शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

जल जगत
जलधिकार: हकदारी और जिम्मेदारी
अरूण तिवारी

    मध्यप्रदेश में इन दिनों जलाधिकार अधिनियम की भारी धूम मची है और कहा जा रहा है कि विधानसभा के  शीतकाbीन सत्र में कमलनाथ सरकार इसे पारित भी करवा लेगी।
    चर्चा है कि मध्यप्रदेश, इन दिनों जलाधिकार अधिनियम बनाने में अव्वल आने की तैयारी में लगा है। राज्य सरकार ने हालांकि अधिनियम के प्रारूप को जन-सहमति के लिए अब तक सार्वजनिक भी नहीं किया है, लेकिन इसे विधानसभा के  शीतकालीन-सत्र में पेश करने की खबरें आनी शुरु हो गई हैं। ऐसे में जरूरी है कि जलाधिकार अधिनियम पर चर्चा कर ली जाए । अव्वल तो बादल, नदी, समुद्र, भूगर्भीय जल-वाहिनियां और हवा-मिट्टी की नमी पृथ्वी पर जल के सबसे बड़े भण्डार हैं। 
     यदि जलाधिकार अधिनियम बनाना हो, तो सबसे पहले इन प्राकृतिक भंडारों से छीने जा रहे स्वच्छ व पर्याप्त जल को वापस लौटाने का अधिनियम बनाना चाहिए। प्रकृति के इन विशाल जल-भण्डारों का जलाधिकार सुनिश्चित होते ही अन्य सभी का जलाधिकार स्वतः सुनिश्चित हो जाएगा । चूंकि प्राकृतिक जल-भण्डारों का जलाधिकार सुनिश्चित करने में मानव समेत सभी कृत्रिम जल भण्डारों का योगदान जरूरी है और योगदान सुनिश्चित करने के  लिए इन सभी का जीवित रहना भी जरूरी है।
    इस नाते कृत्रिम जलभण्डारों के जलाधिकार को प्राथमिकता सूची में दूसरे नंबर पर रखा जाना चाहिए । कम पानी व प्रदूषित पानी के कारण लुप्तप्राय श्रेणी में आ चुकी विभिन्न नस्लों के लिए जरूरी जलाधिकार सुनिश्चित करना, अधिनियम की प्राथमिकता नंबर तीन होना चाहिए। मानव समेत शेष सभी नस्लों का जलाधिकार, चौथी प्राथमिकता बनना चाहिए ।
    मध्यप्रदेश के तीन-चार हजार गांव और शहर मार्च-अप्रैल आते-आते सूखा-सूखा चिल्bाने लगते हैं। राज्य के 22 जिलों का भूजल स्तर 63.25 फीसदी नीचे गिर गया है। नर्मदा, शिप्रा, तापी, तवा, चम्बल, कालीसिंध जैसी नदियां बदहाल हैं। देश के कमोबेश हर राज्य के प्रमुख नगर आसपास के इलाकों के हिस्से का पानी खींचकर अपनी जरूरतों का इंतजाम करने वाले परजीवी बन गए हैं। ऐसे में जब जल-स्वावलम्बन ही नहीं, तो जलाधिकार का दावा कितना कारगर होगा ? यदि नल से पानी पिला रही नगरीय जलापूर्ति ही मानकों पर खरी नहीं उतर पा रही तो हर गांव-हर परिवार को नल कनेक्शन दे भी दिया, तो स्वच्छ जलापूर्ति की गारण्टी कैसे दे सकेंगे ?
    मध्यप्रदेश पिछले 15 वर्षों में अपनी जलप्रदाय परियोजनाओं पर 35 हजार करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। जवाहरलाल नेहरु राï­ीय शहरी नवीनीकरण मिशन, मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना,छोटे-मझोले नगरों की अधोसंरचना विकास योजना आदि के जरिए मध्यप्रदेश के धार, शहडोल, अमरकंटक, पिपरिया, इटारसी, शिवपुरी, होशंगाबाद समेत सभी नगरों में पेयजल परियोजनाओं का विस्तार किया गया है।
    ग्रामीण समूह जलप्रदाय योजना पर भी काम हुआ है। क्या ये योजना- परियोजनाएं घरेलू उपयोग लायक जल का अधिकार दे पाई ? राज्य के गांवों की 15787 नल-जल परियोजनाओं मेंसे 1450 पूरी तरह ठप्प हैं। 600 पर भूजल स्तर में गिरावट के कारण ताला लगाना पड़ा है। छोटे-बड़े 378 नगरों में से 120 में दिन में एक बार, 100 में एक दिन छोड़कर और 25 में दो-दो दिन छोड़कर जलापूर्ति हो पा रही है। वितरण में असमानता यह है कि भोपाल-इंदौर जैसे बड़े नगरों में प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन 180 लीटर जलापूर्ति हो रही है, तो दूसरी तरफ योजना (डीपीआर) बनाने वाली कंपनी के दिशा-निर्देश ही इटारसी के नल कनेक्शनधारी परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 70 लीटर तथा सार्वजनिक नलों से पानी लेने वाले परिवारों को 40 लीटर प्रति व्यºि , प्रतिदिन पानी मुहैया कराने के हैं।
    सरकारों ने जल-स्त्रोतों पर अपना हक जमाने और पानी का प्रबंधन खुद करने की सामुदायिक परम्परा को हतोत्साहित करने में मुख्य भूमिका निभाई है, किन्तु इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पानी प्रबंधन को लेकर बढ़ती हमारी परावलम्बी प्रवृति, जल संसाधनों पर सरकार और बाजार का कब्जा तथा जल के कुप्रबंधन को बढ़ाने वाली साबित हुई है।
    यही कारण है कि मध्यपद्रेश पंचायती-राज एवंग्राम-स्वराज अधिनियम-1993 के अनुसार गांवों में पेयजल प्रबंधन का दायित्व व अधिकार पंचायतों का होने के बावजूद, गांव बेपानी हुए हैं। ऐसे में यह जांचना जरूरी होगा कि मध्यप्रदेश जलाधिकार अधिनियम सभी समुदायों, पंचायतों, नगर-निगमों नगर पालिकाओं, उद्योगों तथा पानी बेचकर मुनाफा कमाने वालों समेत सभी को जलाधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हेतु बाध्य करता है अथवा नहीं ?
    ताजा जानकारी के मुताबिक जल उपलब्धता सुनिश्चित करने संबंधी सभी योजना -परियोजनाओं से संबंधित समस्त विधायी व वित्तीय अधिकार राज्य जल प्रबंधन प्राधिकरण के पास रहेंगे। पहले जल-शुल्क तय करने का अधिकार पंचायतों का था, किंन्तु मध्यप्रदेश नल-जल प्रदाय योजना, संचालन एवं संधारण नियम-2014 ने पंचायतों से उनका यह अधिकार छीन लिया है। कंपनियों के सामाजिक दायित्व (सीएसआर) की मद से प्राप्त धनराशि का 50 प्रतिशत तथा मनरेगा का 70 प्रतिशत हिस्सा जलाधिकार सुनिश्चित करने में खर्च करने की जानकारी भी अखबारों में छपी हैं। क्या इन प्रावधानों में जन-समुदायों की जिम्मेदारी का कोई भाव मौजूद  है ? यदि जिम्मेदारी नहीं देंगे, तो हकदारी की गारण्टी जन-समुदायों के हाथ में रहेगी, ऐसी आशा करना तर्कहीन होगा ।
    यदि जल-उपलब्धता का आश्वासन सिर्फ नल से जल तक सीमित है, तो क्या अधिनियम सुनिश्चित करेगा कि यह जल किफायती दरों पर उपलब्ध होगा ? जो पानी का बिल नहीं चुका सकेंगे उनके कनेक्शन काटे तो नहीं   जायेंगे ? जलापूर्ति में सतही जल-स्त्रोतों के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए आशंका व्यक्त की जा रही है कि जलापूर्ति करने वाली कंपनी जल-स्त्रोतों पर अधिकार की गारंटी चाहेंगी।
    ऐसे में गरीब-गुरबा, किसान सिंचाई जैसे अन्य उपयोगों के लिए उस स्त्रोत से पानी नहीं ले सकेगा। पानी लेने केलिए उसे कंपनी द्वारा तय दर पर भुगतान करने की बाध्यता होगी। पानी के निजीकरण का अध्ययन करने वाली संस्था मंथन अध्ययन केन्द्र, बड़वानी ने जलप्रदाय के गलत आधार, त्रुटिपूर्ण डीपीआर, टेण्डर प्रक्रिया में घालमेल, लागत में अतार्किक वृद्धि, सलाहकार नियुक्ति में पक्षपात, असफल जलापूर्ति जैसे जमीनी तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि जलापूर्ति का पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट-र्पाअनरशिप) मॉडल पूरी तरह असफल साबित हुआ है।
    राज्य सरकार को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जलाधिकार गारंटी के नाम पर यदि जल-स्त्रोत को किसी निजी कंपनी या संस्थान को एक बार लीज पर दे दिया गया, तो आगे चलकर स्थितियां स्वयं सरकार के हाथ से निकल जाएंगी। यूं भी वे कैसे भूल सकते हैं कि सरकार, प्राकृतिक संसाधनों की मालकिन नहीं, सिर्फ  ट­स्टी भर है। ट­स्टी का कार्य देखभाल करना होता है, वह संसाधनों को किसी अन्य को सौंप नहीं सकता। हां, यदि  ट­स्टी ठीक से देखभाल न करे, तो उसे ट­स्टीशिप से बेदखल जरूर किया जा सकता है।
    ट­स्टीशिप के अंतराï­ीय सिद्धांत का मूल यही है। आखिरकार, व्यास नदी की धारा पर अतिक्रमण करने के जिस मुकदमे (एम.सी. मेहता बनाम कमलनाथ) के फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने इस सिद्धांत को समर्थन दिया था, वह स्वयं कमलनाथ जी से संबंधित कंपनी स्पेम मोटल  प्रा. लि. से संबंधित था।              

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