमती जयंती नटराजन ने अपने भावावेश से भरे संबोधन में इस बात का बचाव किया कि भारत किसी भी कानूनी बाध्यकारी दस्तावेज के खिलाफ क्यों है और नई बातचीत समानता के आधार पर ही होना चाहिए । उन्होंने पूछा कि भारत ऐसे दस्तावेज का सहभागी होने के लिए आंख मींच कर हामी क्यों भर दे जबकि दस्तावेज की विषय वस्तु ही अभी तक ज्ञात नहीं है ?उनका कहना था हम जीवनशैली में परिवर्तन की नहीं कर रहे हैं बल्कि हम लाखों लाख किसानों की जीविका पर पड़ने वाले प्रभावों पर बात कर रहे हैं । मैं एक अरब २० करोड़ लोगों के अधिकारों को लेकर हस्ताक्षर क्यों कर दूं ? क्या यह समदृष्टि है ?
श्रीमती नटराजन का कहना कि वार्ता के दौर के प्रस्ताव में समदृष्टि या साझा लेकिन विभेदीकरण मूलक जिम्मेदारी जैसा शब्दों को शामिल ही नहीं किया गया जबकि सम्मेलन की एक शब्दावली के हिसाब से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में अमीर देशों को गरीब देशों से अधिक योगदान देना होगा (यह सिद्धांत उनकी उस ऐतिहासकि जवाबदारी पर आधारित है जिसके अनुसार अमीर देशों द्वारा वातावरण में ग्रीन हाउस गैसें एकत्रित हुई हैं) और इसी के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन हुआ है । यदि इस तरह का दस्तावेज विकसित किया जाता है जिसमें गरीब देशों को अपने उत्सर्जन में अमीर देशों जितनी ही कमी लानी होगी तो इसे समानता या समदृष्टि नहीं कहा जा सकता । यह साझा और विभेदी जिम्मेदारी से पलायन होगा । इतना ही नहीं यह सबसे बड़ी त्रासदी भी होगी ।
अनेक देश जिनमें चीन, फिलीपींस, पाकिस्तान और मिस्त्र भी शामिल हैं, ने भारत की बात का समर्थन किया । अंतत: कानूनी परिणाम शब्द को कानूनी शक्ति से परिणाम के रूप में बदलने पर सहमती बनी । इसी समय जलवायु परिवर्तन पर वर्तमान रूपरेखा में, जिसमें क्योटो प्रोटोकॉल एवं बाली रोड मेप को धीमे लागू करने के लिए कदम उठाने पर भी चर्चा हुई । क्योटो प्रोटोकॉल को मुख्यतया यूरोपियन देशों और उत्सर्जन कमी हेतु वर्ष २०१३ से प्रारंभ होने वाले दूसरी अवधि में शामिल होने की सहमति देने से बचाया जा सका ।
इसके बावजूद क्योटो प्रोटोकॉल काफी हद तक कमजोर हुआ है । जापान, रूस एवं कनाड़ा ने दूसरी अवधि में इसमें शामिल होने से स्वयं को अलग कर लिया जबकि ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड का कहना था वे इसमें शामिल भी हो सकते हैं और नहीं भी । और जबकि क्योटो प्रोटोकॉल में केवल यूरोपीय देश ही बचे हैं ऐसे में यह प्रोटोकॉल वर्ष २०१७ या २०२० तक जिंदा तो रह सकता है लेकिन इस पर अभी से ही नए समझौते की परछाईयां पड़ने लग गई है । इस नए समझौते में अंकित शब्दावली विकसित देशों के पूर्णतया पक्ष में है और समदृष्टि का सिद्धांत इसमें से जानबूझकर अनुपस्थित है और इसमें यह सिद्धांत थोपा जा रहा है कि सभी देश इसमें भागीदारी करें और इसमें उत्सर्जन मे ंपूर्ण कमी को लेकर अत्यधिक महत्वाकांक्षा दिखाई गई है । डरबन सम्मेलन में ग्रीन जलवायु कोष की बातों को लेकर अंतिम सहमति बनी है जो कि अपने बोर्ड एवं सचिवालय के माध्यम से वर्ष २०१२ के प्रारंभ में परिचालन प्रारंभ कर देगा । डरबन सम्मेलन में अनेक बार ऐसा लगा कि वार्ता पटरी से उतर रही है क्योंकि वहां अनेक मसलों पर असहमति साफ नजर आ रही थी ।
इतना ही नहीं दो हफ्तों के सत्र के बावजूद अंतिम सत्र को एक दिन के लिए बढ़ाया गया और दक्षिण अफ्रीका जिस तरह से बिना परिवर्तन के दस्तावेजों को पारित करवाने का प्रयास कर रहा था उसे लेकर सबके बीच नाराजगी भी थी । अंत में यही कहा जा सकता है कि डरबन को समानता आधारित जलवायु परिवर्तन रूपरेखा से अलग हटने और एक नई संधि जिसकी विषय वस्तुत अभी ज्ञात नहीं है, की ओर कदम बढ़ाने के लिए याद रखा जाएगा ।

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