सोमवार, 13 अगस्त 2012

जनजीवन
भूमि की लूट पर टिका तंत्र
                                      प्रो.(डा.) रामजी सिंह
    वर्तमान पूरा तंत्र भूमि हड़प के सिद्धान्त पर टिका हुआ है । निजी व सरकार दोनो ही संपत्ति को हथियाने में लगे है । सरकारे वैधानिक रूप में अधिग्रहण कर नागरिकों को विस्थापित बना रही हैं तो निजी क्षेत्र आधे-अधूरे दाम देकर । कुल मिलाकर स्थितियां दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है ।
    संपत्ति सब रघुपति के आही को धर्म-वाक्य मानकर स्वीकार नहीं भी करें, किन्तु यह तो तय है कि आदिम युग में कम से कम जमीन की व्यक्तिगत मालिकी नहीं ही थी । इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि आदमी कम थे और जमीन बहुत ज्यादा थी । खेती के औजार भी इतने विकसित नहीं थे कि एक व्यक्ति बहुत अधिक जमीन पर खेती कर सके । उस समय अथर्ववेद के पृथ्वी-सूक्त में माता भूमि: पुत्रो अहम् पृथिव्या: की भी यही पृष्ठभूमि थी ।
    जब सृष्टिकर्त्ता के रूप मेंईश्वर की अवधारणा आयी तो हम सब कुछ ब्रह्मा को ही मानने लगे - सर्व खलु इदं ब्रह्मा । या ईशावास्यमं इदं ब्रह्मा । इसी को लोक भाषा मेंसबै भूमि गोपाल की या संपत्ति सब रघुपति के आही कहा जा सकता है। सम्पत्ति के स्वामित्व को ईश्वरत्व के कारण वैदिक और श्रमण धर्मोएवं संस्कृतियों में अपरिग्रह और अस्तेय को नीति-धर्म एवं पंचशील या पंच महाव्रत में माना गया है ताकि यह हमारा व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन दोनों का धर्म बन जाये ।
    भारत के बाहर के धर्मोंा में भी संपत्ति संग्रह के बदले दान, जकात या चैरिटी पर ज्यादा ध्यान दिया गया है । फ्रांसीसी दार्शनिक प्रोधाँने तो सम्पत्ति संग्रह को चोरी बताया । सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ सम्पत्ति का घालमेल बहुत ही गंभीर रूप से हुआ   है । इसी कारण समाज में विषमतापूर्ण सामन्ती और पंूजीवादी संस्थाआें या परम्पराआें का विकास हुआ है ।
    मार्क्सवाद ने इतिहास की भौतिक आर्थिक व्याख्या के सिद्धान्त के आधार पर व्यक्तिगत सम्पत्ति का निषेध किया और उसके बदले राज्य के स्वामित्व का सिद्धान्त रखा । सोवियत संघ के द्वारा सामूहिक खेती के प्रयोग के परिष्कार के लिए कोल खोज व चीन में कम्यून के प्रयोग हुए । इसी तरह इजराइल ने लोकतांत्रिक आधार पर किवूत्स का प्रयोग किया है । भारत मेंभूमि पर राजा या सामंत के स्वामित्व के बदले राजस्व के रूप में कृषि की उपज का कुछ अंश या छठा हिस्सा लिया जाता था ।
    यदि हम वैदिक युग के गाँवों की चर्चा छोड़ भी दें और लिखित इतिहास पर दृष्टि डालें तो लगेगा कि गांव स्वावलम्बी होकर आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र थे । राजसत्ता केन्द्र मेंअवश्य थी लेकिन गांवों की स्वायत्ता सुरक्षित थी । वैशाली में लिच्छावियों के लगभग ३०० से अधिक गणतंत्र थे । पठान-मुगल राजवंशों ने भी केन्द्रीय राजसत्ता को संभालने पर ध्यान दिया और अपवादों को छोड़ ग्रामीण समाज की स्वायत्ता में छेड़छाड़ नहीं की ।
    किन्तु जब से ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत आयी तो लार्ड कार्नवालिस ने चिरस्थायी प्रबंध लागू कर, जमींदारी और भूमिदारी व्यवस्था को चालू कर वैधानिक सामंतवाद को इसलिए जन्म दिया कि आर्थिक रूप से उसे राजस्व मिले, साथ ही साथ बिचौलिये जमीदार एवं सामंत अंग्रेज सरकार की सुरक्षा करते रहे । यही कारण था कि आधुनिक युग में स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान जमींदारी प्रथा उन्मूलन सर्वोच्च् प्राथमिकता        में थी ।
    स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेता साम्यवादी मित्रों से भी पूर्व किसानों की समस्याआें के लिये जूझते रहे । आजादी की लड़ाई में गांधीजी ने भी चंपारण, खेडा, बारडोली आदि किसान सत्याग्रह का नेतृत्व किया । गांधी की सोच की गतिशीलता का इसी से पता चलता है कि लुई फिशर द्वारा यह पूछे जाने पर कि आजादी के बाद भूपतियों की जमीन के विषय मेंजोतदार किसानों को कौन-सा कार्यक्रम देंगे । गांधीजी का उत्तर था - मैं किसानों को जमीन पर कब्जा कर लेने को कहूंगा । फिशर ने जब पूछा क्या इसमें हिंसा नहीं होगी ? गांधीजी ने कहा - वह कुछ ही दिनों में शांत हो जाएगी । फिर पूछा गया - आप मालिकों से क्या कहेगे ? उन्होंने कहा - मैं उनसे सहयोग की अपील करूंगा । इसके बाद पूछा कि आप मुआवजा देने की पेशकश करेंगे ? गांधी का उत्तर था - देश की परिस्थिति इस लायक नहीं कि उन्हें मुआवजा दिया जा सके ।
    जमीन की समस्या को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है कि जमीन (जल और खनिज, जंगल और नदी) पर कोई व्यक्तिगत मालिकी नहींहोनी चाहिए तथा इस पर राज्य का भी स्वामित्व नहीं चलना चाहिए ।
    आज तो राज्य का पवित्र मिथक समाप्त् सा हो गया है । दलगत राजनीति और अधिक अधिकार प्राप्त् करने की आकांक्षा ने राज्य शासन को तानाशाही की ओर जाने का अवसर दिया है । देश में ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों घोटाले हैं जहां प्राकृतिक संपदाआें की बेरहमी से नीलामी व लूट राज्य शासन कर रहा    है । इन्हीं कारणों से गांधी ने जमीन-जंगल-जल और खनिज सम्पत्तियों को न तो व्यक्तिगत स्वामित्व, बल्कि राज्य के स्वामित्व के भी बाहर रखना चाहा था । आज की पंचायतेंया स्थानीय निकाय भी तो राजनीति के दलदल में पड़े हैं । उन पर भी यह बोझ देना खतरनाक है ।
    इस संबंध में गांधी विचार के अनुरूप संत विनोबा ने भी ग्राम-दान एवं ग्राम स्वराज्य की बात की । सौभाग्य यह है कि ग्रामदान-ग्रामस्वराज्य की इस योजना को एक राष्ट्रीय सहमति मिल चुकी है । विनोबा समझते थे कि केवल सर्वोदय के लोग इस महायज्ञ को पूरा नहींकर सकते । अत: कर्नाटक के ऐलबाल में १९५७ में उन्होंने उस समय के सभी बड़े राजनीतिक दलों के नेताआें को आमंत्रित किया था । पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं ग्रामदान का सहमति पत्र तैयार किया था । जिस पर सभी नेताआें ने हस्ताक्षर भी किये । आज बड़ी योजनाआें के कार्यान्वयन के लिए लगभग ६ करोड़ भारतीय विस्थापित हो चुके है । मुनाफे के लिये खनिजों की लूट से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है क्योंकि अगले १५० सालों में खर्च होने वाले खनिजों का आज ही उपयोग कर लेने से भयावह स्थिति पैदा हो सकती है ।
    अत: आवश्यकता है कि प्राकृतिक संपदाआें को राज्य या पूंजीपतियों के बदले जनसमाज के हाथोंमें दिया जाए । सौभाग्य से भारतीय संविधान में संपत्ति के मौलिक अधिकार को पहले ही खत्म कर दिया गया है । इसलिए जब ग्राम-समाज या अन्य सामुदायिक संस्थाआें को यह दायित्व दिया जाए तो उसके लिए कुछ सुरक्षात्मक निर्देश रहें तथा उनके निर्णय सर्वसम्मति से हों ताकि राजनीति का रंग न चढ़े । इसमें ही सबका भला व सबका सम्मान है ।

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