सोमवार, 13 अगस्त 2012

संपादकीय 
प्रकृति की रक्षा हमारा सामाजिक धर्म

पिछले कुछ समय से दुनिया में पर्यावरण के विनाश के लेकर काफी चर्चा हो रही है । मानव की गतिविधियों के कारण जंगलों की अंधाधंुध कटाई हो रही है, वाहनों से रोजाना हजारों-लाखों टन धुंआ निकल रहा है जो हवा को प्रदूषित कर रहा है । कारखाने नदियों में जहरीला कचरा बहा रहे हैं तो कुछ बड़े राष्ट्र समुद्र में परमाणु परीक्षण करके उसे विषाक्त बना रहे है ।
    मनुष्य के स्वार्थ का ही दुष्परिणाम है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा   है । बढ़ते तापमान के कारण वातावरण पहले से अधिक गर्म हो गया है । इसके फलस्वरूप पहाड़ों पर जमी हुई बर्फ तेजी से पिघलने लगी है । पिघलती बर्फ का पानी समुद्र में पहुंचकर उसका जलस्तर बढ़ाने लगा है । इसका नतीजा समुद्र के किनारे बसे शहरोंको भुगतना पड़ रहा है । इनसे वहां रहने वाले हजारों-लाखों लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है ।
    आज हर आदमी प्रकृति का विनाश करने पर तुला हुआ है । शायद वह यह नहीं जानता कि इस तरह खुद उसका अस्तित्व ही खत्म हो सकता है । ऐसे में इसका उपाय यह है कि लोग पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझे ? शायद यह काम भी धर्म के जरिए आसानी से संभव हो सकता है ।
    यदि लोगों को समझाया जाए कि प्रकृति की सार-संभाल करना भी एक धार्मिक कार्य है तो यह काम आसान हो जाएगा । लोगों को समझाना होगा कि चूंकि यह सृष्टि ईश्वर की रचना है, इसलिए उसका आदर सम्मान करना और उसकी रक्षा से संबंधित आज्ञाआें का पालन करना ही धर्म है । ईश्वर की आराधना तभी पूरी मानी जाएगी, जब उसके द्वारा रची गई सुन्दर सृष्टि व उसमें विचरने वाले सभी प्रकार के जीव जन्तुआें की रक्षा की जाएगी और उनका आदर किया जाएगा । अच्छी बात यह है कि दुनिया के सभी धर्म ईश्वर और सृष्टि का आदर करना सिखाते हैं । सभी धर्मो में माना गया है कि प्रकृति की रक्षा करना ही मनुष्य की रक्षा करना है । इसलिये कहा जा सकता है कि प्रकृति की रक्षा करना ही हमारा सामाजिक धर्म है ।

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