मंगलवार, 25 मई 2010

१२ कविता

मेरा शहर

डॉ. किशोरी लाल व्यास

मेरा शहर---
बाग़ बगीचों को
हरे भरे उपवनों को
पारदर्शी सरोवरों को
खेल मैदानों को
चबाकर
कचड्... कचड् खा रहा है
और लोहे-सीमेंट की
गगन चुंबी अट्टालिकाएं
उगा रहे !
आक्टोपस-सा/बढ़ता ही आ रहा है ।

मेरा शहर
चिमनियों-वाहनों के धुएं में
अपने घाव, अपने नासूर
छिपा रहा है
और गर्द-गुबार में
धूल मे लिपटा खाँस रहा है !
मेरे शहर के उदर में
कूडे-कर्कट के ढ़ेर
उग आये हैं
कुकुरमुत्ते की तरह
और इसके फेंफडों में
रेंगते है
राजयक्ष्मा के अदृश्य कीटाणु ।
मेरे शहर की रगों में
दौड़ती है गंध भरी नालियाँ
और निश्वास में
फूट पड़ता है ज़हरीला प्रदूषण ।

मेरे शहर के बच्च्े
खाँसते है
खाते है, टी.वी. देखते है
खेलते नहीं
खेलेंगे भी कहाँ
सारे मैदान/सारे बाग बगीचे/सरोवर-तड़ाग
गगन चुम्बी अट्टीलिकाआें में
हो गये है तब्दील।

टूटने की हद तक
बोझ ढो रहा है
मेरा शहर !

बिसुर रहा है
विधवा-सा
श्रीहीन होकर
रो रहा है मेरा शहर !
***

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