गुरुवार, 19 नवंबर 2009

१२ कृषि जगत

खस्ताहाल खेती और भूख का संकट
सुश्री माधुरी
भूख के भयावह विस्तार से निपटने के लिए सरकार इन दिनों राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की कवायद में लगी है, लेकिन क्या यह कानून देश के उन ७७ फीसदी लोगों को भरपेट भोजन की गारंटी दे सकेगा जो कुल जमा बीस रूपए रोज कमाकर खुद को किसी तरह जिंदा इंसानों की सूची में बनाए रखने की मशक्कत में लगे हैं ? क्या यह कानून आजकल के सबसे लोकप्रिय धंधे एग्री बिजनेस उर्फ कृषि व्यवसाय के चंगुल से भूख से बिलबिलाते लोगों के लिए अनाज निकाल सकेगा । तेजी से बढ़ती भूख का मुद्दा लगातार बदहाल होती खेती और देश के साठ फीसदी किसानों की बेहाली से जुड़ा है । साठ के दशक में आई हरित क्रांति से लगाकर भूमि सुधार कार्यक्रम की असफलता औद्योगिक क्षेत्र को छूट देते हुए कृषि लागत, भूमि की उर्वरता में कमी और कार्पोरेट घरानों के हित में खेती का तिरस्कार, आसमान छूती कृषि लागत, भूमि की उर्वरता में कमी और कार्पोरेट घरानों के हित में खेती की अनदेखी इस बदहाली के कुछ कारण हैं । रासायनिक खाद, देवाआें और संकर बीजों की दम पर हुई इस मशीनीकृत क्रांति ने मौसम की माार झेल पाने में सक्षम स्थानीय फसलों की जगह गेहूं चावल और सोयाबीन जैसी बाजारू फसलों को बढ़ावा दिया । अस्सी के दशक में बीज, खाद, दवाआें सिंचाई आदि में लगने वाली प्रति हैक्टेयर लागत करीब १५०० रूपए होती थी, लेकिन २००४ तक आते-आते यह करीब ७७०० रूपए हो गई है । आंकड़े बताते हैं कि खेती में लगी दो तिहाई आबादी को देश की कुल आय का केवल १७.१ प्रतिशत भाग ही मिल पाता है । दूसरी तरफ उद्योगों से चांदी काट रहे करीब एक प्रतिशत लोग सकल आय का तीस प्रतिशत तक हड़प लेते हैं । सरकार ने भी कमाई के इस गोरखधंधे में उत्साह से सहयोग देने के लिए देश में दूसरी हरित क्रांति की घोषणा कर दी है । पहली हरित क्रांति से उपजी गैर-बराबरी, क्षेत्रीय असमान्यता, बढ़ती लागत और सूखी खेती की स्थानीय व कारगर तकनीकों के प्रति उपेक्षा की भूलचूक को सुधारने की बजाए दूसरी हरित क्रांति के नाम पर समूचे कृषि उत्पादन और वितरण को कृषि व्यापार निगमों को सौंपा जा रहा है । इस साजिश के तहत कंपनियों खाद्यान्न मूल्यों के दाम अपने लाभ की खातिर मनमाने ढंग से तय कर सकती हैं। भूमंडलीकरण की नीतियों के चलते खाद्य पदार्थोंा के लिए वैश्विक निर्भरता बढ़ रही है । श्रमिकों के रोजगार के अवसरों एवं वास्तविक मजदूरी में कमी हो रही है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं खाद्य संग्रहण की पहले से कमजोर नीतियां अब हाशिए पर जा रही है । ये सभी मौजूदा संकट उन आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं जो गरीबों के खिलाफ हैं । अगर भूख से निपटना है तो भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को ही बदलना होगा । सरकार के पास सामाजिक क्षेत्रों के लिए पर्याप्त् धन नहीं है की वास्तविकता को उसके द्वारा कारपोरेट क्षेत्र को दी जाने वाली भारी सब्सिडी से समझा जा सकता है । विकास की आसन्न जरूरतो के बावजूद भारत में करों की दर अनेक विकसित राष्ट्रो से कम है । यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में १८.५ प्रतिशत है जबकि अमेरिका जैसे अमीरों के हितैषी राष्ट्र में यह २५.४ प्रतिशत है। वहीं स्वीडन में यह ५०.७ डेनमार्क में४९.६ एवं बेल्जियम में ४५.६ प्रतिशत है । सकल कर राजस्व वसूली में भी इस वर्ष कमी आई है । यह हमारी नवउदारवादी नीतियों का ही नतीजा है कि सकल घरेलू उत्पाद में ५५ प्रतिशत की हिस्सेदारी करने वाले हमारे सेवा क्षेत्र का करों में योगदान मात्र ९ प्रतिशत है । इस कर नीति का सबसे चौकाने एवं तिरस्कृत करने योग्य पक्ष यह है कि कंपनियों को छूट एंव सब्सिडी के जरिए, करों के माध्यम से उगाही जा सकने वाली आधी से अधिक राशि का स्वत: त्याग कर देती है । २००८-०९ में केन्द्र सरकार द्वारा करीब ४१८०९५ करोड़ रूपए को कर राजस्व की माफी दी गई जो कि कुल कर संग्रहण का करीब ६९ प्रतिशत है । इसमें कारपोरेट जगत को ६८९१४ करोड़, व्यक्तिगत आयकर में ३९५३३ करोड़, कस्टम्स में २२५७५२ करोड़ एवं एक्साईज में १२८२९३ करोड़ की कर माफी दी गई थी । जबकि २००७-०८ में यह राशि २७८६४४ करोड़ थी जो कि केन्द्र सरकार के कर राजस्व का ४८.१६ प्रतिशत थी।करों की वसूली नहीं कर पाना भी अत्यंत शोचनीय विषय है । ५ अगस्त ०९ को संसद में बताया गया कि देश के १०० प्रमुख बकायदारों पर १.४१ लाख करोड़ रूपए कर के रूप में बकाया है । नवीनतम केन्द्रीय बजट में जहां सामाजिक क्षेत्र पर सकल घरेलू उत्पाद का मात्र १.८ प्रतिशत व्यय प्रस्तावित है वही रक्षा पर व्यय २.५ प्रतिशत है । संसद द्वारा सरकारी खर्च में कटौती से संबंधित वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंध कानून (एफ.आर. बी.एम.अधिनियम) को पारित किया गया है । अधिकांश आबादी की बढ़ती खाद्य असुरक्षा और घटती आमदनी के खतरों के बीच यह बिल पारित किया गया है जिसके माध्यम से स्वाभाविक तौर पर सामाजिक कार्योंा पर होने वाले खर्चोंा की ही बली चढ़ाई जाएगी । ऐसे हालातों में व्यापक खाद्य अधिकार की मांग में किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट की अब कोई गुंजाइश ही नहीं बची है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत पूरे परिवार की बजाए कम से कम एकल परिवारों के इकाई मान कर प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय चिकित्सा शोध संस्थान (आई.सी.एम.आर) द्वारा सुंझाई मात्रा में खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इस व्यवस्था को पूरे देश में एक सरीखा लागू करने से भूखमरी से बचा जा सकता है । खाद्यान्न की सरकारी खरीद एवं वितरण का विकेन्द्रीकरण करके देश के सभी भागों एंव वितरण का विकेन्द्रीकरण करके देश के सभी भागोंसे खाद्यान्नों की खरीद की जानी चाहिए । अभी यह खरीद मुख्यत: पंजाब, हरियाणा और आंध्रपेदश से ही हाती है । सिर्फ २४ प्रकार के अनाजों पर घोषित किए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का दायरा बढ़ाकर उसमें अन्य दालों, तिलहनों एवं मोटे अनाजों की भी अनिवार्य खरीदी की जानी चाहिए । खाद्य तेल का वितरण भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से किया जाना जरूरी है । हरित क्रांति के कारण लगभग समूचे देश में हो रही सूखी खेती का कबाड़ा हुआ है । इस कारण हम खाद्य तेल का आयात कर रहे हैं । उत्पादन बढ़ाने के नाम पर कार्पोरेट हितों को किसी भी प्रकार की जी.एम. फसलों और खाद्यान्न वितरण की अनुमति देना खतरनाक होगा । अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए हमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर भी गंभीरता से सोचना होगा । इसमें सबसे प्रमुख है खाद्यान्नों में स्वावलंबन । आज खाद्य पदार्थोंा के मूल्योंएवं आपूर्ति को अंतर्राष्ट्रीय बाजार की ताकतें एवं निगम नियंत्रित करते हैं । अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए हमें अपनी कृषि को पुन: सशक्त बनाना होगा जिससे हम अंतर्राष्ट्रीय बाजारों की दया पर निर्भर न रहें । सरकार के सभी खाद्य कार्यक्रमों को प्राथमिक तौर पर घरेलू आपूर्ति से ही क्रियान्वित किया जाना चाहिए । गंभीर कमी के दौर में ही खाद्यान्न आयात किया जा सकता है एवं निर्यात के पूर्व घरेलू मांग की आपूर्ति अनिवार्य की जाए । इस पूरे मामले में सबसे महत्वपूर्ण है, किसान को उसकी भूमि से अलग करने की कोशिशें । केंद्र की मौजूदा यू.पी.ए. सरकार एक ओर तो खाद्य सुरक्षा की बात करती है वहीं दूसरी ओर कार्पोरेट घरानों को उद्योगों के लिए भरपूर भूमि और पानी भी उपलब्ध करवा रही है । भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन की उसकी मंशा के पीछे भी यही है । अतएव नए खाद्य सुरक्षा अधिनियम में इस बात का प्रावधान होना चाहिए कि कृषि भूमि का गैर कृषि उपयोग मेंबलात परिवर्तन नहीं किया जाए । एक और मुद्दा है, तंत्र को दुरूस्त करने का । पिछले कुछ वर्षोंा में जो भी सामाजिक कानून पारित हुए हैं, उनमें जवाबदेही और दंड का समुचित कानून पारित हुए हैं उनमें जवाबदेही और दंड का समुचित प्रावधान न होने के कारण उनके प्रावधानों का उल्लंघन आम हो गया है । अतएव नए खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत भ्रष्टाचार, जमाखोरी, खाद्यान्न को अन्य कि उपयोग मे लाना आदि पर प्रतिबंध लगाने के लिए सख्त कानून बनाए जाने चाहिए और ऐसे अपराधों की श्रेणी में डाला जाना चाहिए । इसी के साथ आवश्यक वस्तु अधिनियम को नए खाद्य सुरक्षा अधिनियम मे समाहित कर उसका हिस्सा बनाना चाहिए । ***

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