गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

कविता
धरती माँ का धानी चीर
डॉ. गार्गीशरण मिश्र मराल

हरे भरे जंगल ही तो है धरती मां का धानी चीर । 
पवन चले तो लहराता यह धरती मां का धानी चीर । 
धरती मां ने पाला हमको
हमने उसका चीर हरा,
बेरहमी से जंगल काटे
वन-जीवन में दर्द भरा,
सोचा नहीं बढ़ेगी इससे जग के हर प्राणी की पीर । 
धरती बंजर हो जायेगी नहीं गिरेगा नभ से नीर । 
गर्म हवाआें की लपटों से,
झुलसेगा सारा संसार,
बढ़ जायेगा और अधिक जो
धरती मों को चढ़ा बुखार,
प्यासी धरती, प्यासे प्राणी खे देंगे सब अपना धीर । 
तड़प उठेंगे जन, पशु पक्षी खाकर सब अकाल का तीर । 
हिम शिखरों की बर्फ गलेगी,
जल बनकर पहुँचेगी सागर,
सागर तट के घर डूबेंगे
उफनेगी सागर की गागर,
मौत करेगी ताण्डव सब की लुट जायेगी धन-जागीर । 
वृक्ष लगाकर, वन सरसाकर, चले सँवारो जग-तकदीर । 

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