रविवार, 19 फ़रवरी 2012

जल प्रदूषण

अमृत का जहर हो जाना
भरतलाल सेठ

उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में बहने वाली अमि (अमृत) नदी में उद्योगों और नजदीकी शहरों ने इतना जहर प्रवाहित कर दिया है कि आसपास बसे लोगों का सांस लेना तक दूभर हो गया है । देश में एक के बाद एक नदियां अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं । इसका परिणाम कितना विनाशक होगा इसका अंदाजा हमारा नियामक तंत्र क्यों नहीं लगा पा रहा है ?
इन्द्रपाल सिंह भावुक होकर बचपन में अमि नदी से मीठा पानी पीने की याद करते हैं । गांव के बुजुर्ग बताते है नदी को अपना यह नाम आम और अमृत से मिला है । उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के अदिलापार गांव के प्रधान पाल सिंह का कहना है कि १३६ कि.मी. लंबी यह नदी अब मुसीबत बन गई है । गोरखपुर औघोगिक विकास क्षेत्र (गिडा) से निकलने वाले अनउपचारित गंदे पाने के एक नाले ने इस नदी को गंदे पानी की एक इकाई में बदलकर रख दिया है । नदी के निचले बहाव की ओर निवास कर रहे १०० से अधिक परिवारों के निवासी अक्सर सर्दी जुकाम, रहस्यमय बुखार, मितली आने वाले उच्च् रक्तचाप की शिकायत करते हैं । रात में गंदे पानी से उठने वाली बदबू से उनका सांस लेना तक दूभर हो गया है । निवासियों का कहना है कि सूर्यास्त के बाद प्रवाह का स्तर आधा मीटर तक बढ़ जाता है ।
नोएडा की राह पर गिडा की स्थापना १९८० के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह द्वारा की गई थी । यहां पर कुल १५८ इकाइंया हैं, जिनमें कागज मिल एवं कपड़ा निर्माण इकाइयां शामिल हैं । ये इकाइयां प्रतिदिन ४.५ करोड़ अनुपचारित गंदा पानी नालियों में छोड़ती हैं । गिडा का गठन इस प्रतिबद्धता के साथ हुआ था कि वह एक साझा प्रवाह उपचार करने वाला संयंत्र सन १९८९ तक लगाएगा । लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया है । इस हेतु वर्ष २००९ में एक समिति गठित भी की गई लेकिन उसकी अब तक केवलएक ही बैठक हुई है । जबकि अधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया है कि सुविधा पर काम चल रहा है ।
नजदीक के दो नगरों का अनुपचारित गंदा पानी भी इसी नदी में मिलता है । नगर के सीवर का गंदा पानी भी नदी की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है । गोरखपुर स्थित मदन मोहन इंजीनियरिंग कॉलेज के गोविन्द पांडे नदी की बिगड़ती सेहत के लिए उद्योग को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते है कि इन नगरों से ७० लाख लीटर गंदा पानी प्रतिदिन निकलता है और प्रदूषण का यह भार अमि के पानी इकट्टा होने वाले क्षेत्र पर ही पड़ता है।
अभियान का जन्म - गिडा के गठन के पूर्व नदी के ५५२ वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश मछुआरे एवं किसान अमि से लाभान्वित होते थे । धान इस इलाके की मुख्य फसल है और गेहूं एवं जौ भी यहां बोई जाती है । परन्तु प्रदूषण की वजह से उपज एक तिहाई रह गई है । बोई और रोेहू जैसी ताजे पानी की मछलियां अब नदी में दिखलाई ही नहीं देती । कई हजार मछुआरे या तो शहरी क्षेत्रां में दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं या शराब बेच रहे हैं।
क्षेत्रीय रहवासियों ने १९९० के दशक में पहली बार नदी में आ रहे परिवर्तनों को देखा । वर्ष १९९४ के विश्व पर्यावरण दिवस पर निचले क्षेत्र के एक गांव के प्रधान ने सभा का आयोजन किया और अमि को बचाने का अभियान प्रारंभ हो गया । श्री पांडे का कहना है मैने निवासियों से कहा कि गिडा नदी में अनुपचारित सीवेज डाला जा रहा है और वहां शोधन संयंत्र भी नहीं है । वर्ष १९९४ में ही उन्होंने गिडा के मुख्य कार्यकारी जो कि कॉलेज में उनके वरिष्ठ थे, से क्षेत्र में पर्यावरण प्रभाव आकलन करने और पर्यावरण प्रबंधन योजना बनाने को भी कहा । श्री पांडे का कहना है वे तैयार तो हो गए लेकिन धन की कमी की वजह से योजना कार्यान्वित नहीं हो पाई । अब तो इस बात को १५ वर्ष से अधिक बीत चुके है ।
श्री पांडे ने जनवरी २००९ की मकर संक्रांति को आंदोलन को तब नई दिशा दी जब उन्होनें इस दिन नदी में प्रतीक स्वरूप मुट्ठीभर फिटकरी, स्कंदक या जामन एवं ब्लीचिंग पाउडर प्रवाहित किया । कुछ समय पश्चात पूर्व छात्र नेता विश्व विजय सिंह ने आंदोलन की बागडोर संभाली और पूरे नदी क्षेत्र की पदयात्रा भी की । इसके पश्चात् तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को यहां की स्थिति से अवगत कराया गया । उन्होनें मुख्यमंत्री मायावती को पत्र लिखा और अप्रैल २०११ में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मामले की जांच का आदेश भी दिया ।
इस बीच उत्तरप्रदेश निवारण बोर्ड व नागरिकों के बीच हुए संघर्ष ने भी सुर्खियां बंटोरी । बोर्ड द्वारा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को प्रमाण पत्र दिए जाने से उत्तेजित नागरिकों ने नदी के पानी का सेम्पल लेने गए अधिकारियों का मुंह काला कर उन्हें गांव में घुमाया । जिला कलेक्टर की मध्यस्थता के बाद ही उन्हें छोड़ा गया । यू.पी. प्रदूषण बोर्ड का कहना है कि इकाइयों को बंद करना समस्या का कोई हल नहीं है । उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। लेकिन इकाइयां अभी भी कार्यरत हैं ।
अप्रैल २०११ में केन्द्रीय नियंत्रण बोर्ड की एक तीन सदस्यीय टीम को नदी एवं नाले के पानी की गुणवत्ता की निगरानी के लिए तैनात किया गया । प्रदूषण फैलाने वाले छ: उद्योगों का निरीक्षण भी किया गया ।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पानी का सर्वप्रथम परीक्षण गांव के पास एक ऐसे स्थान पर किया जहां कि पानी में गंदा रिसाव नहीं मिलता । रिपोर्ट के अनुसार यहां पानी सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता (ए श्रेणी) का था । इसके पश्चात ऐसे स्थान के पानी का नमूना लिया गया जहां पर गंदा पानी नदी में मिलता है वहां पर पानी गुणवत्ता (डी श्रेणी) ऐसी है, जो कि नहाने तक के लिए अनुपयुक्त है । नाले के और निचले हिस्से पर पानी ई श्रेणी का पाया गया । यह रिपोर्ट जून २०११ में पर्यावरण मंत्रालय को सौंप दी गई ।
बहरहाल नाले के पानी की गुणवत्ता प्रदूषण मापदण्डों के अन्तर्गत ही पाई गई । इसकी वजह यह है कि जब नमूने एकत्रित किए गए उस दौरान प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग परिचालन ही नहीं कर रहे थे । विजय सिंह का कहना है हमने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कहा था कि वे निरीक्षण के बारे में उद्योगों को न बताएं । जिस दौरान निरीक्षण हो रहा था, उस दौरान उद्योगों ने अपनी सुविधानुसार कुछ समय के लिए परिचालन रोक दिया । एक संयंत्र रखरखाव के लिए बंद था, एक विद्युत कनेक्शन के लिए और दो अन्य कच्च्े माल की अनुपलब्धता की वजह से बंद थे । इसके बावजूद बोर्ड को कुछ जगह पानी प्रदूषण स्तर से ज्यादा गंदा मिला । क्योंकि कागज मिल हाल ही में बंद हुई थी । इस पर बोर्ड ने उस इकाई को अपनी जमीन के अंदर डली १४०० मीटर की ड्रेनेज लाइन नष्ट करने को कहा है । लेकिन इकाई द्वारा अब तक निर्देशों का पालन नहीं किया गया है ।
बोर्ड ने गिडा को एक शोधन संयंत्र जिसमें उपचारित करने की यथोचित सुविधाएं हों, की अनुशंसा की है साथ ही शहर को भी अपना सीवरेज उपचारित करने वाला संयंत्र स्थापित करने की अनुशंसा की है ।
गोरखपुर की महापौर अंजु चौधरी का कहना है कि नदी बजाए एक सम्पत्ति के समस्या बन गई है । विकास प्राधिकारी बिना यह सुनिश्चित किए कि उद्योग नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं अनुमति दे देते हैं ।
उम्मीद की जा रही है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री इस क्षेत्र का दौरा करेंगी और समस्या के स्थायी समाधान की पहल करेंगी ।

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