शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

जनजीवन
विस्थापन का जवाब विद्यालय
बाबा मायाराम

    मध्यप्रदेश में आदिवासी बहुल अलीराजपुर जिले में नर्मदा-तट के गांव ककराना को भी, आसपास के कई गांवों की तरह, सरदार सरोवर परियोजना की डूब का सामना करना पडा था, लेकिन इलाके में सक्रिय खेडूत मजदूर चेतना संगठ  से जुडे कुछ युवाओं ने अपने साथी स्व. कैमत गवले की अगुआई में इसका जबाव शिक्षा से देना तय किया।
    पांच पडौसी गांवों ने रानी काजल जीवनशाला की स्थापना की और अपने बच्चें को शिक्षा की मार्फत जीवन जीने की कला सिखाने का बीडा उठाया।

    जब हमारे घर, गांव और जमीन सरदार सरोवर बांध की डूब में आ रहे थे, तब बार-बार जमीन खाली करने के लिए सरकारी नोटिस आते थे, लेकिन हम उन्हें पढ़ नहीं पाते थे, क्योंकि हम में से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था, उसी समय हमें अपने बच्चें को पढ़ाने की जरूरत महसूस हुई। हमने सोचा हमारी तो जिंदगी कट गई लेकिन बच्चें को पढ़ाना जरूरी है। इसलिए हमने स्कूल शुरू किया। यह भगतसिंह डाबर थे जो मुझे आदिवासी बच्चें के स्कूल के बारे में बता रहे थे। वे स्कूल के शिक्षक हैं। पश्चिमी मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में स्थित यह स्कूल सरदार सरोवर परियोजना के जलभराव की डूब से प्रभावित गांव में है। जब यहां के आदिवासियों के घर, जमीन डूब में चली गई, रोजगार के मौके कम हो गए तो एक दलित युवक कैमत गवले और कुछ गांव वालों ने मिलकर तय किया कि वे कहीं नहीं जाएंगे और यहीं रहकर बच्चेंका जीवन बेहतर बनाएंगे। उन्हें पढ़ाएंगे, इसके  लिए स्कूल  खोलेंगे।
    कैमत गवले की अगुआई में पांच गांवों-भादल, भिताड़ा, ककराना, झंडाना और सुगट के लोगों ने २० अगस्त २००० को रानी काजल जीवनशाला शुरु करने का निर्णय लिया था। कैमत पहले इस इलाके में सक्रिय आदिवासियों के खेड़ूत मजदूर चेतना संगठ से जुड़े थे। यहां के अधिकांश बाशिंदे आदिवासी हैं, जिनमें भील, भिलाला, नायक, बारेला, मानकर और कोटवाल शामिल हैं। यह देश के सबसे कम साक्षरता वाले जिले में से एक है।
    सवाल है कि जब सरकारी स्कूल सभी जगह हैं तो इस स्कूल की जरूरत क्यों पड़ी ? प्राचार्य निंगा सोलंकी और शिक्षक भगतसिंह डाबर बताते हैं कि सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में भील संस्कृति को कोई जगह नहीं है। उनकी भीली और भिलाली भाषा को पाठ्यक्रमों में कोई स्थान नहीं हैं। न उनमें बच्चें की दादी-नानी की कहानियां हैं और न ही उनकी बोली, भाषा के मुहावरे और कहावतें । इसलिए बच्च्े स्कूली पाठ्यक्रम से जुड़ नहीं पाते । वे आगे कहते हैं कि ज्यादातर सरकारी स्कूलों में एक-दो शिक्षक हैं और वे भी शहर से आते हैं। यहां पहुंच-मार्ग नहीं है और कई बार शिक्षक आते भी नहीं हैं। इस कारण बच्च्े शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इसलिए ऐसे स्कूल की जरूरत थी, जिसमें शिक्षक-छात्र साथ रहें और उनकी बोली, भाषा में पढ़ाई हो।
    सबसे पहले गांव के  स्वास्थ्य केन्द्र में स्कूल शुरू  हुआ था। बाद में कुछ समय पंचायत भवन में लगने के बाद डेढ़ एकड़ जमीन खरीदकर खुद का स्कूल बनाया  गया । स्कूल निर्माण के लिए गांव-गांव से चंदा किया गया। लकड़ी, खपरैल, ईंटें सभी अभिभावकों ने दीं और श्रमदान से स्कूल तैयार हुआ । स्कूल कल्पांतर शिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र के नाम से पंजीकृत है। आठवीं तक के इस स्कूल में २१२ बच्च्े हैं जिनमें लड़कियां भी शामिल है। यह एक आवासीय स्कूल है। लड़कों का होस्टल, लड़कियों का होस्टल, १० शिक्षकों के आवास के लिए कमरे, अतिथि-कक्ष, कार्यालय, रसोईघर, पुस्तकालय समेत हरा-भरा परिसर है। यहां २००५ से बिजली भी है और सौर-ऊर्जा का विकल्प भी ।
    रानी काजल, जिनके नाम पर स्कूल को पहचान दी गई है, आदिवासियों की प्रमुख देवी हैं। मान्यता है कि समुद्र से वर्षा लाने वाली यह देवी संकट व महामारी से लोगों की रक्षा करती हैं। हर साल सितंबर-अक्टूबर में रानी काजल के स्थल पर उनकी पूजा की जाती है। यह एक प्रतीक है जो बच्चें को उनकी परंपरागत भील संस्कृति का बोध कराती है, उससे जोड़ती है और उनकी पहचान को कायम रखती है। रानी काजल जीवनशाला में पढ़ाई की ऐसी नवाचारी संयुक्त तकनीक विकसित की गई है जिसमें भिलाली शब्दों को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। उसे बच्च्े आसानी से समझते भी हैं और हिन्दी पढ़ना-लिखना भी सीखते हैं। तीसरी कक्षा तक भीली, बारेली और भिलाली भाषा में बच्चेंको पढ़ाया जाता है।
    यहां शिक्षा के मानदंड ऐसे हैं जिसमें बच्चें को आदिवासी इतिहास, गांव व कृषि संस्कृति की समझ होती है। आधुनिक शिक्षा के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि वे समाज और परिवार के काम-धंधों में अपनी भूमिका निभाएं । उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित हों जो उनकी समृद्ध संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान से जोड़े और जंगल, जैव-विविधता और पर्यावरण की विरासत को सहेज सके । स्कूली पढ़ाई के अलावा यहां कई तरह की गतिविधियों के माध्यम से भी शिक्षा दी जाती है। स्कूल-परिसर में प्रत्येक बच्च्े का एक पौधा होता है, जिसे वह रोपता है और उसकी देखभाल करता है। यहां शीशम, नीम, आम, नींबू, बरगद, बांस, सागौन, अमरूद, बेर, बादाम, शहतूत आदि के पेड़ हैं।
    परिसर में भिंडी, ग्वारफली, करेला, लौकी, मिर्ची आदि तरकारियों (सब्जी) की खेती की जाती है। यहां देसी बीजों की पारंपरिक खेती के बारे में बताया जाता है और पुराने देसी अनाजों की पहचान कराई जाती है। इसके  अलावा बच्च्े ऊन के पर्स, थैले, मालाएं, घरों की साज-सज्जा के लिए झालर और मिट्टी के खिलौने, दीवारों पर चित्रकला, कलाकृतियां आदि बनाते हैं। स्कूल में हर शनिवार बालसभा होती है । स्कूल की व्यवस्था को चलाने के लिए कई तरह की जिम्मेदारियां बच्चों को दी गई हैं। जिसमें स्वास्थ्य-मंत्री, खेलमंत्री, पर्यावरण-मंत्री, सफाई-मंत्री आदि बनाए जाते हैं। स्वास्थ्य-मंत्री का काम होता है, किसी बच्च्े की तबीयत खराब होने पर उसके इलाज की व्यवस्था करना, खेलमंत्री बच्चेंके खेल की व्यवस्था करता है, पर्यावरण-मंत्री पौधों की देख-रेख और सफाई-मंत्री परिसर की साफ-सफाई की व्यवस्था संभालता है। पुस्तकालय में पढ़ाई पाठ्यक्रम का हिस्सा है। एक बार यहां के बच्चें ने ऊर्जा के  वैकल्पिक स्त्रोत पर पवन-चक्की का माडल भी बनाया था जिसे उन्होंने ज्वार के पौधे के डंठल व ताड़ के सूखे पत्तों से तैयार किया था। पवन-चक्की में न विस्थापन होता है और न ही जंगल डूबते हैं, जबकि सरदार सरोवर में उनके गांव, घर के आसपास का जंगल व जमीनें डूब गई थीं।
    रानी काजल जीवनशाला की वार्षिक फीस ८००० रूपए है, जिसे दो किस्तों में लिया जाता है। इसके साथ ५० किलो अनाज (गेहूं, मक्का, बाजरा, जो भी घर में हो), पांच किलो दाल भी देना होता है। स्कूल के प्राचार्य निंगा सोलंकी ने बताया कि करीब २५ प्रतिशत बच्चेंके अभिभावक गरीबी के कारण फीस नहीं दे पाते। वे मजदूरी करने पलायन कर जाते हैं। लड़कियों के लिए शिक्षा मुफ्त है ताकि वे अधिक संख्या में पढ़ सकें । स्कूल की व्यवस्था के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत चंदा भी मिलता है। कुछ संस्थाएं मदद करती हैं। यह सब स्कूल के संचालक कैमत गवले करते थे। उनकी मृत्यु के बाद स्कूल के मौजूदा शिक्षकों पर यह सामूहिक जिम्मेदारी आ गई है।
    इस स्कूल की उपलब्धियों में ऐसे बच्च्े शामिल हैं जो अच्छे पदों व उत्कृष्ट विद्यालयों में गए हैं। नास्तर बण्डेडिया (ककराना) तो मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर चयनित हुए हैं और फिलहाल वे जल-संसाधन विभाग में पदस्थ हैं। दो छात्र अब इसी स्कूल में शिक्षक हैं-मांगसिंह सोलंकी और कांतिलाल सस्तिया। कुछ छात्र स्नातकोत्तर कक्षाओं में पहुंचकर शोध कर रहे हैं। स्कूल की इससे भी बड़ी उपलब्धि है, आजाद भारत में आदिवासियों की पहली पीढ़ी का साक्षर होना और देश-दुनिया को जानने-समझने का नजरिया विकसित होना।
    यह स्कूल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पलायन करने वाले पालकों के बच्चें को पढ़ने का मौका दिया जाता है। आमतौर पर बच्च्े अपने मां-बाप के साथ पलायन कर जाते हैं और शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। शायद इसलिए हर वर्ष यहां पालकों में बच्चेंको स्कूल में दाखिला दिलवाने की होड़ लगी रहती है।
    यह एक ऐसा स्कूल है जिसे स्थानीय लोगों द्वारा, स्थानीय लोगों के लिए, स्थानीय संसाधनों, स्थानीय ज्ञान और संस्कृति से जोड़कर चलाया जा रहा है। यहां सिर्फ स्कूली पाठ्यक्रम को ही प्रमुखता नहीं दी जाती, बल्कि आसपास के वातावरण, हाथ के काम से प्राप्त्  अनुभव, पीढ़ियों से चले आ रहे पारंपरिक ज्ञान से भी सीखा जाता है। हाथ के काम को हेय दृष्टि से नहीं, बल्कि  जीवन के लिए जरूरी व सम्मान की दृष्टि से देखने की समझदारी विकसित की जाती है। इसका असर यह है कि बच्च्े  आधुनिक शिक्षा पाकर भी पारंपरिक खेती-किसानी के काम-धंधों में हाथ बंटाते हैं और समाज में अपनी भूमिका तलाशते हैं। उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित करने पर जोर दिया जाता है ताकि वे अपनी संस्कृति व विरासत को सहेज सकें । यह स्कूल  एक स्तंभ है, जो शिक्षा के माध्यम से एक उम्मीद जगा रहा है।         

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