सोमवार, 13 अगस्त 2012

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
सभ्यता को बचाने की जद्दोजहद
                                                  नारायण देसाई
    बदनाम पंूजीवाद का नवसंस्करण याने भूमंडलीकरण, आर्थिक साम्राज्यवादी तानाशाही का वह मोहक एवं भ्रामक स्वरूप है जिसने वसुधैव कुटुम्बकम की मानव भावना को विश्व बाजार में पलट दिया है । परिवार का आधार परस्पर स्नेह और विश्वास होता है परन्तु बाजार चतुराई से अविश्वास को व्यवस्था की प्रतिष्ठा से पुष्ट करना चाहता है ।
       भूमण्डलीकरण, उदार मतवाद एवं उपभोक्तावाद की तिकड़ी मुट्ठीभर लोगों के हाथ मेंआर्थिक (एवं फलत: राजनैतिक) सत्ता, चरमसीमा का भोगवाद तथा संसाधन एवं निसर्ग की कल्पनातीत बरबादी वाली सभ्यता पैदा कर रही है । बाजार द्वेषभाव, अविश्वास एवं गलाकाट होड़ बढ़ाता है । विश्व बाजार व्यक्ति को स्वार्थी, समष्टि को भेदयुक्त एवं प्रकृतिको क्षरण, दोहन व शोषण सुलभ बनाता है ।
    आज प्रमुख समस्या सामंजस्य की है । इसी से हमारी स्वस्थता, समृद्धता एवं शांति   बढ़ेगी । जिस मात्रा में व्यक्ति अपनी स्वस्थता खोएगा, समाज की समता छिन्न-भिन्न होगी एवं प्रकृति के राग में बेसुरापन बढ़ेगा और हमारा पथ भी उतना अंधकारमय बनेगा । भूमण्डलीकरण तथा उसके साथ चलने वाले उदारीकरण आदि सहचारी भावों ने यही समस्या हम लोगों के सामने खड़ी की है । इस चुनौती को स्वीकार कर उसका मुकाबला करना आज सबसे महत्वपूर्ण कार्य है ।
    ग्राम स्वराज - ग्राम स्वराज का दर्शन इस वैश्विक चुनौती के एक जवाब के रूप में हमारे सामने है। गांधी ने हिंद स्वराज में जो दर्शन दिया है तथा विनोबा ने मुख्यत: भूमि के प्रश्न को हाथ में लेकर जिस दर्शन को अधिक ठोस स्वरूप दिया, उसे देश के कुछ सेवकोंतथा ग्रामों ने प्रत्यक्ष प्रयोग की कसौटी पर कस के देखा तो है फिर भी समस्या की विराटता तथा प्रयास का शैशव रूप देखते हुए यह स्पष्ट है कि इस दिशा में अभी लम्बी मंजिल तय की जानी है । चुनौती हमारे पुरूषार्थ को भी उतना ही आव्हान करने वाली है, जितनी गांधी-विनोबा के जमाने मेंथी । यह चुनौती इसलिए अधिक तीव्र है क्योंकि आज हमारे बीच गांधी-विनोबा या जयप्रकाश जैसी हस्तियां नहीं है ।
    समाज में अमीर-गरीब के बीच की खाई अधिक गहरी हुई है और विषमता बहुत बढ़ी है । इस दर्शन के पीछे यह चिन्तन काम कर रहा है कि हम जितनी जरूरतें बढ़ाते जायेंगे उतना ही हमारा विकास बढ़ेगा । विकास की इस अवधारणा से जूझना ही विकल्प ढूंढने वाले हम जैसे सेवकों के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती है ।
    इस समस्या को समझकर देश के लोगोंके सामने हमेंयह बात रखनी होगी कि विकास की मौजूदा अवधारणा स्पर्धा प्रेरक तत्व बनाती है, जो अंत में हमें कलह, युद्ध एवं महायुद्ध तक ले जाती है । इस विकास के रक्षक एवं अंतिम अधिष्ठान शस्त्र हैं । आज के संदर्भ मेंजिसका परिणाम सर्वनाश ही है ।
    समाज को तेजी से आगे ले जाने के प्रेरक तत्व स्पर्धा को समझने के बदले में पूरे समाज के हित के लिए सहयोग को प्रेरक तत्व के तौर पर स्थापित करना है एवं शस्त्र को विकास के रक्षक समझने के बदले पड़ोसीपन की भावना को विकसित करना है ।
    पंूजीवाद का विकल्प ढूंढने वाले समाजवादी तथा साम्यवादी विचारक गरीबों के प्रति करूणा से प्रेरित थे । इसलिए जगत भर मेंशोषित लोग इन विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए । समाज की विषमता पैदा करने वाले और एक तत्व के केन्द्रीकरण तथा शासन के जरिए समाज व्यवस्था में सुधार करने की उम्मीद रखने वाले इसके दुर्गुण नहींदेख पाए । अत: जहां यह व्यवस्था सफल हुई वहां राजव्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था दोनों का केन्द्रीकरण हुआ, जिससे शासक-शासित तथा व्यवस्थापक वर्ग और उपभोक्ता वर्ग के निचले वर्ग के बीच विषमता बढ़ी ।
    समाज के प्रत्येक सदस्य तथा पूरे समाज का हित सोचने वालोंके आगे व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक समता को समन्वित करने की समस्या भी आ खड़ी हुई । चूंकि भूमण्डलीकरण एक अर्थ में पूंजीवाद का गुणाकार ही है, इसलिए आज हमारे सामने यह समस्या भी अनेक गुणा आकार लेकर आ खड़ी है ।
    साम्यवादी व्यवस्था में एक हद तक वितरण की समस्या हल हुई, लेकिन केन्द्रीकरण के कारण उत्पन्न होने वाली विषमता बरकरार रही । इसके अलावा केन्द्रीकरण ने प्राकृतिक संसाधनोंके दोहन की गति एवं तीव्रता को बेतहाशा बढ़ा दिया । इससे नगरीकरण भी बढ़ गया । कुछ चिन्तकों ने तो इसे विकास का लक्षण ही माना ।
    केन्द्रीकरण के कारण व्यक्ति के मानस मेंपरायापन (एलियेनेशन) और बढ़ा, उसके कारण मानसिक तनाव तथा मानसिक बीमारियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । स्पर्धा को सामाजिक मूल्य मानने के कारण समाज की संवादिता पर गहरी चोट पहुंची । इसमें समाज का हर व्यक्ति दूसरे का प्रतिस्पर्धा और संभवित दुश्मन   बना । सामाजिक क्लेशों ने क्रमश: कलह, संघर्ष एवं युद्ध का स्वरूप धारण किया । विषम तंत्र को टिकाये रखने के लिए क्रूर साधनों का उपयोग किया गया । तकनीक का विकास इस क्रूरता को घातक एवं विनाशक शस्त्रोंतक के ले गया । नव पंूजीवाद जहां नव साम्राज्यवाद के नग्न रूप मेंनहीं पहुंचा वहां भी वह आर्थिक साम्राज्यवाद तक तो पहुंच ही चुका है ।
    विकास के क्रमिक विचार ने विश्व समाज को आर्थिक तानाशाही तक पहुंचाया । इस तानाशाही ने अब संस्कृति के क्षेत्र  भी प्रवेश कर लिया है जहां रोजमर्रा के जीवन के रहन-सहन के लिए आवश्यक उपकरणों से आरंभ कर खेलकूद, संगीत, नृत्य, कला, शिल्प-स्थापत्य आदि नानाविध क्षेत्रों में इने गिने विज्ञापनदाताआें की जबरदस्त पकड़ सामान्य उपभोग करने वाले नागरिकों पर भारी पड़ रही है ।
    विकास की भ्रमित अवधारणा को साथ लेकर अत्याधुनिक तकनीक के सहारे गति बढ़ा कर आज जो अंधी दौड़ लगाई जा रही है उसका शायद सबसे खतरनाक असर पर्यावरण पर पड़ रहा है । वसंुधरा के मूल वस्तु यथा तेल, कोयला अन्य धातुएं आदि का इस गति के साथ दोहन हो रहा है कि वे निकट भविष्य में खत्म हो जायेगी । इसके अलावा पृथ्वी का तापमान बढ़ जाना-ग्लोबल वार्मिंग, पृथ्वी के आसपास के ओजोन आवरण में विराट ग े पड़ना, पृथ्वी की वनस्पति का कल्पनातीत गति से नष्ट होना, आबोहवा में अकल्पनीय परिवर्तन फलत: अत्यधिक गर्मी, भयानक सर्दी, बारिश, बाढ़, हिमप्रपात, हिम नदियों का पिघलना आदि एवं पृथ्वी के तल से जीवन तत्वों का शोषणा और भूमि की ऊपरी सतह का कृषि योग्य न रहना जैसे अन्य दुष्परिणाम भी अब हमारे सामने है ।
    परिस्थति की सर्वव्यापी विषमता ने मनुष्य के लिए नया विकल्प ढूंढना अनिवार्य बना दिया है । दुनियाभर की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक विविधता के कारण ये विकल्प अलग-अलग हो सकते है । भारत की वर्तमान परिस्थति, उसके हजारोंवर्षो की परम्परा तथा गांधी-विनोबा काल के निकटवर्ती इतिहास को देखते हुए आज ग्रामस्वराज हमारे सामने एक अमोघ विकल्प के रूप में प्रस्तुत हो रहा है ।

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