सोमवार, 14 दिसंबर 2009

१४ कविता

कोंपलो की बात हो
आशीष दशोत्तर
पेड़ के सूखे तने पर कोंपलों की बात हो, इस बयाबाँ में कही तो हौंसलों की बात हो । वो समन्दर ढल रहा है बर्फ के आकार में है मुनासिब वक्त अब तो हलचलों की बात हो । इस ज़मीनों-आसमांं पर हक हमारा है नहीं, ऐसा जो बतला रही उन फाइलों की बात हो । मंूदने से आँख को हालत बदलती है कहाँ, मुंह बाए जो खड़ी उन मुश्किलों की बात हो । सारी दुनिया एक हो जाए, बहस ये व्यर्थ है, दिल ही दिल में बढ़ रहे उन फासलों की बात हो । पीढ़ियाँ गुजरी, मगर पथराई आँखे अब तलक, तारीखों में गुम हुए उन फैसलों की बात हो । बुझदिली, मनहूसियत, नैराश्य को अब छोड़िए, दे हमेशा ताज़गी, उन काफिलों की बात हो ।
एक पौधा भी लगाएँ और उसकों सींच लें, फिर बहारों, फूल, खुश्बू और फलों की बात हो ।
जो हमें `आशिष' करते हैं हवा-पानी से दूर, छीनते हैं टाट भी उन मखमलों की बात हो ।***

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