गुरुवार, 9 जुलाई 2009

९ खास खबर

वन विहार में बनेगा गिद्ध प्रजनन केन्द्र
(विशेष संवाददाता द्वारा)
आगामी वर्ष भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान `वन विहार' में गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र स्थापित होगा । इस कंेद्र में मध्यभारत से विलुप्त् होने की कगार पर खड़ी गिद्घ की दो प्रजातियों का संरक्षण और उनकी संतति को बढ़ाने का कार्य किया जाएगा । वनविहार के संचालक एसएस राजपूत ने बताया कि `सेन्ट्रल जू अथारिटी' ने इस आशय के प्रस्ताव को सैद्घांतिक रूप से स्वीकार कर लिया है । इसके लिए वन विहार के पांच एकड़ क्षेत्रफल में कार्य भी प्रारंभ हो गया है । केंद्र की स्थापना के लिए गिद्ध संरक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने वाली सस्था ` बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी' का सहयोग भी लिया जा रहा है । यह केंद्र जुलाई २०१० तक तैयार हो जाएगा । श्री राजपूत ने बताया कि इस केंद्र में मध्यभारत से विलुप्त् होने की स्थिति में पहुंच रही गिद्घ की दो प्रजातियों वाइट रम्पड और लांग बिल्ड को संरक्षित करने के साथ उनकी वंशवृद्धि के प्रयास किए जाएंगें । मध्यभारत क्षेत्र में गिद्ध की चार प्रजातियां मुख्य रूप से पाई जाती हैं । इनमें इजिप्शियन वल्चर को छोड़कर किंग वाइ उपड और लांग बिल्ड प्रजातियों पर संकट की तलवार लटक रही है । दो दशक पहले तक देश में ८५ लाख गिद्ध थे । अब उनकी संख्या ३०० से ४००० तक होने का अनुमान है । भारत में १०-१५ वर्षो में गिद्घों की संख्या ९५ प्रतिशत नष्ट हो चुकी है । गिद्घों की नौ प्रजातियों में से तीन जातियों के गिद्घ अर्थात व्हाइट बेक्ड गिद्ध स्लेंडर बिल्ड गिद्घ और लाँग बिल्ड गिद्धों की संख्या पिछले दशक के पूर्व से ही तेजी से घट रही है । वीएनएचएस सर्वेक्षण जांच के आधार पर उनकी संख्या स्लेंडर बिल्ड गिद्धों की संख्या लगभग १०००, व्हाइट बेक्ड लगभग १००० और लांग बिल्ड गिद्घों की संख्या २००० तक होने का अनुमान है । भारत में गिद्धों की संख्या २००५ तक ९७ प्रतिशत तक घट चुकी है । बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुध प्रयोग , बढ़ता हुआ प्रदूषण और बड़े स्तर पर गिद्धों को मारना जैसे कई कारण हैं जिनसे यह प्राणी लुप्त् होने की कगार पर है । `रामायण' में भगवान श्रीराम के सहयोगियों के रूप में जटायु और सम्पाती के रूप में दो गिद्घों का वर्णन है । दोनों के नाम साहस और बलिदान की कहानियों से जुड़े हुए हैं । आकाश में ऊँची उड़ान भरने के इन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल में गिद्धों को अलग दृष्टि से देखा जाता था । गिद्घ केवल भारत में ही नहीं अपितु अनेक और देशों से भी विलुप्त् हो रहे हैं। पर्यावरण संतुलन में इनकी एक व्यापक भूमिका है । ये हष्ट-पुष्ट शारीरिक गठन वाले होते हैं और इन्हें प्रकृति का निजी सफाईकर्मी दल माना जा सकता है । मृत जीव गिद्धों की एक खास प्रकार की खुराक है और इन्हें खाकर अपनी भूख शांत करने की इनकी आदतें जानवरों और मानवों में संचारी रोगों के फैलाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। डॉ. सालिम अली ने अपनी पुस्तक `इंडियन बर्ड्स' में गिद्धों का वर्णन प्रकृति की सफाई मशीन के रूप में किया है जिसकी जगह मानव के आविष्कार से बनी कृत्रिम मशीन नहीं ले सकती है । गिद्ध गर्म क्षेत्रों में सफाईकर्मी के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । गिद्धों का एक दल एक सांड के शव का केवल ३० मिनट में निपटारा कर सकता है । गिद्धों की संख्या में तेजी से हो रही कमी के कारण जीव- जगत की कुछ महत्वपूर्ण कड़ियां हम खोते जा रहे हैं। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र का कहना है कि कृषि में कीटनाशक दवाआें का अधिक इस्तेमाल और डीडीटी, आल्ड्रिन तथा डिआल्ड्रिन गिद्घों की मौत का प्रमुख कारण है । सरकार ने अप्रेल २००६ में भारत में गिद्ध संरक्षण के लिए एक कार्ययोजना की घोषणा की थी । चरणबद्ध ढंग से डाइक्लोफेनेक के पशु चिकित्सकीय इस्तेमाल पर रोक तथा गिद्घों के संरक्षण और प्रजनन केंद्र की भी घोषणा की गयी थी । पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। प्रथम गिद्घ संरक्षण प्रजनन केन्द्र हरियाणा के पिंजौर में है और दूसरा प्रजनन केंद्र पश्चिम बंगाल के राजा त्वाखा, बुक्सा टाइगर रिजर्व में हैं । ये दोनों पहले से ही संचालित हैं ।***

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