सोमवार, 13 अगस्त 2012

सामयिक
हमारा दायित्व है, काम करना
                                               प्रणव मुखर्जी
    हमारा संघीय संविधान, आधुनिक भारत के विचार का जीता जागता स्वरूप है और यह न केवल भारत को बल्कि आधुनिकता को भी परिभाषित करता   है । आधुनिक राष्ट्र कुछ बुनियादी सिद्धांतोंपर निर्मित होता है जैसे, लोकतंत्र, अथवा हर एक नागरिक को बराबर का अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, अथवा हर एक धर्म को बराबर स्वतंत्रता हर एक क्षेत्र और भाषा को बराबर अधिकार, लैंगिक समानता तथा इनमें सबसे अधिक, आर्थिक समानता ।
    हमारा विकास वास्तविक लगे इसके लिए जरूरी है कि हमारे देश के गरीब से गरीब व्यक्ति को यह महसूस हो कि वह उभरते भारत की कहानी का एक हिस्सा है । हमने कृषि, उद्योग और सामाजिक ढाँचे के क्षेत्र मेंबहुत कुछ हासिल किया है परन्तु यह सब उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है, जो आने वाले दशकों में, भारत की अगली पीढ़ियाँ हासिल    करेंगी ।
    हमारा राष्ट्रीय मिशन वहीं बना रहना चाहिए जिसे महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, अम्बेडकर तथा मौलाना आजाद की पीढ़ी ने भाग्य से भेंट के रूप में हमारे सुपुर्द किया था । गरीबी के अभिशाप को खत्म करना और युवाआें के लिए ऐसे अवसर पैदा करना, जिससे वे हमारे भारत को तीव्र गति से आगे लेकर जाऍ । भूख से बड़ा अपमान कोई नहीं है । सुविधाआें को धीरे-धीरे नीचे तक पहुँचाने के सिद्धांतों से गरीबों की न्यायसंगत आकांक्षाआें का समाधान नहीं हो सकता । हमें उनका उत्थान करना होगा जो कि सबसे गरीब हैं जिससे गरीबी शब्द आधुनिक भारत के शब्दकोश से मिट जाए ।
    वह बात जो हमें यहाँ तक लेकर आई है वही हमें आगे लेकर जाएगी । भारत की असली कहानी है इसकी जनता की भागीदारी । हमारी धनसंपदा को किसानों और कामगारों, उद्योगपतियों और सेवा-प्रदाताआें, सैनिकों और असैनिकों द्वारा अर्जित किया गया है । मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारा तथा सिनागॉग के उदात्त सह-अस्तित्व में, हमारा सामाजिक सौहार्द्र दिखाई देता है, और यह हमारी अनेकता में एकता के प्रतीक हैं ।
    शांति, समृद्धि का पहला तत्व है । इतिहास को प्राय: खून के रंग से लिखा गया है, परन्तु विकास और प्रगति के जगमगाते हुए पुरस्कार शांति से प्राप्त् हो सकते हैं न कि युद्ध से । बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के वर्षोकी अपनी कहानी है । योरप और सही मायने में पूरे विश्व ने, दूसरे विश्व युद्ध और उपनिवेशवाद की समािप्त् के बाद, खुद को फिर से स्थापित किया और परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी महान संस्थानों का उदय हुआ । जिन नेताआें ने लड़ाई के मैदान, बड़ी-बड़ी सेनाएँ उतारी, और तब उनकी समझ में आया कि युद्ध में गौरव से कहीं अधिक बर्बरता होती है, तो इसके बाद उन्होंने दुनिया की सोच में परिवर्तन करके उसे बदल डाला । गाँधीजी ने हमें उदाहरण प्रस्तुत करके सिखाया और हमें अहिंसा की परम शक्ति प्रदान की ।
    भारत का दर्शन पुस्तकों में कोई अमूर्त परिकल्पना नहीं है । यह हमारे लोगों के रोजाना के जीवन में फलीभूत हो रहा है, जो मानवीयता को सबसे अधिक महत्व देते हैं । हिंसा हमारी प्रकृतिमें नहीं है, इंसान के रूप में जब हम कोई गलती करते हैं तब हम पश्चाताप तथा उत्तरदायित्व के द्वारा खुद को उससे मुक्त करते हैं ।
    परन्तु शांति के इन प्रत्यक्ष पुरस्कारों के कारण इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया है कि अभी युद्ध का युग समाप्त् नहीं हुआ है । हम चौथे विश्व युद्ध के बीच में हैं, तीसरा विश्व युद्ध शांति युद्ध था, परन्तु १९९० के दशक की शुरूआत में, जब यह युद्ध समाप्त् हुआ, उस समय तक एशिया, अफ्रीकाऔर लेटिन अमेरिका में बहुत गर्म माहौल था । आतंकवाद के खिलाफ लडाई चौथा युद्ध है और यह विश्व युद्ध इसलिए है क्योंकि यह अपना शैतानी सिर दुनिया में कहीं भी उठा सकता है । दूसरे देशों को इसकी जघन्यता तथा खतरनाक परिणामों के बारे में बाद में पता लगा, जबकि भारत को इस युद्ध का सामना उससे कहीं पहले से करना पड़ रहा है ।
    मुझे अपनी सशस्त्र सेनाआें की वीरता, विश्वास तथा दृढ़ निश्चय पर गर्व है, जो उन्होनें हमारी सीमाआें पर इस खतरे से लड़ते हुए दिखाया है । अपने बहादुर पुलिस बलों पर गर्व है, जिन्होनें देश के अंदर शत्रुआें का सामना किया है तथा अपनी जनता पर गर्व है जिन्होंने असाधारण उकसावे के बावजूद शांत रहकर आतंकवादियों के कुचक्र कोबेकार  कर दिया । भारत के लोगों ने घावों का दर्द सहते हुए परिपक्वता का उदाहरण प्रस्तुत किया है । जो हिंसा भड़काते हैं और घृणा फैलाते हैं, उन्हें सच्चई समझनी होगी । वर्षो के युद्ध के मुकाबले शांति के कुछ क्षणों से, कहीं अधिक उपलब्धि प्राप्त् की जा सकती है ।
    भारत आत्म-संतुष्ट है तथा समृद्धि के ऊँचे शिखर पर बैठने की इच्छा से प्रेरित है । यह अपने इस मिशन में, आतंकवाद फैलाने वाले खतरनाक लोगों के कारण विचलित नहीं होगा ।
    भारतवासियों के रूप में, हमें भूतकाल से सीखना होगा, परन्तु हमारा ध्यान भविष्य पर केंद्रित होना चाहिए । मेरी राय में, शिक्षा वह मंत्र है जो कि भारत में अगला स्वर्ण युग ला सकता  है । हमारे प्राचीनतम ग्रंथों में, समाज के ढाँचे को ज्ञान के स्तंभों पर खड़ा किया गया है । हमारी चुनौती है, ज्ञान को देश के हर एक कोने में पहुंचाकर, इसे एक लोकतांत्रिक ताकत में बदलना । हमारा ध्येय वाक्य स्पष्ट है - ज्ञान के लिए सब और ज्ञान सबके लिए ।
    मैंएक ऐसे भारत की कल्पना करता हॅूं जहाँ उद्देश्य की समानता से सबका कल्याण संचालित हो, जहाँ केन्द्र और राज्य केवल सुशासन की परिकल्पना से संचालित हो, जहाँहर एक क्रांति सकारात्मक क्रांति हो, जहाँलोकतंत्र का अर्थ केवल पाँच  वर्ष में एक बार मत देने का अधिकार न हो बल्कि जहाँ सदैव नागरिकों के हित में बोलने का अधिकार हो, जहाँ ज्ञान विवेक में बदल जाए, जहाँ युवा अपनी असाधारण ऊर्जा तथा प्रतिभा को सामूहिक लक्ष्य के लिए प्रयोग करें । जब पूरे विश्व में निरंकुशता समािप्त् पर है, जब उन क्षेत्रों में लोकतंत्र फिर से पनप रहा है जिन क्षेत्रों को पहले इसके लिए अनुपयुक्त माना जाता था, ऐसे समय में भारत आधुनिकता का मॉडल बनकर उभरा है ।
    जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने अपने सुप्रसिद्ध रूपक में कहा था कि भारत का उदय होगा, शरीर की ताकत से नहीं बल्कि मन की ताकत से, विध्वंस के ध्वज से नहीं, बल्कि शांति और प्रेम के ध्वज से । अच्छाई की सारी शक्तियों को इकट्ठा करें । यह न सोचें कि मेरा रंग क्या है - हरा, नीला अथवा लाल, बल्कि सभी रंगों को मिला लें और सफेद रंग की उस प्रखर चमक को पैदा करें, जो प्यार का रंग है । हमारा दायित्व है काम करना, परिणाम खुद ही आ जाएँगे ।
(भारत के राष्ट्रपति के पद का कार्यभार ग्रहण करने के अवसर पर श्री मुखर्जी के अभिभाषण से संक्षिप्त्)

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