रविवार, 19 फ़रवरी 2012

कविता

विस्मृत भोर
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

जीवन की गति कटिल अंध-तम-जाल,
फंस जाता हॅू, तुम्हें नहीं पाता हॅू प्रिय
आता हॅू पीछे डाल -
रश्मि - चमत्कृत स्वर्णालंकृत नवल प्रभात,
पुलकाकल अलि-मुकल-विपुल हिलाते तरू प्रात,
हरित ज्योति जल भरित सरित, सर, प्रखर प्रभात,
वह सर्वत्र व्याप्त् जीवन से अलक-विचुम्बित सुखकर वात
जगमग जग में पग-पग एक निरंजन आशीर्वाद,
जहा नहीं कोई भय-बाधा, कोई वाद-विवाद
बढ़ जाता
प्रति-श्वास-शब्द-गति से उस ओर,
जहां हाय, केवल श्रम, केवल श्रम,
केवल श्रम, कर्म कठोर -
कुछ ही प्रािप्त् अधिक आशा का
कुटिल अधीर अशांत मरोर
केवल अंधकार करना वन पार
जहां केवल श्रम घोर ।
स्वप्न प्रबल विज्ञान, धर्म, दर्शन,
तम - सुिप्त् शांति, हा भोर
कहां जहां आशाआें ही की
अन्तहीन अनिराम हिलोर ?
मेरी चाहे बदल रहीं नित आहों में
क्या चाहॅू और ?
मुझे फेर दो प्रभो, हेर दो,
हर नयनों में भूला भोर ।
महाकवि के परिमल काव्य संग्रह में प्रकाशित कविता ।

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