शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

महानगर

दिल्ली में कचरा प्रबंधन की चुनौतियां
नील टेंगरी/धर्मेश शाह

कचरे से बिजली बनाने के लिए दिल्ली में बनाई जा रही परियोजना समाधान की बजाए समस्याएं अधिक खड़ी करेगी । इससे प्रदूषण, बेरोजगारी में वृद्धि तो होगी साथ ही संसाधनों का पुर्नचक्रीकरण न होने से प्राकृतिक संसाधनों पर भी भार बढ़ेगा ।
कचरा प्रबंधन का प्रमुख कार्यक्रम स्वच्छ विकास प्रबंध (सीडीएम) भारत में अपनी कारपोरेट झुकाव और तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता के कारण धराशायी हो गया है । यह कार्बन क्रेडिट प्रणाली के मोर्चे पर भी असफल सिद्ध हुआ है जिससे कि जलवायु परिवर्तन में इस कार्यक्रम की भूमिका भी न्यूनतम हो गई है ।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी को ध्यान में रखते हुए क्योटो प्रोटोकॉल में इसे लेकर लचीली व्यवस्था की गई थी । सीडीएम के अन्तर्गत उत्सर्जन में कमी (या समाप्त्) करने वाली परियोजनाआें के तहत विकासशील देश अधिमान्य उत्सर्जन में कमी हेतु क्रेडिट अर्जित कर सकते थे । इस क्रेडिट को औद्योेगिक देशों को बेचा जा सकता है जो कि इसका इस्तेमाल क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत उत्सर्जन में कमी लाने की उनकी सीमा को प्राप्त् करने में करेंगे ।
बड़ते शहरीकरण की वजह से विकासशील देशों में कचरा प्रबंधन एक समस्या बन गया है और कचरे की मात्रा में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है । इसी के साथ शहरी कचरे का स्वरूप भी बदल रहा है और इसमें प्लास्टिक व इलेक्ट्रॉनिक्स की बहुतायत होती जा रही है । भारत की राजधानी दिल्ली में प्रतिदिन ७००० टन कचरा निकलता है ।
यदि असंगठित क्षेत्र के माध्यम से कचरे को निपटाने की व्यवस्था नहीं होती तो स्थितियां और भी बद्तर हो जाती । इस कार्य में एक लाख कचरा बीनने वाले मदद करते हैं । वे कचरे में से काम में आ सकने वाले धातु, कागज, कार्ड बोर्ड और प्लास्टिक को अलग करते हैं । इन्हें साफ करके उद्योग को बेचा जाता है जो कि इसे अपनी नए उत्पाद हेतु कच्च्े माल की तरह इस्तेमाल करता है । दिल्ली की रिसायकलिंग (पुन:चक्रण) अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत १६०० टन कचरा प्रतिदिन प्रयोग में आता है । यानि कि कुल कचरे का करीब १५ से २० प्रतिशत । कचरा बीनने वालों की वजह से नगर निगम को अपनी परिचालन लागत में प्रतिदिन ६५८००० रूपये और वार्षिक करीब २४ करोड़ रूपए की बचत होती है । इस अनौपचारिक सियायकल क्षेत्र में कचरा प्रबंधन के सबसे बड़े हिस्से जैसे खाद्य सामग्री और अन्य जैविक पदार्थ काम में नहीं आते । इसे नगर निगम इकट्ठा कर भराव वाले क्षेत्रों में ले जाती है । परिणामस्वरूप बदबू, कीड़े-मकोड़े, आग और जहरीलेपन की समस्याएं सामने आती हैं । इससे जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों को ठेस पहुंचती है । परन्तु दिल्ली का अनुभव बताता है कि कारपोरेट पहल वाला उच्च् तकनीक वाला कचरा प्रबंधन कमोवेश असफल ही सिद्ध हो गया है ।
नवम्बर २००७ में सीडीएम कार्यकारी बोर्ड ने करीब २०५० टन प्रतिदिन कचरा, जो कि दिल्ली का करीब एक चौथाई होता है, के निपटान के लिए तिमारपुर-ओखला वेस्ट मैनेजमेंट कंपनी का दो सुविधाआें हेतु पंजीयन किया । इसके अन्तर्गत कचरे को सुखा कर उसके टुकड़े करके उसे एक रेशे बनाने वाली प्रक्रिया के माध्यम से बायलर में ले जाकर उससे बिजली निर्माण की योजना थी । घोषणा के बाद स्थानीय निवासियों, कचरा बीनने वालों और पर्यावरणविदों के कान खड़े हुए क्योंकि यह कोई पहला भस्मक नहीं था जो कि तिमारपुर में स्थापित होने जा रहा था ।
इससे पहले सन् १९८७ में नवीनीकरण एवं रिन्युबल ऊर्जा विभाग तिमारपुर में २५ करोड़ की लागत से भस्मक सह बिजली संयंत्र प्रारंभ कर चुका था । जिसकी क्षमता प्रतिदिन ३०० टन कचरे से ३.७७ मेगावाट बिजली तैयार करने की थी । संयंत्र ने २१ दिन का परीक्षण संचालन भी किया लेकिन कचरे की गुणवत्ता ठीक न होने से संयंत्र को बंद करना पड़ा । भारत के कचरे में जैविक पदार्थ अधिक होते हैं और कागज, प्लास्टिक, कार्ड बोर्ड आदि कम। धनी देशों के मुकाबले भारत में इस तरह का कचरा भी कम ही उत्सर्जित होता है । परन्तु सरकारी अफसरों में इससे सबक नहीं सीखा ।
चार्टर के अनुसार सीडीएम केवल उन्हीं परियोजनाआें की सहायता करेगा जो कि सुस्थिर विकास में सहायक होगी । लेकिन इसकी निगरानी की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सरकारों की है और भारत में इसका जिम्मा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय पर है ।
यदि परियोजना वास्तव में दिल्ली का एक चौथाई कचरे का निपटान करेगी तो राजधानी के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत अनेकों रिसायकलिंग कर्मचारियों की जीविका ही छिन जाएगी क्योंकि इस भस्मक को चलाने के लिए बड़ी मात्रा में प्लास्टिक, कागज, कोर्डबोर्ड लगेगा । यही वह मूल्यवान वस्तुएं है जो कि अनौपचारिक क्षेत्र के काम आती है । इसके दृष्टिगत दिल्ली के कचरा बीनने वालों ने संघर्ष प्रारंभ कर दिया और पहली बार इनके अधिकारों के लिए कार्यरत समूहों व पर्यावरणविदों ने भी इनका साथ दिया ।
वहीं दूसरी तरफ भारत के बड़े कारपोरेट घराने इस परियोजना के माध्यम से सिर्फ कार्बन क्रेडिट बेच कर ३७० लाख अमेरिकी डॉलर की कार्बन क्रेडिट कमाएंगे । इस परियोजना से आई.एल.एण्ड एफ.एस. एवं जिंदल के साथ सार्वजनिक कंपनियां जैसे आंध्रप्रदेश तकनीक विकास केन्द्र भी लाभ कमाएंगे । लेकिन इन्हेंलाभ अंतत: कचरा बीनने वालों की हानि से ही होगा ।
अपनी ही गणना के अनुसार तिमारपुर ओखला परियोजना २६२७४१ टन कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में कमी करेगी । दिल्ली से प्रतिवर्ष करीब ९६२१३३ टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है । वास्तविकता यह है कि इससे तो उतनी ही कार्बन क्रेडिट प्राप्त् होगी जितनी की दिल्ली स्वयं उत्सर्जित करती है । अतएव सीडीएम ने बिना किसी गणना के बड़ी मात्रा में कार्बन क्रेडिट आवंटित कर दी । यूरोप कार्बन क्रेडिट का सबसे बड़ा खरीददार है और उनके अपने ही नियम है जो इस तरह की योजना के अनुकूल नहीं हैं । यदि इस प्रक्रिया में पुर्नचक्रण वाले ईधन की खपत बढ़ाई गई तो स्थितियां और भी बद्तर हो जाएंगी ।
बायो जैविक, उत्सर्जन की मात्रा में बढ़ोत्तरी से स्थितियां और भी खराब हो सकती है । सीडीएम साधारणतया कंपनियों के इस दावे को मान लेता है कि जैविक उत्सर्जन घातक नहीं है लेकिन वैज्ञानिकों की सोच इसके ठीक विपरीत है । यदि तिमारपुर की बात करें तो यहां जलने वाले कचरे में से मात्र १६ प्रतिशत से कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन बताया गया है और ८४ प्रतिशत को जैविक उत्सर्जन की श्रेणी में रखा गया है ।
सीडीएम को प्रस्तुत रिपोर्ट में कंपनी ने कहा है कि परियोजना में पड़ौसियों की भूमिका लाभ प्राप्त्कर्ता की होगी तथा इससे स्थानीय व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलेगा । परियोजना में किसी भी समुदाय को विस्थापित करने का कोई प्रयास नहीं है । जबकि वास्तविकता यह है कि यह कचरा बीनने वालों को विस्थापित करेगा । यह परियोजना स्थानीय निवासियों का भी तगड़ा विरोध का सामना कर रही है क्योंकि इसकी स्थापना नजदीकी निवास स्थानों से मात्र १०० मीटर की दूरी पर होगी और इसके आसपास तीन अस्पताल भी स्थित है । निवासियों की चिंता स्वाभाविक है क्योंकि भस्मक से जहरीली गैस निकलेगी । दिसम्बर २०१० में ब्रिटेन के वेल्स में ऐसे ही एक भस्मक को बंद करना पड़ा है और अमेरिका में भस्मक परिचालक उत्सर्जन कानून के उल्लघंन के आरोप में लाखों डॉलर का दंड भर रहे है ।
अनेक राष्ट्रीय कानूनों के उल्लघंन के बावजूद दिल्ली सरकार इसको बढ़ावा दे रही है । अंतत: पर्यावरण और वन मंत्रालय ने हस्तक्षेप कर इस परियोजना की समीक्षा हेतु एक विशेषज्ञसमिति का गठन भी किया है ।
कचरा क्षेत्र के निजीकरण के अलावा भी कई विकल्प मौजूद है । मुम्बई एवं पूणे में स्थानीय शासन की मदद से स्त्रोत पर छटाई की व्यवस्था में सफलता पाई गई है । कचरे में ७० प्रति जैविक पदार्थ हैं जिससे कि मिथेन गैस के उत्सर्जन से बचते हुए कम्पोस्ट खाद बनाई जा रही है । इससे आमदनी का नया जरिया भी सामने आ रहा है । इस तरह की संरचनाआें के निर्माण से स्थानीय निवासियों, नगरपालिका इकाइयों एवं शहरी गरीबों, सभी को फायदा मिलता है लेकिन विशाल बहुराष्ट्रीय फर्मो की भागीदारी की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है ।

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