हमारा भूमण्डल
क्रिस्पर : जीन संपादन की नई तकनीक
डॉ. सुशील जोशी
हाल में क्रिस्पर का काफी हल्ला रहा है । यह जेनेटिक संरचना में सटीक फेरबदल की एक ऐसी तकनीक है जो जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है ।
क्रिस्पर का पूरा नाम थोड़ा जटिल है - क्लस्टर्ड रेगुलरली स्पेस्ड पेलिंड्रोमिक रिपीट्स । मगर क्रिस्पर नाम ही प्रचलित है । दरअसल क्रिस्पर बैक्टीरिया की अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली का एक हथियार है । बैक्टीरिया के डीएनए के विश्लेषण से पता चला था कि उसमें बीच-बीच में ऐसे हिस्से पाए जाते हैं जो बार-बार दोहराए जाते हैं । ये हिस्से लगभग २०-२० क्षार जोड़ियों से बने होते हैं ।
क्रिस्पर : जीन संपादन की नई तकनीक
डॉ. सुशील जोशी
हाल में क्रिस्पर का काफी हल्ला रहा है । यह जेनेटिक संरचना में सटीक फेरबदल की एक ऐसी तकनीक है जो जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है ।
क्रिस्पर का पूरा नाम थोड़ा जटिल है - क्लस्टर्ड रेगुलरली स्पेस्ड पेलिंड्रोमिक रिपीट्स । मगर क्रिस्पर नाम ही प्रचलित है । दरअसल क्रिस्पर बैक्टीरिया की अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली का एक हथियार है । बैक्टीरिया के डीएनए के विश्लेषण से पता चला था कि उसमें बीच-बीच में ऐसे हिस्से पाए जाते हैं जो बार-बार दोहराए जाते हैं । ये हिस्से लगभग २०-२० क्षार जोड़ियों से बने होते हैं ।
बैक्टीरिया डीएनए का यह एक अनोखा गुण है, कहकर बात आई-गई हो गई । फिर पता चला कि इन बारम्बार दोहराए जाने वाले हिस्सों के बीच में क्षार जोडियों के जो क्रम पाए जाते हैं वे भी लगभग इसी साइज के होते हैं । यह भी एक निरर्थक सूचना की तरह रह जाती अगर यह पता न चला होता कि बीच के अंतरालों की क्षार श्रृंखलाएं दरअसल उन वायरसों के डीएनए के टुकड़ों से मेल खाती हैं जो इन बैक्टीरिया पर हमला करते हैं ।
यहीं से बात शुरू हुई क्रिस्पर के महत्व की । विचार बना कि शायद बारम्बार दोहराए जाने वाले हिस्सों के बीच पाई जाने वाली क्षार श्रृंखलाएं उन हमलावर वायरसों से ही हासिल की गई हैं । तब इन हिस्सों को नाम दिया गया क्रिस्पर और बीच में पाई जाने वाली श्रृंखलाआें को स्पेसर कहा गया । और खोजबीन से पता चला कि इन क्रिस्पर के आसपास ही कुछ जीन्स होते हैं जो प्रोटीन बनाने का काम करते हैं । इन्हें क्रिस्पर एसोसिएटेड जीन्स (कास) कहा गया । यह भी पता चला कि ये प्रोटीन्स कोशिका में एंजाइम की तरह काम करते हैं और डीएन को तोड़ सकते है ।
धीरे-धीरे पूरी क्रियाविधि स्पष्ट हुई । बैक्टीरिया क्रिस्पर की स्पेसर श्रृंखलाआें की नकल बनाता है और हरेक को कास प्रोटीन के साथ जोड़ देता है । ये स्पेसर-कास संकुल कोशिका में चक्कर काटते हैं । यदि उन्हें अपने स्पेसर के समान श्रृंखला नजर आती है तो वे उसे तोड़ देते हैं । अब जैसे पहले कहा गया, ये स्पेसर श्रृंखलाएं तो हमलावर वायरसों से हासिल की गई थी । यानी ये एक मायने में बैक्टीरिया के पास हमलावर वायरसों की फाइल है । जैसे ही उसे फिर से वैसी श्रृंखला दिखती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है ।
इसके आधार पर ही वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक विकसित की है । तकनीक का आधार यह है कि स्पेसर और कास प्रोटीन मिलकर ऐसा संकुल बनाते है जो विशिष्ट स्थानों पर डीएनए को काट देता है ।
तकनीक का उपयोग करते समय करना यह होता है कि जिस स्थान पर डीएनए को काटना है उसकी क्षार श्रृंखला को आरएनए के रूप में तैयार किया जाए । कास प्रोटीन को स्पेसर की जगह इस आरएनए टुकड़े के साथ जोड़ दिया जाता है । अब इस संकुल को कोशिका में प्रविष्ट कराया जाता है । जैसे ही इस संकुल को आरएनए के उस टुकड़ें से मेल खाती क्षार श्रृंखला नजर आती है वह उसे वहीं से काट देता है । तो सवाल है कि ये डीएनए और आरएन क्या हैं । डीएनए यानी डीऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड वह अणु है जो तय करता है कि हमारे शरीर में कौन से प्रोटीन बनेंगे, कौन से एंजाइम बनेंगे, कौन सी रासायनिक क्रियाएं संभव होगी ।
डीएनए वास्तव में चार क्षारों - एडीनीन, थायमीन, सायटोसीन और ग्वानीन की एक श्रृंखला होती है (वास्तव में ये एक-दूसरे से लिपटी दो श्रृंखलाएं होती हैं) क्षारों के क्रम से तय होता है कि डीएनए का कौन सा हिस्सा किस प्रोटीन को बनाने का निर्देश दे सकता है । जब यह निर्देश प्रसारित करना होता है तो उस हिस्से की डीएनए दोहरी श्रृंखला को अलग-अलग किया जाता है और उसकी प्रतिलिपि बनाई जाती है । इस प्रतिलिपि को राइबोन्यूक्लिक एसिड या आरएनए कहते हैं । आरएनए का यह टुकड़ा केन्द्रक से निकलकर कोशिका में पहुंचता है और वहां संबंधित प्रोटीन बनवाने का काम करता है ।
क्रिस्पर तकनीक का उपयोग करने से पहले डीएनए के उस विशिष्ट हिस्से के क्षार क्रम का आरएनए बनाना होता है जिसका संपादन किया जाना है । वैसे यदि यह पता हो कि आरएनए में क्षारों का क्रम क्या है, तो यह टुकड़ा किसी प्रयोगशाला में प्राप्त् किया जा सकता है । फिर आरएनए के इस टुकड़ें को कास प्रोटीन से जोड़कर कोशिका में डाल दिया जाता है । आम तौर पर इस तकनी में आरएन का जो टुकड़ा डाला जाता है वह २०-३० क्षारों की श्रृंखला से बना होता है । यह इन २०-३० क्षारों के क्रम का मिलान करता है और डीएनए को वहीं से काटता है जहां हुबहू वैसा ही क्रम पाया जाए । इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम होती है कि डीएन को गलत जगह पर काट दिया जाएगा । वैसे यह संभावना रहती तो है ।
आप देख ही सकते है कि इस तकनीक ने काम को कितना आसान बना दिया है । पहले यदि कोई वैज्ञानिक चाहे कि उसे ऐसा जन्तु चाहिए जिसमें कोई जीन विशेष काम न करें तो उसे काफी पापड़ बेलने पड़ते थे और जन्तु की तीन पीढ़ियों के बाद ही उसे ऐसे मनपंसद जन्तु मिल जाते थे । अब यह काम चंद महीनों में हो जाता है ।
ऐसा नहीं है कि क्रिस्पर से पहले वैज्ञानिकों के पास जीन संपादन की कोई और तकनीक नहीं थी । दो अन्य तकनीकें रही हैं जिंक फिंगरन्यूक्लिएज तकनीक और टेलन तकनीक । इसके अलावा पारम्परिक तकनीक भी रही है ।
पारंपरिक रूप से यदि आपको कोई ऐसा जन्तु (मान लीजिए चूहा) बनाना है जिसमें कोई एक जीन काम न करता हो तो आपको करना यह होगा कि पहले उस जीन की परिवर्तित डीएनए श्रृंखला तैयार करें, और फिर उसे चूहे के भ्रूण में डाल दें । अब यह संयोग की बात होगा कि वह जीन चूहे के भ्रूण में फिट हो जाएगा । इसके बाद जो चूहे बनेंगे उसमें दो तरह की कोशिकाएं होगी - एक मूल जीन वाली और दूसरी परिवर्तित जीन वाली । ऐसी मिली-जुली जेनेटिक संरचना वाले जन्तुआें को शिमेरा कहते हैं । इनमें से कुछ शिमेरा (संयोगवश) ऐसे होंगे जिनके प्रजनन अंगों में परिवर्तित जीन होगे ।
अब इन चूहों को चुनकर उनको सामान्य चूहों से प्रजनन करने दिया जाएगा । अब जो चूहे पैदा होंगे उनमें संभावना है कि कुछ चूहों की हरेक कोशिका में एक सामान्य जीन तथा एक परिवर्तित जीन होगा । जब इनकी मदद से तीसरी पीढ़ी बनाई जाएगी तब जाकर कुछ ऐसे चूहे मिलेंगे जिनमें जीन की दोनों प्रतिलिपियों परिवर्तित वाली होगी । यानी हर मोड़ पर संयोग और संभावना का खेल है यह ।
इसके बाद आई टेलन व जिंक फिंगर न्यूक्लिएज तकनीकें । इन दोनों ने काम तो आसान हो गयाम गर फिर भी श्रमसाध्य रहा । दोनों में ही एसे एंजाइम का उपयोग होता है जो डीएनए को विशिष्ट क्षार श्रृंखला पर तोडते है मगर इनमें करना यह होता है कि ऐसी प्रत्येक श्रृंखला के लिए अलग एंजाइम का निर्माण करना पड़ता है । क्रिस्पर ने पूरी प्रक्रिया को एकदम आसान बना दिया है । आपको सिर्फ इतना करना है कि मनचाहे जीन की क्षार श्रृंखला पता करके उसके साथ कास एंजाइम को जोड़ देना है और इस संकुल को कोशिका में प्रविष्ट करा देना है ।
इस तकनीक की सरलता को देखते हुए वैज्ञानिकों को लग रहा है कि इसका चिकित्सा कार्य में उपयोग बहुत आसानी से हो सकेगा । यह चिंता का विषय भी है । इस तकनीक की मदद से यह बहुत आसान हो जाएगा कि किसी आनुवंशिक रोग से संबंधित जीन को निष्क्रिय कर दिया जाए या गलत जीन के स्थान पर सही जीन को प्रत्यारोपित कर दिया जाए । यह काम उन कोशिकाआें में भी किया जा सकता है जो प्रजनन में शरीक नहीं होंगी । इन कोशिकाआें को जीव विज्ञान की भाषा में कायिक कोशिकाएं कहते है । यदि कायिक कोशिकाआें में जीन का संपादन किया जाता है, तो वह उसी व्यक्ति तक सीमित रहेगा, अगली पीढ़ी में नजर नहीं आएगा । मगर जैसा कि चीन में किए गए अनुसंधान से स्पष्ट हो गया है, क्रिस्पर की मदद से ऐसे परिवर्तन भ्रूण कोशिकाआें में भी किए जा सकते हैं, जहां से वे प्रजनन कोशिकाआें में पहुंच जाएंगे और अगली पीढ़ियों में बरकरार रहेंगे ।
एक बड़ी चिंता यह भी है कि क्रिस्पर तकनीक, अपनी सरलता के चलते, मनपसंद गुणों वाले शिशु (जिन्हें डिजाइनर शिशु कह सकते हैं) के निर्माण का रास्ता खोल सकते हैं । मतलब जरूरी नहीं है कि बात सिर्फ व्यक्तियों रोगों के इलाज पर रूक जाए । यह हमेशा के लिए किसी जीन को चुप कराने या नया जीन प्रत्यारोपित करने तक पहुंच सकती है । और बात सिर्फ रोगवाहक जीन तक नहीं बल्कि मनचाहे गुण (जैसे गोरापन) पैदा करने की कोशिशों तक जा सकती है । क्रिस्पर तकनीक की क्षमता का सबसे पहला प्रदर्शन २०१२ में किया गया था । उसके बाद २०१३ में इस तकनीक की मदद से एक जीन को हटाकर उसकी जगह दूसरा जीन जोड़ने में सफलता मिली । फिर तो बाढ़ आ गई । पिछले दो वर्षो में क्रिस्पर को लेकर सैकड़ों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं । कुछ वैज्ञानिकों ने चूहों के डीएनए की मरम्मत करके उन्हें रोगों से मुक्ति दिलवाई । कुछ वैज्ञानिकों ने फसलों में नए-नए जीन जोड़ने से संबंधित प्रयोग किए ।
इस विषय पर विचार-विमर्श के लिए हाल ही में आयोजित एक सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कहा है कि फिलहाल प्रजनन कोशिकाआें के साथ इस तरह के प्रयोग न किए जाए और यदि किए जाएं तो उन्हें गर्भावस्था तक न ले जाया जाए । हां, वैज्ञानिकों ने इस तकनीक की क्षमता को कई क्षेत्रों में लाभदायक ढंग से उपयोग करने की बात भी स्वीकार की है । जैसे जीन संपादन के जरिए फसलों को उन्नत बनाना इसका एक उदाहरण हो सकता है । यह भी कहा जा रहा है कि रोगवाहक जन्तुआें (जैसे मच्छर) में इस तरह के जीन वाले मच्छरों को प्रविष्ट कराया जा सकता है जो मच्छरों पर नियंत्रण में मददगार साबित होंगे । यह भी माना गया है कि व्यक्ति को किसी रोग (जैसे हीमोफीलिया, मधुमेह वगैरह) से छुटकारा दिलवाने के लिए इस तकनीक पर प्रयोग जारी रहने चाहिए । इस संदर्भ में बौद्धिक संपदा के मामले भी उभरेंगे और उभर चुके है । इस मामले में विभिन्न देशों में अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं, अलग-अलग कानूनी परिवेश हैं ।
यहीं से बात शुरू हुई क्रिस्पर के महत्व की । विचार बना कि शायद बारम्बार दोहराए जाने वाले हिस्सों के बीच पाई जाने वाली क्षार श्रृंखलाएं उन हमलावर वायरसों से ही हासिल की गई हैं । तब इन हिस्सों को नाम दिया गया क्रिस्पर और बीच में पाई जाने वाली श्रृंखलाआें को स्पेसर कहा गया । और खोजबीन से पता चला कि इन क्रिस्पर के आसपास ही कुछ जीन्स होते हैं जो प्रोटीन बनाने का काम करते हैं । इन्हें क्रिस्पर एसोसिएटेड जीन्स (कास) कहा गया । यह भी पता चला कि ये प्रोटीन्स कोशिका में एंजाइम की तरह काम करते हैं और डीएन को तोड़ सकते है ।
धीरे-धीरे पूरी क्रियाविधि स्पष्ट हुई । बैक्टीरिया क्रिस्पर की स्पेसर श्रृंखलाआें की नकल बनाता है और हरेक को कास प्रोटीन के साथ जोड़ देता है । ये स्पेसर-कास संकुल कोशिका में चक्कर काटते हैं । यदि उन्हें अपने स्पेसर के समान श्रृंखला नजर आती है तो वे उसे तोड़ देते हैं । अब जैसे पहले कहा गया, ये स्पेसर श्रृंखलाएं तो हमलावर वायरसों से हासिल की गई थी । यानी ये एक मायने में बैक्टीरिया के पास हमलावर वायरसों की फाइल है । जैसे ही उसे फिर से वैसी श्रृंखला दिखती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है ।
इसके आधार पर ही वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक विकसित की है । तकनीक का आधार यह है कि स्पेसर और कास प्रोटीन मिलकर ऐसा संकुल बनाते है जो विशिष्ट स्थानों पर डीएनए को काट देता है ।
तकनीक का उपयोग करते समय करना यह होता है कि जिस स्थान पर डीएनए को काटना है उसकी क्षार श्रृंखला को आरएनए के रूप में तैयार किया जाए । कास प्रोटीन को स्पेसर की जगह इस आरएनए टुकड़े के साथ जोड़ दिया जाता है । अब इस संकुल को कोशिका में प्रविष्ट कराया जाता है । जैसे ही इस संकुल को आरएनए के उस टुकड़ें से मेल खाती क्षार श्रृंखला नजर आती है वह उसे वहीं से काट देता है । तो सवाल है कि ये डीएनए और आरएन क्या हैं । डीएनए यानी डीऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड वह अणु है जो तय करता है कि हमारे शरीर में कौन से प्रोटीन बनेंगे, कौन से एंजाइम बनेंगे, कौन सी रासायनिक क्रियाएं संभव होगी ।
डीएनए वास्तव में चार क्षारों - एडीनीन, थायमीन, सायटोसीन और ग्वानीन की एक श्रृंखला होती है (वास्तव में ये एक-दूसरे से लिपटी दो श्रृंखलाएं होती हैं) क्षारों के क्रम से तय होता है कि डीएनए का कौन सा हिस्सा किस प्रोटीन को बनाने का निर्देश दे सकता है । जब यह निर्देश प्रसारित करना होता है तो उस हिस्से की डीएनए दोहरी श्रृंखला को अलग-अलग किया जाता है और उसकी प्रतिलिपि बनाई जाती है । इस प्रतिलिपि को राइबोन्यूक्लिक एसिड या आरएनए कहते हैं । आरएनए का यह टुकड़ा केन्द्रक से निकलकर कोशिका में पहुंचता है और वहां संबंधित प्रोटीन बनवाने का काम करता है ।
क्रिस्पर तकनीक का उपयोग करने से पहले डीएनए के उस विशिष्ट हिस्से के क्षार क्रम का आरएनए बनाना होता है जिसका संपादन किया जाना है । वैसे यदि यह पता हो कि आरएनए में क्षारों का क्रम क्या है, तो यह टुकड़ा किसी प्रयोगशाला में प्राप्त् किया जा सकता है । फिर आरएनए के इस टुकड़ें को कास प्रोटीन से जोड़कर कोशिका में डाल दिया जाता है । आम तौर पर इस तकनी में आरएन का जो टुकड़ा डाला जाता है वह २०-३० क्षारों की श्रृंखला से बना होता है । यह इन २०-३० क्षारों के क्रम का मिलान करता है और डीएनए को वहीं से काटता है जहां हुबहू वैसा ही क्रम पाया जाए । इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम होती है कि डीएन को गलत जगह पर काट दिया जाएगा । वैसे यह संभावना रहती तो है ।
आप देख ही सकते है कि इस तकनीक ने काम को कितना आसान बना दिया है । पहले यदि कोई वैज्ञानिक चाहे कि उसे ऐसा जन्तु चाहिए जिसमें कोई जीन विशेष काम न करें तो उसे काफी पापड़ बेलने पड़ते थे और जन्तु की तीन पीढ़ियों के बाद ही उसे ऐसे मनपंसद जन्तु मिल जाते थे । अब यह काम चंद महीनों में हो जाता है ।
ऐसा नहीं है कि क्रिस्पर से पहले वैज्ञानिकों के पास जीन संपादन की कोई और तकनीक नहीं थी । दो अन्य तकनीकें रही हैं जिंक फिंगरन्यूक्लिएज तकनीक और टेलन तकनीक । इसके अलावा पारम्परिक तकनीक भी रही है ।
पारंपरिक रूप से यदि आपको कोई ऐसा जन्तु (मान लीजिए चूहा) बनाना है जिसमें कोई एक जीन काम न करता हो तो आपको करना यह होगा कि पहले उस जीन की परिवर्तित डीएनए श्रृंखला तैयार करें, और फिर उसे चूहे के भ्रूण में डाल दें । अब यह संयोग की बात होगा कि वह जीन चूहे के भ्रूण में फिट हो जाएगा । इसके बाद जो चूहे बनेंगे उसमें दो तरह की कोशिकाएं होगी - एक मूल जीन वाली और दूसरी परिवर्तित जीन वाली । ऐसी मिली-जुली जेनेटिक संरचना वाले जन्तुआें को शिमेरा कहते हैं । इनमें से कुछ शिमेरा (संयोगवश) ऐसे होंगे जिनके प्रजनन अंगों में परिवर्तित जीन होगे ।
अब इन चूहों को चुनकर उनको सामान्य चूहों से प्रजनन करने दिया जाएगा । अब जो चूहे पैदा होंगे उनमें संभावना है कि कुछ चूहों की हरेक कोशिका में एक सामान्य जीन तथा एक परिवर्तित जीन होगा । जब इनकी मदद से तीसरी पीढ़ी बनाई जाएगी तब जाकर कुछ ऐसे चूहे मिलेंगे जिनमें जीन की दोनों प्रतिलिपियों परिवर्तित वाली होगी । यानी हर मोड़ पर संयोग और संभावना का खेल है यह ।
इसके बाद आई टेलन व जिंक फिंगर न्यूक्लिएज तकनीकें । इन दोनों ने काम तो आसान हो गयाम गर फिर भी श्रमसाध्य रहा । दोनों में ही एसे एंजाइम का उपयोग होता है जो डीएनए को विशिष्ट क्षार श्रृंखला पर तोडते है मगर इनमें करना यह होता है कि ऐसी प्रत्येक श्रृंखला के लिए अलग एंजाइम का निर्माण करना पड़ता है । क्रिस्पर ने पूरी प्रक्रिया को एकदम आसान बना दिया है । आपको सिर्फ इतना करना है कि मनचाहे जीन की क्षार श्रृंखला पता करके उसके साथ कास एंजाइम को जोड़ देना है और इस संकुल को कोशिका में प्रविष्ट करा देना है ।
इस तकनीक की सरलता को देखते हुए वैज्ञानिकों को लग रहा है कि इसका चिकित्सा कार्य में उपयोग बहुत आसानी से हो सकेगा । यह चिंता का विषय भी है । इस तकनीक की मदद से यह बहुत आसान हो जाएगा कि किसी आनुवंशिक रोग से संबंधित जीन को निष्क्रिय कर दिया जाए या गलत जीन के स्थान पर सही जीन को प्रत्यारोपित कर दिया जाए । यह काम उन कोशिकाआें में भी किया जा सकता है जो प्रजनन में शरीक नहीं होंगी । इन कोशिकाआें को जीव विज्ञान की भाषा में कायिक कोशिकाएं कहते है । यदि कायिक कोशिकाआें में जीन का संपादन किया जाता है, तो वह उसी व्यक्ति तक सीमित रहेगा, अगली पीढ़ी में नजर नहीं आएगा । मगर जैसा कि चीन में किए गए अनुसंधान से स्पष्ट हो गया है, क्रिस्पर की मदद से ऐसे परिवर्तन भ्रूण कोशिकाआें में भी किए जा सकते हैं, जहां से वे प्रजनन कोशिकाआें में पहुंच जाएंगे और अगली पीढ़ियों में बरकरार रहेंगे ।
एक बड़ी चिंता यह भी है कि क्रिस्पर तकनीक, अपनी सरलता के चलते, मनपसंद गुणों वाले शिशु (जिन्हें डिजाइनर शिशु कह सकते हैं) के निर्माण का रास्ता खोल सकते हैं । मतलब जरूरी नहीं है कि बात सिर्फ व्यक्तियों रोगों के इलाज पर रूक जाए । यह हमेशा के लिए किसी जीन को चुप कराने या नया जीन प्रत्यारोपित करने तक पहुंच सकती है । और बात सिर्फ रोगवाहक जीन तक नहीं बल्कि मनचाहे गुण (जैसे गोरापन) पैदा करने की कोशिशों तक जा सकती है । क्रिस्पर तकनीक की क्षमता का सबसे पहला प्रदर्शन २०१२ में किया गया था । उसके बाद २०१३ में इस तकनीक की मदद से एक जीन को हटाकर उसकी जगह दूसरा जीन जोड़ने में सफलता मिली । फिर तो बाढ़ आ गई । पिछले दो वर्षो में क्रिस्पर को लेकर सैकड़ों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं । कुछ वैज्ञानिकों ने चूहों के डीएनए की मरम्मत करके उन्हें रोगों से मुक्ति दिलवाई । कुछ वैज्ञानिकों ने फसलों में नए-नए जीन जोड़ने से संबंधित प्रयोग किए ।
इस विषय पर विचार-विमर्श के लिए हाल ही में आयोजित एक सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कहा है कि फिलहाल प्रजनन कोशिकाआें के साथ इस तरह के प्रयोग न किए जाए और यदि किए जाएं तो उन्हें गर्भावस्था तक न ले जाया जाए । हां, वैज्ञानिकों ने इस तकनीक की क्षमता को कई क्षेत्रों में लाभदायक ढंग से उपयोग करने की बात भी स्वीकार की है । जैसे जीन संपादन के जरिए फसलों को उन्नत बनाना इसका एक उदाहरण हो सकता है । यह भी कहा जा रहा है कि रोगवाहक जन्तुआें (जैसे मच्छर) में इस तरह के जीन वाले मच्छरों को प्रविष्ट कराया जा सकता है जो मच्छरों पर नियंत्रण में मददगार साबित होंगे । यह भी माना गया है कि व्यक्ति को किसी रोग (जैसे हीमोफीलिया, मधुमेह वगैरह) से छुटकारा दिलवाने के लिए इस तकनीक पर प्रयोग जारी रहने चाहिए । इस संदर्भ में बौद्धिक संपदा के मामले भी उभरेंगे और उभर चुके है । इस मामले में विभिन्न देशों में अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं, अलग-अलग कानूनी परिवेश हैं ।
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