शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

सामयिक
पराली प्रदूषण निवारण की नयी तकनीकें
डॉ. ओ.पी. जोशी


    जाडा आते-आते देश की राजधानी और उससे सटे इलाके पराली जलाए जाने से पैदा होते धुंए की तकलीफों से दो-चार होने लगते हैं।
    जमीन को सांस तक नहीं लेने देती आधुनिक ताबड-तोड़ खेती रबी फसलों की कटाई के तुरंत बाद बचे डंठलों, पराली को जलाकर खेतों को फिर से उत्पादन की चाकरी के लिए तैयार कर देती है। ऐसे में चहुंदिस व्याप्ति, बढ़ती धुंध और धुंए के अलावा क्या बचता है? वैज्ञानिकों ने पराली के लाभप्रद उपयोग को लेकर कई तरीके ईजाद किए  हैं ।

   शीत ऋतु के प्रारंभ में पराली जलाने से दिल्ली मेंवायु-प्रदूषण की समस्या पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा ही बढ़ गयी है। सुप्रीम कोर्ट एवं राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के निर्देशों तथा केन्द्र एवं संबंधित राज्य सरकारों के कुछ प्रयासों के बावजूद समस्या लगभग यथावत बनी हुई है। पराली का जब तक कोई ऐसा उपयोग नहीं खोजा जाता जो किसानों के लिए आर्थिक रूप से लाभदायक हो, तब तक किसान इसे नियम-कानून होने के बावजूद जलाते रहेंगे क्योंकि यह कार्य शून्य बजट का होता है ।
    पराली को लेकर अलग-अलग क्षेत्रों  में जो प्रयोग किये गये हैं उनमें से कई ऐसे  हैं जो किसानों को लाभ देकर रोजगार भी बढ़ाते हैं। देश के जाने-माने कृषि वैज्ञानिक डा. एम एस स्वामीनाथन ने तीन-चार वर्ष पूर्व पराली से भूसा, पशुचारा, कार्ड-बोर्ड एवं कागज बनाने में उपयोग किये जाने के लिये प्रधानमंत्री को लिखा था। पराली के प्रयोग को लेकर जो उपाय सुझाये गए हैं उनमें प्रमुख हैं, ताप बिजली घरों और ईंटों को पकाने में, बायोचार, मीथेनाल, जैविक ईंधन, खाद बनाने तथा भवन सामग्री (छत, टाईल्स, दरवाजे) एवं रस्सी निर्माण में उपयोग ।
    लगभग एक वर्ष पूर्व दिल्ली में तत्कालीन ऊर्जा-मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में तय किया गया था कि उत्तरप्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब में पैदा होने वाली पराली का कम-से-कम पांच प्रतिशत कोयले के साथ ताप बिजली घरों में जलाना अनिवार्य होगा। इसे मानकर इस वर्ष के प्रारंभ में नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन  (एनटीपीसी) ने दादरी तापघर की एक ईकाई में पराली से बनी गोलियों (पेलेट्स) से बिजली उत्पादन शुरू किया था। पेलेट?स की आपूर्ति आवश्यकता से कम होने से यह कार्य धीरे चला । इस आधार पर एनटीपीसी ने राज्य सरकारों को सुझाव दिया था कि किसानों को पेलेट?स बनाने की मशीनें उपलब्ध करायी जावें ताकि उन्हें रोजगार भी मिले एवं बिजली उत्पादन बढ़े । केन्द्र सरकार ने पराली खरीदने की भी बात कही थी ।
    प्रारंभिक तौर पर बताया गया था कि एक एकड़ के खेत से दो टन पराली निकलती है जिससे किसान को प्रति हेक्टर ग्यारह हजार रूपये का लाभ होगा। वर्ष २०१८-१९ में लिये गये निर्णयों पर केन्द्र एवं संबंधित राज्य सरकारें ईमानदारी से दृढ़तापूवे ९-१० महिनेेकाम करतीं तो शायद इस शीत ऋतु के प्रारम्भ में समस्या कुछ कम होती । पंजाब के नवां शहर जिले के तीन-चार गांवों में कार्यरत बेगमपुर को-आपरेटिव सोसायटी ने पिछले ३-४ वर्षों में कमाल का कार्य किया है। इससे किसानों की कमाई हो रही है, रोजगार मिल रहा है एवं बिजली भी पैदा हो रही है।
    दरसल सोसायटी ने पराली को दबाकर गठानों में बांधने वाली मशीन खरीदी जिसकी कीमत सरकारी सब्सिडी के बाद लगभग नौ लाख रूपये थी। पराली एकत्र करने एवं गांठ बनाने में तीन-चार लोगों को तीन-चार माह का रोजगार उपलब्ध हुआ । प्रशासन की सुविधा से पराली की गांठें पास के बिजलीघरों में भेजी गयीं । मशीन से प्रतिदिन १५ से २० खेतों की पराली का निपटान होता है। दो-तीन वर्षांे में मशीन की कीमत निकल जाती है एवं इसके  बाद फिर लाभ ही मिलता है।
    पंजाब के अबोहर शहर से लगभग २२-२५ किलोमीटर दूर स्थित गांव गद्दाडोब में आसपास के ३० गांवों के लगभग ५०० किसानों से पराली खरीदकर एक बिजलीघर बिजली बना रहा है। बिजलीघर के आसपास के २०-२५ कि.मी. के क्षेत्र में कोई भी किसान पराली नहीं जलाता। बिजली-घर १२७ रूपये प्रति क्विंटल के भाव से पराली खरीदता है एवं हर वर्ष छ: करोड़ यूनिट बिजली पैदाकर बिजली बोर्ड को बेचता है।
    बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के तुरकोलिया नामक स्थान पर अमेरिका से नौकरी छोड़कर आये ज्ञानेश पांडे भूसे से बिजली बना रहे हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि पराली का प्रयोग ईंट-भट्टों में कोयले के साथ किया जावे । पंजाब में लगभग ३००० ईंट-भट्टे सक्रिय हैं। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्राध्यापकों एवं छात्रों ने पराली से बायोचार बनाया है। लगभग १०० टन पराली से ४५ टन बायोचार बनता है। इसका उपयोग पानी साफ करने (विशेषकर जहरीले आर्सेनिक को हटाने) एवं बंजर भूमि को ठीक करने में किया जाता है।
    देश के नीति आयोग ने २०१७ के अंत में पराली से मोबाइल संयंत्र से मीथेनाल बनाने का सुझाव दिया था। इसके पीछे उद्देश्य यही था कि सयंत्र किसानों के पास ले जाकर पराली से मीथेनाल बनाया जाए । इस कार्य हेतु ५००० करोड़ रूपये का कोष (मिथेनाल-इका?नामी फंड) बनाने का सुझाव दिया गया था । इस राशि से किसानों को उचित कीमत पर पराली खरीदी का भुगतान और मीथेनाल निर्माण की प्रणाली को बेहतर बनाया जाना था।
    एक निश्चित मात्रा में मीथेनाल को पेट्रोल के साथ मिलाने पर वाहन प्रदूषण घट जाता है । कानपुर के सरसौला ब्लाक के गांव फुफुवार-सुई में उत्तरप्रदेश जैव ऊर्जा विकास बोर्ड की तकनीकी मदद से सितम्बर २०१६ से ५००० घनमीटर बायोगैस बनाई जा रही है। इस गैस की आपूर्ति आसपास के कारखानों, दवाखानों तथा होटलों में की जाती है। गैस उत्पादन के बाद बचे कचरे से खाद बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं। गैस का बाजार मूल्य एलपीजी से कम बताया गया है। सिरसा (हरियाणा) के चार गांव (चकराईया, चक्रसाहिब, ओटू व मंगाला) के लगभग पांच सौ परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी धान की पराली से रस्सी (स्थानीय भाषा में सुब्बड) बनाते आ रहे हैं। पराली खरीद कर ये लोग तीन माह तक रस्सियां बनाते हैं एवं गेंहू की फसल कटते ही उसके बंडल बनाने हेतु बेच देते हैं। एक रस्सी की लम्बाई तीन से पांच फीट होती है जो दो से पांच रूपये में बिक जाती है। वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के वैज्ञानिक डॉ. अशोकन ने पराली को हाइब्रीड कम्पोजिट में बदलने की किफायती विधि की खोज की है जिसका अमेरिका तथा भारत में पेटेंट भी कराया जा चुका  है । हाईब्रीड कम्पोजिट से अलग-अलग लम्बाई-चैड़ाई की शीट्स (चादरें) बनायी जाती हैं जिनसे छत, दरवाजे, पार्टिशन, पेनल व टाइल्स बनायी जाती हैं। यह कार्य पिछले १५ वर्षांे से किया जा रहा है। दो-तीन वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ की कम्पनी ईको ब्राइट को शीट बनाने की तकनीक दी गयी है। महाराष्ट्र , गुजरात एवं पश्चिमी बंगाल में भी शीट निर्माण की ईकाईयां लगायी गयी हैं। पराली से पशुचारा बनाने के प्रयोग ज्यादा सफल नहीं हुआ है क्योंकि धान की पराली में लगभग ३० प्रतिशत सिलिका पाया जाता है जो पशुओं की पाचन-प्रणाली खराब करता है। किसी वैज्ञानिक विधि से सिलिका अलग कर दिया जावे तो पराली के पशुचारा बनाने की काफी सम्भावना है।
    दिल्ली के वायु-प्रदूषण की चिंता से दुबले होते नेता, संबंधित सरकारें एवं स्थानीय निकाय पराली के उक्त उपयोगी प्रयोगों, विधियों को व्यापक स्तर पर फैलाने के प्रति क्यों उदासीन हैं? सत्ता में बैठे लोग इस समस्या पर एक-दो माह हल्ला मचाने की बजाय योजनाएं बनाकर उन पर ईमानदारी से अमल करें तो किसान और प्रदूषण के अलावा पराली भी गाली-गलौच से बच सकेगी ।