शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

भोपाल गैस त्रासदी
जहरीली खेती से जुड़ा है, भोपाल गैस कांड
नरेन्द्र चौधरी

     लंबे, दुखद और तकलीफ देह ३५ साल गुजारने के बाद क्या हम यह कहने लायक हो पाए हैं कि अब कोई दूसरा भोपाल गैस कांड नहीं होगा ? जहरीले रासायनिक खादों, दवाओं और कीटनाशकों से लदी-फंदी आधुनिक कही जाने वाली खेती और उससे पैदा होने वाले अनाज को देखें तो ऐसा नहीं लगता।
    आज भी अपने चारों ओर खेती के लिए उसी जहर  का उत्पादन, उपयोग और असर दिखाई देता है जिसने साढ़े तीन दशक पहले हजारों निरपराधों को मौत की नींद सुलाया था और लाखों के जीवन को मौत जैसे संकट की चपेट में ले लिया था। क्या खेती की मौजूदा पद्धति को मिटाए बिना भोपाल गैस कांडो  से मुक्ति संभव है?  

    सर्दी की आहट के साथ दिसंबर का महीना एक और कारण से हमारे भीतर सिहरन पैदा करता है। दो-तीन दिसंबर १९८४ की दरमियानी रात को यूनियन कार्बाइड की भोपाल स्थित कीटनाशक फैक्ट्री के गैस-संग्रहण-टैंक से जहरीली मिथाइल आयसोसाइनेट (मिक) गैस का रिसाव हुआ था जिसने भोपाल को एक गैस-चेम्बर में बदल कर रख दिया था। इस गैस का उपयोग सेविन नामक एक अत्यधिक जहरीले कीटनाशक को बनाने में किया जाता था, जिसे यूनियन कार्बाइड की सहायक कंपनी डाउ केमिकल्स बनाती थी। विश्व इतिहास की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में दर्ज इस त्रासदी को पर्यावरणविद् और नवधान्य की संस्थापक वंदना शिवा दुर्घटना नहीं, ऐसा नरसंहार मानती हैं जो आज भी जारी है। इस दुर्घटना में ३००० निरपराध लोगों की तुरंत मृत्यु हो गयी थी, लगभग ८००० लोग कुछ ही दिनों में मौत की चपेट में आ गए थे और लाखों लोग घायल हुए थे जिनमें से कई आज भी तिल-तिलकर मरते जा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार पिछले तीन दशक में २०,००० से अधिक लोग इसके प्रभाव से मारे गए हैं।
    इस फेक्ट्री के आसपास का क्षेत्र व जलस्त्रोत प्रदूषित हैं और वहां के रहवासी आज भी भारी धातुओं, जैसे-आर्सेनिक, पारा, कैडमियम आदि से उत्पन्न प्रदूषण का खतरा झेल रहे हैं। हादसे में जीवित बचे लोग व उनके बच्च्े कैंसर, क्षय रोग (टीबी), जन्मजात विकृतियों और दीर्घकालीन स्वास्थ्य समस्याओं की पीड़ा झेल रहे हैं। इलाके की माताओं के दूध में पारा एवं विषाक्त पदार्थ खतरनाक स्तर तक पाए गए हैं। आज भी गर्भस्थ भ्रूण के विकास पर इस प्रदूषण का प्रभाव पड़ रहा है और विकृत बच्च्े पैदा हो रहे हैं।
    इस घटना के ३५ वर्ष हो जाने पर भी हम इस फेक्ट्री  से निकले कचरे के निपटारे का कोई रास्ता नहीं खोज पाए हैं। कम्पनी के  साथ समझौते के तहत जो मुआवजा मिला वह कंपनी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान, घायल एवं मारे गए लोगों की तुलना में नगण्य था।
    बात सिर्फ भोपाल में जहरीली गैस के रिसाव के  दुष्परिणामों तक ही सीमित नहीं है। इन कंपनियों के जहरीले उत्पादों से लोगों के बीमार होने, उनकी मृत्यु होने, पानी के प्रदूषित होने के खतरे पूरे देश पर मंडरा रहे हैं। इस  त्रासदी के  लिए जिम्मेदार कंपनी हमारी जान की कीमत पर पैसा कूट रही है और अपनी सहयोगी कंपनियों के साथ विलय और विघटन के हथकंडों के जरिए दुष्प्रभावोंकी भरपाई से भी बच जाती है। कृषि-रसायन बेचने वाली इन कंपनियों की शुरूआत ऐसे रसायनों के निर्माण के लिए हुई थी जिनका उपयोग हिटलर ने कंसन्ट्रेशन केंप और गैस चेंबर में लोगों को मारने के लिए किया था ।
    डाउ कंपनी ने प्रथम विश्व युद्ध में मस्टर्ड नामक एक विषाक्त  गैस बनाई थी जिसे रासायनिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया था। वियतनाम युद्ध में भी नॉपाम बम बनाकर सैनिकों व नागरिकों पर बेरहमी से प्रयोग किया गया था । इसी युद्ध में डाउ ने एजेंट ओरेंज नामक विषैला पदार्थ बनाया था जिसका उपयोग शत्रु देश की खाने योग्य फसलों को नष्ट करने में किया गया था।
    युद्ध समाप्त् होने के  बाद इन कंपनियों ने जहरीले रसायनों को खेती में उपयोग करना शुरु कर   दिया । इन रसायनों की दम पर की जाने वाली खेती से कुछ खाद्यान्नों का उत्पादन तथाकथित रूप से बढ़ा भी, किन्तु अब इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में भोजन के अधिकार विषय के प्रतिवेदक हिलाल एलवर के अनुसार कीटनाशकों के जहर के कारण प्रति वर्ष दो लाख मौतें होती हैं। कीटनाशकों के संपर्क में रहने से कैंसर, अल्जाइमर व पार्किंसंस रोग, हारमोन-असंतुलन, विकास संबंधी विकार और बांझपन की समस्या हो सकती है।
    किसानों, खेतिहर मजदूरों, गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों को इन रसायनों से अधिक खतरा होता है। खेती में उपयोग किए जाने वाले इन रसायनों के प्रभाव से होने वाली मौतें दुनिया में सभी कारणों से होने वाली मौतों का १६ प्रतिशत है। यह मलेरिया, टी.बी. और एच.आई.वी (एड्स), तीनों को मिलाकर होने वाली कुल मौतों से तीन गुना अधिक है और युद्ध तथा अन्य प्रकार की हिंसा से होने वाली मौतों से १५ गुना अधिक। एक अनुमान के अनुसार विषाक्त प्रदूषण असामयिक मृत्यु का अकेला सबसे बड़ा कारण है। एक तरह से समूची पृथ्वी को हमने जहरीले गैस चेंबर में बदल दिया है।
    इसके अलावा कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से भूमि और जलस्त्रोत प्रदूषित होते हैं, जैव-विविधता घटती है, कीटों के प्राकृतिक शत्रु नष्ट होते हैं और भोजन की पोषण-क्षमता कम हो जाती है। वर्ष २०१४ में हुए विश्व की ४५२ कीट-प्रजातियों के अध्ययन में पाया गया कि पिछले ४० वर्षों में कीटों की आबादी में ४५ प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई थी । अमेरिका की कृषि-भूमि मधुमक्खियों जैसे कीटों के लिए अब ४८ गुना अधिक जहरीली हो गई है। इस जहर से लाखों प्रजातियां विलुप्त् होने की स्थिति में हैं और प्रतिदिन २०० प्रजातियां समाप्त हो रही हैं।
    कंपनियां किसानों में यह भ्रम फैला पाने में सफल रही हैं कि इन रसायनों और अनुवांशिक रूप से परिवर्तित बीजों (जीएम) के बिना खेती संभव नहीं है। इस दुष्चक्र ने किसानों को कर्ज के जाल में फंसाकर आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया है। मध्यप्रदेश में किसानों द्वारा आत्महत्या डरावनी व स्तब्ध करने वाली है। लोकसभा में २०१८ में कृषि मंत्री द्वारा प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि किसान आत्महत्या के मामले में पूरे देश में मध्यप्रदेश तीसरे स्थान पर है।
    इन कम्पनियों ने खाद्य आपूर्ति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है जिससे गैर-सक्रामक बीमारियों, जैसे-हृदय व रक्त वाहिनियों संबंधी रोग, मधुमेह, कैंसर और दीर्घ अवधि के श्वास संबंधी रोग तेजी से फैल रहे हैं। इनमें ज्यादातर का संबंध बाजार के खाद्य-उद्योग के अस्वास्थ्यकर आहार से जुड़ा पाया गया है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान के अनुसार भारत में लगभग १३०० लोग प्रतिदिन कैंसर से मरते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष २०३० तक भारत में मधुमेह के १०.१ करोड़ रोगी हो जाएंगे।
    इन सारी बातों से हम समझ सकते हैं कि कैसे भोपाल की त्रासदी का परोक्ष रूप से पूरे देश में विस्तार हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष प्रतिवेदक की वर्ष २०१९ में मानवा-धिकार और हानिकारक पदार्थ एवं विषाक्त कचरे पर सामान्य सभा के सामने प्रस्तुत रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बात विशेष जोर देकर समझाई गयी है कि विषाक्त पदार्थों को रोकना हर देश का कर्तव्य है।
    जहरयुक्त खाद्य पदार्थों की रोकथाम से जीवन तथा स्वास्थ्य का अधिकार, आत्म सम्मान व गरिमा युक्त जीवन तथा शरीर की अखंडता आदि मुद्दे जुड़े हैं। रसायन-मुक्त खेती से हम बीज-स्वराज, अन्न-स्वराज, भू-स्वराज व जल-स्वराज के साथ-साथ किसान को आत्महत्या व कर्ज से मुक्ति दिला सकते हैं। भोपाल गैस त्रासदी में जीवन गंवाने वालों को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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