शनिवार, 20 जनवरी 2007

जी.एम. फसलों में नये मापदंडों की जरुरत

कृषि जगत

-सौरव मिश्रा

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार २२ सितंबर २००६ को अपने अन्तरिम आदेश में देशभर में सभी प्रकार के जीन संवर्धित (जी.एम.) फसलों के खेत परीक्षण पर रोक लगा दी है। इसके साथ ही उन्होंने नियामक प्रणाली को भी खरी-खोटी सुनाई है।

इसका यह अर्थ हुआ कि केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के अंतर्गत नियामक प्राधिकारी जीव संवर्धित अनुमोदन कमेटी (जी.ई.ए.सी.) अब न्यायालय के अंतिम आदेश के आने तक किसी भी जीन संवर्धित फसल के खेत परीक्षण की अनुमति नहीं दे सकती । यह आदेश अर्थशास्त्री अरुणा रोड्रिग्स और अन्य विशेषज्ञों की एक जनहित याचिका पर दिया गया है। याचिकाकर्ताआें में से एक विशेषज्ञ देवेन्दर शर्मा ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि जी.एम. नियामक में आमूलचूल परिवर्तन लम्बे समय से टल रहा था।

न्यायालय ने जी.ई.ए.सी. को निर्देशित किया है कि वह विशेषज्ञों की एक समिति बनाये जो कि जीन संवर्धित फसलों को जारी करने के सभी विषयों पर गहराई से विचार करें। दिशा निर्देशों का पालन करते हुए जी.ई.ए.सी. ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति दीपक पेंटल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर दिया है। जी.एम. विरोधी सक्रिय समूह इस नियुक्ति से प्रसन्न नहीं है। उनका कहना है कि दीपक पेंटल जी.एम. फसलों के प्रबल प्रोत्साहनकर्ता हैं। उनका केन्द्र कई जी.एम. खाद्य फसलें विकसित करने का प्रयास कर रहा है। अतएव उनके निर्णय पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं। वहीं हैदराबाद स्थित सेन्टर फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर की कविता कुरुगन्थी कहती हैं, चँूकि अधिकांश सदस्य जी.ई.ए.सी. की समित से ही हैं तो इसका यही अर्थ निकाला जा सकता है कि फिर वही पुरानी कहानी दोहरायी जाएगी।

जी.एम. फसलों की इस सत्ता का बचाव करते हुए कमेटी के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना है कि भारत विश्व में पहला देश था जिसने कि सन् १९८९ में जी.एम. फसलों के लिये तब दिशा निर्देश बनाये थे। जबकि जी.एम. का विषय अपने प्रारंभिक विचार विमर्श में ही था। भारत के जी.एम. नियामक पूरे विश्व में सबसे कठोर माने जाते हैं जिसमें कि जी.ई.एम.सी. सहित पांच वैधानिक संस्थाएं शामिल हैं।

न्यायालय का निर्णय लोक संगठनों द्वारा जी.एम. निर्धारण के विरुद्ध चलाये गये वृहद अभियान के परिणाम स्वरुप आया है। इस अभियान ने जी.ई.ए.सी. द्वारा बी.टी. बैंगन के खेत परीक्षण की अनुमति देने के बाद और भी जोर पकड़ा। वैसे अब तक देश में जी.एम. कपास ही एकमात्र स्वीकृत वाणिज्यिक फसल है। इसके अतिरिक्त बैंगन सहित ७० अन्य फसलें अभी उपरोक्त कमेटी के अनुमोदन के इंतजार में है।

बी.टी. कपास का पर्यावरण और जानवरों की सेहत पर पड़ने वाला प्रभाव लम्बे समय से चर्चा में रहा है। सन् २००५ और २००६ में तो आंध्रप्रदेश से भेड़ों की मौत की भी खबर आई थी। इसी के साथ मनुष्यों पर होने वाले प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्रालय के जैव-तकनीक विभाग के निदेशक टी.रमन्ना का कहना है कि यदि बी.टी. कपास के तेल को संवर्धित नहीं किया गया तो वह जहरीला हो जाएगा। साथ ही आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में इसने किसानों पर जो कहर ढाया है वह सर्वविदित है।

नागपुर स्थित केन्द्रीय कपास शोध संस्थान में शोधकर्ता के.आर.क्रांति के अनुसार देश का बी.टी. कपास अमेरिका के बी.टी. कपास की तुलना में १० गुना अधिक कीड़ों से प्रभावित होता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए याचिकाकर्ताआें का कहना है, कि अमेरिका की बनिस्बत बी.टी. कपास का १० गुना कम प्रभावशाली होना अन्तत: नियामक प्राधिककारी की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इस संदर्भ में जीन संवर्धन पुनर्विचार समिति (आर.सी. सी.एम.) भी जी.ई.ए.सी. के साथ एक नियामक प्राधिकारी है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मई २००६ के निर्णय में न्यायालय ने कहा था कि इस संबंध मे जी.ई.ए.सी. ही एक मात्र नियामक प्राधिकारी होगी। खेतों में परीक्षण के संबंध में पुनर्विचार कमेटी के हितों को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय दिया गया था क्योंकि वह भी खेतों में परीक्षण करती है और जीन संवर्धित फसलों में उसका हित भी छुपा हुआ है। ऐसे में पूरी उम्मीद है कि उसके विचार प्रक्षपातपूर्ण हो सकते हैं। इसी के साथ सक्रिय समूहों का यह भी मानना है कि किसी भी किस्म को जारी करने में जी.ई.ए.सी. मात्र रबरस्टांप की भूमिका निभाती है।

परंतु विशेषज्ञ इस तर्क से सहमत नहीं है। उनका कहना है कि पुनर्विचार कमेटी की स्थापना तो जी.ई.ए.सी. को तकनीकी सहयोग देने के लिये ही की गई थी। समिति के सभी २० सदस्य अपने क्षेत्र के उद्भट विशेषज्ञ हैं और देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से आए हैं। इसी संदर्भ में भारत के जी.एम. विरोधियों का कहना है यह नियामक भी अमेरिका के उद्योगों से चलित नियामक जैसा ही है। परंतु एक वरिष्ठ सदस्य के अनुसार भारतीय पुनर्विचार कमेटी में केवल वैज्ञानिक ही हैं, एक भी व्यक्ति उद्योग से नहीं है जैसा कि अमेरिका में होता है। परंतु इस विवाद का एक और कोण भी है। वह है भारत के कपास क्षेत्र में प्रयुक्त ६० प्रतिशत से अधिक हिस्सा नवभारत १५१ बी.टी. कपास है जिसे कि ५ वर्ष पूर्व ही जी.ई.ए.सी. ने प्रतिबंधित कर दिया था।

नवभारत १५१ के विकास करने वाले एन.पी. मेहता का कहना है कि दुर्भाग्य से उन किस्मों को बढ़ावा दे रहे हैं जिनकी वजह से किसान आत्म हत्या को मजबूर हैं, दूसरी ओर जिसके माध्यम से किसानों के पास ४५०० करोड़ रुपया आया उसे प्रतिबंधित कर रहे हैं। ***

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