विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
आधुनिक जीवन और पर्यावरण
रूपनारायण काबरा
चुनौतियों को स्वीकारना और जूझना मानव की साहसिकता में प्रांरभ से ही रहा है । प्रकृति की चुनौतियों से जूझना एक बात है किन्तु इस दिशा में अविवेक पूर्ण ढंग से कार्य करना दूसरी बाता है, यह तो एक प्रकार की दुश्मनी ठान लेना है ।
अतीत में जब मनुष्य के पास ज्ञान तो था पर विज्ञान नहीं, वह प्रकृति से जूझता था । अपनी आकांक्षाआें एवं महत्वकांक्षाआें की पूर्ति के लिये पर उसने दुश्मनी नहीं ठानी थी । आज विज्ञान की शक्ति से उन्मत वह विवेकहीन हो गया है और अत्यन्त तीव्र आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के दोहन की ही सोचता है, पोषण को नहीं । इस प्रकार हम उसी डाल को काटे जा रहे हैं जिस पर हम बैठे है । आज हमने तथाकथित विकास की महत्वाकांक्षा में हमारी धरती, वायु, वनस्पति, जीव जन्तु एवं जल इत्यादि पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर डाला है ।
मानव एवं पर्यावरण का अनन्य संबंध है । वे एक दूसरे के पूरक एवं परिपूरक है । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संदिग्ध है । कोई भी जीवधारी अकेला नहींरह सकता । सभी जीवधारी चाहे वह मनुष्य हो, जीव-जन्तु हो अथवा वनस्पति सभी एक पर्यावरण में रहते हैं । मनुष्य भी पर्यावरण का एक भाग है । बायो-स्फीयर परत में जहां जीवन का अस्तित्व है, मानव एक अद्वितीय स्थान रखता है । जीव और वनस्पति की अनिगत जातियों के अतिरिक्त मनुष्य के चारों ओर प्राकृतिक संसाधन भी प्रचुर मात्रा में है ।
मनुष्य के पास सोचने, योजना बनाने तथा आसपास की प्रकृति यानी पर्यावरण को अपने लाभ के लिये परिवर्तित करने की अद्भभुत क्षमता है लेकिन दुर्भाग्यवश वह अपने पर्यावरण के लिये एक संकुचित एवं स्वार्थीदृष्टिकोण रखने वाला एक कुप्रबंधक सिद्ध हुआ है । प्राकृतिक संतुलन को नकारते हुए मानव ने अपने चारों ओर के वातावरण से मिलने वाले तुरन्त, अस्थायी व छोटे लाभों को प्राथमिकता दी है । इस प्रकार जहां-जहां भी मानव रहा है उसने पर्यावरणीय समस्याआें को जन्म दिया है ।
अनवरत जनसंख्या वृद्धि एवं तदुपरान्त तीव्र औघोगिक विकास के कारण इस सदी से ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्या सबसे विकट हो गई है । मनुष्य रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति एवं संतुष्टि केलिये तीव्र औघोगिकरण व अनियोजित शहरी-करण में व्यस्त हो रहा है । उसकी इन गतिविधियों ने भौतिक पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधन जहां से भी ऊर्जा प्राप्त् हो सकती थी, सबके लिये इसी प्रवृत्ति ने संकट पैदा कर दिया है ।
भारत में पर्यावरण के प्रति चेतना की पुरातन भारतीय परम्परा बहुत महत्व की थी । छोटे जीवों पर दया का भाव, वृक्षों की रक्षा और पूजा की भावना, यज्ञ आदि से वायु का शुद्धिकरण और जल में मलविसर्जन का वर्जन इत्यादि ऐसे सिद्धाथ थे, जो पर्यावरण के संतुलन में स्वत: ही सहयोगी थे लेकिन औघोगीकरण और शहरीकरण की अंधाधुंध दौड़ में भारतवासी भी पीछे नहीं रहे । अपनी प्राचीन भावनाआें को ताक पर रखकर औघोगिक विकास के नाम पर अनगिनत जंगल काट डाले और अरबों टन लकड़ी औघोगिक ज्वाला के होम में समर्पित कर दी है ।
यह सही है कि हम आज औघोगीकरण से बच नहीं सकते । उद्योग लगते है तो बस्तियां बसती हैं, धरती की छाती को चीर कर सड़कें बनती हैं, रेल की पटरियां बिछती हैं । कारखानों की चिमनियां धुआं फेंकती हैं, उनसे बहकर आने वाले फालतू विषैले रासायनिक पदार्थ नदी-नहरों में जाकर मिल जाते हैं, खानें खुदती है तो जमीन ऊपर से तोड़ी जाती है, अन्दर से खोखली की जाती है, बढ़ता हुआ यातायात विषैला धुंआ एवं जहरीली गैसों से वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं, परिणामस्वरूप पर्यावरण प्रदूषित होता है, पानी प्रदूषित होता है, पहाड़ टूटते है, धंसते है, धसकते है, पेड कटते है, रेगिस्तान का विस्तार होता है, नदियों का कटाव बढ़ता है । दुनिया में हर मिनट अस्सी हेक्टेयर क्षेत्र में वृक्षों पर कुल्हाडी चल रही है, परिणाम सामने है - भयंकर बाढ़े, सूखा, रोग और प्रदूषण और अंतत: मनुष्य का विनाश ।
पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन की दिशा में पेड़ ही हमारे सबसे अच्छे मित्र है । पेडों पर बैठने वाले पक्षी हमारी फसलों को कीटों से बचाते है । पेड़ धरती की उर्वरक शक्ति को बनाये रखते हैं । मृदा को थामे रखते हैं, बहकर चले नहीं जाने देते, मौसम पर नियंत्रण रखते है और मनुष्यों को कई रोगों से बचाते हैं । ये पेड़ अनावश्यक हवाआें को शोषित कर लेते हैं, वायु प्रदूषण को दूर कर शुद्ध वायु देते है । पर पेड़ों को कितनी बेरहमी से काटा जा रहा है ।
पिछले चालीस वर्षो में भारत में कोई ६० लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र समाप्त् हो गया है, परिणाम सामने हैं, भंयकर बाढ़, सूखा और प्रदूषण । पहले भयंकर बाढ़ दस साल या पच्चीस साल में आती है और अब हर पाचवें, तीसरें, दूसरे और कभी तो हर वर्ष ही आने लगी है । और सूखे के क्षेत्र में तो सूखा हर वर्ष ही पड़ने लग गया है, मौसम बदल रहे हैं ।
पर्यावरण प्रदूषण कोई आसमान से टपकी हुई समस्या नहीं है । यह हमने स्वयं पैदा की है । अपनी सुख सुविधा के साधन जुटाने के चक्कर में हम उसी डाल को काटे जा रहे हैं जिस पर हम बैठे हैं । अत्यधिक यंत्रीकरण ने हमे तो पंगु और रोगी बनाया ही है हमारे पर्यावरण को भी प्रदूषित कर दिया है । आज हवा, पानी, आसमान, भोजन, औषधियां सभी प्रदूषित हैं । पतितपावनी गंगा का पानी तक हमने मैला कर दिया है ।
भोपाल त्रासदी और चेरनोबिल परमाणु संयंत्र विस्फोट हमें चेतावनी दे चुके हैंपर हम सुनते ही नहीं । यदि हमने वृक्षों की काटना बन्द करके सघन वृक्षावलि विकसित नहीं की, यदि परमाणु बम परीक्षणों को, कारखानों की गैसों को, शहरों की भीड़ को, बढ़ती जनसंख्या को, वाहनों के धुंए को, रासायनिक खादों, छिड़काआें तथा अत्यधिक यंत्रीकरण को नियंत्रित नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब कयामत स्वयं हमारी बुलाई हुई आयेगी और तब गंगा-यमुना, ताजमहल, अजन्ता, काशी एवं पुरी का यह सुन्दर देश एक कब्रिस्तान बनकर रह जायेगा ।
रेगिस्तान बने नहीं बनाये गये है । सूखा एवं अनावृष्टि एवं बाढ़ स्वयं मानव द्वारा किये गये वृक्ष-विनाश का ही तो परिणाम है और हम अपने इन पापों का प्रायश्चित पेड़ लगाकर ही कर सकते है और यही होगी मानव की प्रकृति के प्रति श्रद्धा, उसके प्रति प्रेम और उसकी पूजा और निश्चय ही प्रकृति देगी अपना आशीर्वाद एवं वरदान । हमारी धरती लहलहा उठेगी, पक्षियों के संगीत से गूंज उठेगी ।
मौसम सुहाने होंगे, न होगी बाढ़ और न होगी अनावृष्टि, हमारी फसल भरपूर होगी । हमारे प्रायोगिक संस्थान विकसित होगे, ऊर्जा की समस्या स्वत: ही हल हो जायेगी । हम और हमारे पशु पक्षी सुखी एवं स्वस्थ होगे । और तब पग-पग पर पसरा प्रकृति का सौन्दर्य भौतिकवाद से ग्रस्त मानव को एक अनुपम शान्ति देगा ।
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