गणतंत्र दिवस पर विशेष
गणतंत्र और पारितंत्र
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
गणतंत्र में हमारी नीतियाँ, हमारी रीतियाँ और हमारी शक्ति, हमारा संविधान तय करता है । आज गण और तंत्र का मेल नहीं है । गण अलग है तंत्र अलग है । इंडिया में भारत कही खो रहा है । गण पहरा देने के स्थान पर सो रहा है या अपनी दुखती पीठ पर तंत्र को ढो रहा है ।
पारितंत्र में हर जीव के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहने चाहिए । मनुष्य जाति में भी सबको पौष्टिक भोजन, शुद्ध पेयजल, सुरक्षित आवास, जीविकोपार्जन हेतु रोजगार तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । यही गणतंत्र का उद्देश्य है । पारितंत्र में गणतंत्र की सुरक्षा तभी सुचारू हो सकती है जब हम संसाधनों के चक्रांतरण को न तोड़ें । यदि हम प्रकृति दत्त किसी भी उपहार की अवहेलना करेंगे तो इसका प्रभाव सम्पूर्ण प्रकृति एवं पारितंत्र पर प्रतिकूल ही पड़ेगा । हमें यह समझना होगा कि स्वस्थ पर्यावरण में ही जनतंत्र सुरक्षित रहता है ।
गणतंत्र और पारितंत्र
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
गणतंत्र में हमारी नीतियाँ, हमारी रीतियाँ और हमारी शक्ति, हमारा संविधान तय करता है । आज गण और तंत्र का मेल नहीं है । गण अलग है तंत्र अलग है । इंडिया में भारत कही खो रहा है । गण पहरा देने के स्थान पर सो रहा है या अपनी दुखती पीठ पर तंत्र को ढो रहा है ।
पारितंत्र में हर जीव के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहने चाहिए । मनुष्य जाति में भी सबको पौष्टिक भोजन, शुद्ध पेयजल, सुरक्षित आवास, जीविकोपार्जन हेतु रोजगार तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । यही गणतंत्र का उद्देश्य है । पारितंत्र में गणतंत्र की सुरक्षा तभी सुचारू हो सकती है जब हम संसाधनों के चक्रांतरण को न तोड़ें । यदि हम प्रकृति दत्त किसी भी उपहार की अवहेलना करेंगे तो इसका प्रभाव सम्पूर्ण प्रकृति एवं पारितंत्र पर प्रतिकूल ही पड़ेगा । हमें यह समझना होगा कि स्वस्थ पर्यावरण में ही जनतंत्र सुरक्षित रहता है ।
जनतंत्र या लोकतंत्र को अंग्रेजी में डेमोक्रेसी कहते है । यह शब्द ग्रीक (यूनानी) भाषा के दो शब्दों से डेमोस तथा क्रेशिया से मिलकर बना है । डेमोस का अर्थ जनता तथा क्रेशिया का अर्थ शक्ति या सत्ता होता है । यह जनता की शक्ति है । जनता की सत्ता है । जनता का शासन है जिसमें हर जर्रे-जर्रे की महत्ता है । क्योंकि प्रकृति ही सर्वोपरि है । जनता प्रकृति का उपभोग तो कर सकती है उस पर शासन नहीं कर सकती । डेमोके्रसी में व्यक्ति तथा समष्टि की बात होती है किन्तु सृष्टि की नहीं, जबकि सृष्टा ने सम्पूर्ण सृष्टि की व्यवस्था को सुचारू रखने का उत्तरदायित्व मनुष्य को ही सौंपा है । क्या हम बखूबी निभा रहे है उस उत्तरदायित्व को यही विचारणीय प्रश्न है ?
शिक्षा शास्त्रियों ने लोकतंत्र को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक रूपों में अभिव्यक्त किया गया है । राजनीतिक अर्थ में लोकतंत्र वह व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत जनता शासन शक्ति का प्रयोग करती है । सामाजिक लोकतंत्र समाज को समरसता पूर्ण एवं न्यायपूर्ण संरचना देता है । आर्थिक लोकतंत्र समाज के प्रत्येक सदस्य को विकास करने हेतु समान आर्थिक सुविधाएं प्रदान करता है । नैतिक लोकतंत्र सम्पूर्ण जीवन दर्शन है जो कहता है कि प्रत्येक मनुष्य व्यक्तित्व साध्य है । किसी मनुष्य को दूसरे के सुख के लिए साधन नहीं माना जा सकता है । पारिस्थितिक लोकतंत्र लोक शकित न केवल मनुष्य का वरन सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों का सहयोग करे । उन्हें सरंक्षित एवं सुरक्षित तथा संबर्द्धित करें । प्रकृतिका दुरूपयोग कदापि न करे ताकि सम्पूर्ण सृष्टि जिस पर अन्य जीव जन्तुओ का भी समान अधिकार है सुचारू रूप से चल सके ।
गणतंत्र तथा पारितंत्र में हर घटक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है किसी कारक की भूमिका प्रत्यक्ष दिखलाई देती है तो किसी की भूमिका अदृश्य रहती है । ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार पेड़-पौधों की जड़े धरती में छुपी रहने के कारण दिखलाई नहीं देती है किन्तु उनकी भूमिका को कमतर नहीं आँका जा सकता है । जड़े ही तो वनस्पतियों को आधार से जोड़ती है तथा पोषक तत्व प्रदान करती हैं । जल एव भूखनिज तत्व जड़ो के माध्यम से ही अवशोषित होते हैं । पेड़ के पत्ते, भोजन बनाते हैं । जिस प्रकार वनस्पतियों में हर पत्ती का महत्व है उसी प्रकार गणतंत्र में जन-जन का महत्व है । अब जन-जन का मन अति महत्वाकांक्षी होता जा रहा है और उसमें गण-गुणिता की जगह अधिनायकत्व समा रहा है और अधिनायककारी प्रवृत्ति प्रकृति तथा पर्यावरण के लिए घातक है ।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति हमारी उम्मींदे बढ़ती गई है किन्तु कर्तव्यों के प्रति उदासीनता पनपी है । हम यह भूल गए है कि प्रकृति कमनीय एवं परिवर्तनीय है जिसमें जुड़ना और टूटना अहर्निश चलता है । सत्ता की महत्ता के संज्ञान मिलकर सत्ता संचालन करता है और समाज के उत्थान के लिए निर्णय लेता है किन्तु हम अपने व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों से बचना चाहते हैं । समाज और पर्यावरण के प्रति बेपरवाह रहते हैं । हम फल खाने की इच्छा तो रखते है किन्तु पेड़ नहीं लगाना चाहते । इतना ही नहीं हम इतने कृतहन है कि अवसर मिलने पर फलीभूत पेड़ को काट डालने से नहीं चूकते है । ऐसी स्थिति में कैसे संरक्षित होगा परितंत्र और कैसे मजबूत होगा हमारा लोकतंत्र ।
लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था में न तो लोक और तंत्र के बीच की खाई को पाटने की कोई सुसम्मत व्यवस्था है और न ही स्वराज की गांरटी क्योंकि दोष तो दृष्टि में है इसी से सृष्टि खराब हो रही है । यह हमारी पश्चिमी भोगवादी सभ्यता की सौगात है । नागरिक शास्त्र कहीं पीछे टूट गया है । नीति की बात अतीत हो गई है नई - नई परिभाषाएं सामने आ रही है । अब लोकतांत्रिक व्यवस्था का मतलब बदल रहा है ।
संविधान हमारे गणतंत्र को एक व्यवस्था देता है । नियति का विधान परितंत्र को व्यवस्थित रखता है । जीवन में जो भी उतार चढ़ाव आते हैं उन्हें हर जीव स्वयं सहता है। जब तक हम नियति के विधान और राजपत्रित संविधान का पालन ईमानदारी से करते हैं तो सभी व्यवस्था सुचारू रहती है किन्तु किसी भी प्रकार का अनधिकृत एवं अनुचित हस्तक्षेप कहीं भी विक्षोभ पैदा करता है । किसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती सारी व्यवस्थाआें को चौपट करती हैं । समर्थवान अपने धनबल या बाहुबल से व्यवस्था को मनमाने ढंग से चलाना चाहता है तो सम्पूर्ण व्यवस्था में अराजक स्थिति उत्पन्न होती है । इतिहास गवाह है कि अतिवादी तत्व कुछ कालतक तो विधान एवं संविधान को धोखा दे सकते है किन्तु अन्त में विजय गणतंत्र की होती है ।
प्रकृति में अदभूत स्वनियामक शक्ति होती है । प्रकृति की सन्निहित शक्तियाँ मनुष्य को पर्याप्त् समय एवं अवसर प्रदान करती है ताकि वह व्यवस्था के अनुरूप ढल जाये । प्रकृति इस व्यवस्था पर हमें गर्व है ।
हम गणतंत्र की बात करते है । मानव अधिकार एवं सामाजिक सुरक्षा की बात करते है किन्तु अपनी धरती माँकी अवहेलना करते हैं । जबकि धरती के अधिकारों की सुरक्षा सबसे अधिक जरूरी है । यहाँ मैं सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा के विचार उद्धरित कर रहा है जिनमें व्यापक दृष्टि एवं दिशा बोध है - मेरा मानना है कि अर्थ डेमोक्रेसी हमे रहन सहन में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने में समर्थ बनाती है, जो सभी प्रजातियों, लोगों और संस्कृतियों के वास्तविक मूल्य पर आधारित है । यानि धरती के सभी महत्वपूर्ण संसाधनों और उनके इस्तेमाल पर समान बटवारा । वह जीवन के अधिकार का आधार भी है, जिसमें जल, आहार, स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी और आजीविका का अधिकार शामिल है । हमें यह तय करना होगा कि क्या हम कॉरपोरेट लालसा पर टिके बाजारू कानून का पालन करेंगे या पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र और उसकी उत्पत्ति की विविधता को अक्षुण्य बनाए रखने की दिशा में सोचेगे ।
भोजन और जल की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है, जब प्रकृति में मौजूद खाद्य और पानी की सुरक्षा की जाए । मृत मिट्टी और सूखी नदियाँ भोजन और जल नहीं दे सकती । लिहाजा मानव अधिकारों और सामाजिक सुरक्षा के लिए चल रहे संघर्ष में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धरती माँ के अधिकारों की सुरक्षा है ।
इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि हमें अपने तथा अपनी प्रकृति के उपादानों की सुरक्षा एवं उनके अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ रही है । हमें अपने आजादी अधूरी लग रही है और अपने ही देश में अपनी ही सरकारों के सामने पूर्ण आजादी की गुहार लगानी पड़ रही है । ताकि सबकी मूलभूत आवश्यकताएं समानता से पूर्ण हो । हमारी प्रकृति, पारितंत्र ओर पर्यावरण हमारे साथ है । हमें प्रकृति देवी का वरद प्राप्त् है । हम ऐसे भयमुक्त समाज का निर्माण करें जहाँ न कोई शोषक हो न कोई शोषित हो । सभी में प्रेम भाईचारा हो तथा समृद्ध खुशहाल पारितंत्र हमारा हो ।
शिक्षा शास्त्रियों ने लोकतंत्र को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक रूपों में अभिव्यक्त किया गया है । राजनीतिक अर्थ में लोकतंत्र वह व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत जनता शासन शक्ति का प्रयोग करती है । सामाजिक लोकतंत्र समाज को समरसता पूर्ण एवं न्यायपूर्ण संरचना देता है । आर्थिक लोकतंत्र समाज के प्रत्येक सदस्य को विकास करने हेतु समान आर्थिक सुविधाएं प्रदान करता है । नैतिक लोकतंत्र सम्पूर्ण जीवन दर्शन है जो कहता है कि प्रत्येक मनुष्य व्यक्तित्व साध्य है । किसी मनुष्य को दूसरे के सुख के लिए साधन नहीं माना जा सकता है । पारिस्थितिक लोकतंत्र लोक शकित न केवल मनुष्य का वरन सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों का सहयोग करे । उन्हें सरंक्षित एवं सुरक्षित तथा संबर्द्धित करें । प्रकृतिका दुरूपयोग कदापि न करे ताकि सम्पूर्ण सृष्टि जिस पर अन्य जीव जन्तुओ का भी समान अधिकार है सुचारू रूप से चल सके ।
गणतंत्र तथा पारितंत्र में हर घटक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है किसी कारक की भूमिका प्रत्यक्ष दिखलाई देती है तो किसी की भूमिका अदृश्य रहती है । ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार पेड़-पौधों की जड़े धरती में छुपी रहने के कारण दिखलाई नहीं देती है किन्तु उनकी भूमिका को कमतर नहीं आँका जा सकता है । जड़े ही तो वनस्पतियों को आधार से जोड़ती है तथा पोषक तत्व प्रदान करती हैं । जल एव भूखनिज तत्व जड़ो के माध्यम से ही अवशोषित होते हैं । पेड़ के पत्ते, भोजन बनाते हैं । जिस प्रकार वनस्पतियों में हर पत्ती का महत्व है उसी प्रकार गणतंत्र में जन-जन का महत्व है । अब जन-जन का मन अति महत्वाकांक्षी होता जा रहा है और उसमें गण-गुणिता की जगह अधिनायकत्व समा रहा है और अधिनायककारी प्रवृत्ति प्रकृति तथा पर्यावरण के लिए घातक है ।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति हमारी उम्मींदे बढ़ती गई है किन्तु कर्तव्यों के प्रति उदासीनता पनपी है । हम यह भूल गए है कि प्रकृति कमनीय एवं परिवर्तनीय है जिसमें जुड़ना और टूटना अहर्निश चलता है । सत्ता की महत्ता के संज्ञान मिलकर सत्ता संचालन करता है और समाज के उत्थान के लिए निर्णय लेता है किन्तु हम अपने व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों से बचना चाहते हैं । समाज और पर्यावरण के प्रति बेपरवाह रहते हैं । हम फल खाने की इच्छा तो रखते है किन्तु पेड़ नहीं लगाना चाहते । इतना ही नहीं हम इतने कृतहन है कि अवसर मिलने पर फलीभूत पेड़ को काट डालने से नहीं चूकते है । ऐसी स्थिति में कैसे संरक्षित होगा परितंत्र और कैसे मजबूत होगा हमारा लोकतंत्र ।
लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था में न तो लोक और तंत्र के बीच की खाई को पाटने की कोई सुसम्मत व्यवस्था है और न ही स्वराज की गांरटी क्योंकि दोष तो दृष्टि में है इसी से सृष्टि खराब हो रही है । यह हमारी पश्चिमी भोगवादी सभ्यता की सौगात है । नागरिक शास्त्र कहीं पीछे टूट गया है । नीति की बात अतीत हो गई है नई - नई परिभाषाएं सामने आ रही है । अब लोकतांत्रिक व्यवस्था का मतलब बदल रहा है ।
संविधान हमारे गणतंत्र को एक व्यवस्था देता है । नियति का विधान परितंत्र को व्यवस्थित रखता है । जीवन में जो भी उतार चढ़ाव आते हैं उन्हें हर जीव स्वयं सहता है। जब तक हम नियति के विधान और राजपत्रित संविधान का पालन ईमानदारी से करते हैं तो सभी व्यवस्था सुचारू रहती है किन्तु किसी भी प्रकार का अनधिकृत एवं अनुचित हस्तक्षेप कहीं भी विक्षोभ पैदा करता है । किसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती सारी व्यवस्थाआें को चौपट करती हैं । समर्थवान अपने धनबल या बाहुबल से व्यवस्था को मनमाने ढंग से चलाना चाहता है तो सम्पूर्ण व्यवस्था में अराजक स्थिति उत्पन्न होती है । इतिहास गवाह है कि अतिवादी तत्व कुछ कालतक तो विधान एवं संविधान को धोखा दे सकते है किन्तु अन्त में विजय गणतंत्र की होती है ।
प्रकृति में अदभूत स्वनियामक शक्ति होती है । प्रकृति की सन्निहित शक्तियाँ मनुष्य को पर्याप्त् समय एवं अवसर प्रदान करती है ताकि वह व्यवस्था के अनुरूप ढल जाये । प्रकृति इस व्यवस्था पर हमें गर्व है ।
हम गणतंत्र की बात करते है । मानव अधिकार एवं सामाजिक सुरक्षा की बात करते है किन्तु अपनी धरती माँकी अवहेलना करते हैं । जबकि धरती के अधिकारों की सुरक्षा सबसे अधिक जरूरी है । यहाँ मैं सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा के विचार उद्धरित कर रहा है जिनमें व्यापक दृष्टि एवं दिशा बोध है - मेरा मानना है कि अर्थ डेमोक्रेसी हमे रहन सहन में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने में समर्थ बनाती है, जो सभी प्रजातियों, लोगों और संस्कृतियों के वास्तविक मूल्य पर आधारित है । यानि धरती के सभी महत्वपूर्ण संसाधनों और उनके इस्तेमाल पर समान बटवारा । वह जीवन के अधिकार का आधार भी है, जिसमें जल, आहार, स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी और आजीविका का अधिकार शामिल है । हमें यह तय करना होगा कि क्या हम कॉरपोरेट लालसा पर टिके बाजारू कानून का पालन करेंगे या पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र और उसकी उत्पत्ति की विविधता को अक्षुण्य बनाए रखने की दिशा में सोचेगे ।
भोजन और जल की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है, जब प्रकृति में मौजूद खाद्य और पानी की सुरक्षा की जाए । मृत मिट्टी और सूखी नदियाँ भोजन और जल नहीं दे सकती । लिहाजा मानव अधिकारों और सामाजिक सुरक्षा के लिए चल रहे संघर्ष में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धरती माँ के अधिकारों की सुरक्षा है ।
इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि हमें अपने तथा अपनी प्रकृति के उपादानों की सुरक्षा एवं उनके अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ रही है । हमें अपने आजादी अधूरी लग रही है और अपने ही देश में अपनी ही सरकारों के सामने पूर्ण आजादी की गुहार लगानी पड़ रही है । ताकि सबकी मूलभूत आवश्यकताएं समानता से पूर्ण हो । हमारी प्रकृति, पारितंत्र ओर पर्यावरण हमारे साथ है । हमें प्रकृति देवी का वरद प्राप्त् है । हम ऐसे भयमुक्त समाज का निर्माण करें जहाँ न कोई शोषक हो न कोई शोषित हो । सभी में प्रेम भाईचारा हो तथा समृद्ध खुशहाल पारितंत्र हमारा हो ।
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