शनिवार, 31 मार्च 2007

प्रदूषण खात्मे की तरकीब बताने पर 1 अरब मिलेंगे

10 पर्यावरण परिक्रमा

प्रदूषण खात्मे की तरकीब बताने पर 1 अरब मिलेंगे

पर्यावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड को ठिकाने लगाने की तरकीब निकालने वाले को 2.5 करोड़ डॉलर (लगभग 1.09अरब रुपए) का इनाम मिलेगा। यह घोषणा अर्थ चैलेंज वर्जिन एयरलाइंस के प्रमुख सर रिचर्ड ब्रेनसन और अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर ने मिलकर की है।

वाहनों की बढ़ती संख्या से भी यह गैस बढ़ती जा रही है। सर रिचर्ड ने कहा कि कार्बन उत्सर्जन की रोकने के वर्तमान विकल्प काफी नहीं है। हमें पृथ्वी पर मंडराते खतरे को भांपना होगा। हमारे वर्तमान विकल्प ज्यादा से ज्यादा साठ साल चलेंगे। मुझे अपने और अपने बच्चों के बच्चों का भविष्य सुरक्षित करना है। पृथ्वी को बचाने के लिए जरुरी हैकि ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड से छुटकारा पा लिया जाए। वर्जिन के प्रमुख के साथ इस अभियान से जुड़ने वाले अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर ने कहा कि एक ऐसी प्रक्रिया की तलाश है जो हर साल पर्यावरण में छोड़ी जा रही लगभग एक अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को ठिकाने लग सके। अब पर्यावरण चेतना कार्यक्रमों से जुड़ चुके अल गोर ने हाल ही में ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर केन्द्रित फिल्म द इनकान्विनिएंट टूथ बनाई थी।

खेतों को बंजर होने से बचाना होगा

अगर पारंपरिक खेती की ओर जल्द नहीं लौटे तो खेत बंजर हो जाएँगे। कृषि विभाग की ओर से पिछले दिनों उ.प्र. के सभी नौ कृषि जलवायु क्षेत्र (एग्री क्लाइमेट जोन) में कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद जो चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है, उसके आधार पर विभाग किसानों को सचेत करने जा रहा है।

रिपोर्ट के अनुसार राज्य के बहुत से क्षेत्रों में रसायनों का इतना अधिक इस्तेमाल हो चुका है कि खेत लगभग बंजर होने की स्थिति में पहॅुच चुके हैं। रिपोर्ट के अनुसार पौधे के वानस्पतिक विकास के लिए जिम्मेदार पोषक तत्व नाइट्रोजन प्रदेश के सभी कृषि जलवायु क्षेत्र में न्यूनतम स्तर पर पहंॅुच चुका है, जबकि जड़ के विकास के लिए महत्वपूर्ण पोषक तत्व फास्फोरस तो कई क्षेत्रों में अति न्यूनतम स्तर पर है। अन्य पोषक तत्वों में जिंक व सल्फर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में बहुत तेजी से काम हो रहा है, जबकि बुंदेलखंड को छोड़कर सभी कृषि जलवायु क्षेत्र में आयरन की काफी कमी है।

पश्चिमी मैदानी क्षेत्र तथा मध्य पश्चिमी मैदानी क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में मैगनीज की भारी कमी है। रिपोर्ट में इस बात पर विशेष टिप्पणी की गई कि कई क्षेत्रों मे सूक्ष्म पोषक तत्व की स्थिति लगातर दयनीय हो रही है, अगर जल्द ही इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में इन जमीनों पर उत्पादन की आशा निरर्थक होगी।

सरकार को भेजी गई रिपोर्ट में विभागीय विशेषज्ञों का कहना है कि पंजाब और हरियाणा की भाँति उत्तरप्रदेश में भी तेजी से खेती का मशीनीकरण हो रहा है। बैल गायब हो चुके हैं और थोड़े बहुत वन क्षेत्र हैं, वहाँ की पत्तियों का इस्तेमाल लोग खाद की बजाय ईंधन के रुप में कर रहे हैं। ट्रैक्टर से खेती होने के कारण मेड़ सुरक्षित नहीं रहे जिससे पानी बह जाता है। इसी के बाद पोषक तत्व भी चले जाते हैं।

हालाँकि यह भी सुझाव दिया गया है कि हरी खाद, गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद तथा फसल अवशेष का उपयोग कर भूमि की जल धारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता हो बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त फसल चक्र में दलहनी फसलों का इस्तेमाल कर सूक्ष्म पोषक तत्वों के साथ रक्षा के उपाय भी किए जा सकते है।

नेपाल में गिध्दों के लिए अनूठा भोजनालय

विकसित देशों में पालतू कुत्तों व दूसरे जीवों के लिए होटल और भोजनालय उपलब्ध हैं, लेकिन दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल में विलुप्तप्राय गिध्दों के लिए एक अनूठा भोजनालय स्थापित किया है। इस तरह के भोजनालय कई और इलाकों में स्थापित किए जाएंगे।

कभी ये गिध्द नेपाल के विभिन्न इलाकों में झुंड में नजर आते थे, लेकिन रहस्यमय तरीके से ये जीव गायब होते जा रहे हैं। भारत, नेपाल, पाकिस्तान जैसे देशों में 90 फीसदी से अधिक गिध्द मौत के शिकार बन चुके हैं। माना जाता है कि पशुओं और खासकर गायों के इलाज में डिक्लोफैनक नामक दवा के इस्तेमाल के कारण गिध्दों की आबादी खतरे में पड़ी। पशुओं के मरने के बावजूद उनके कंकाल में इस दवा की मात्रा बरकरार रहती है।

जैसे ही गिध्द इन मृत पशुओं का मांस खाते हैं, इस दवा के कारण गिध्दों का गुर्दा बर्बाद हो जाता है। इन एशियाई देशों में तीन प्रजातियों के गिध्दों में से 90 फीसदी से अधिक के खात्मे के पीछे इस दवा की खास भूमिका है। यूं तो नेपाल समेत कई देशों की सरकारों ने इस दवा के इस्तेमाल पर रोक लगा दी, लेकिन अभी भी नेपाल ने पशुओं के लिए इलाज के लिए इस दवा का इस्तेमाल किया जाता है। इससे चिंतित होकर नेपाल के एक संगठन बर्ड कंजरवेशन नेपाल (बीसीएन) ने अनूठी पहल की है।

इस संगठन ने गिध्दों के लिए रसायन मुक्त भोजनालयों की व्यवस्था की है। गिध्दों के लिए पहला ऐसा भोजनालय पश्चिमी नेपाल के नवलपरासी जिले के कावासोती गांव में स्थापित किया गया हैं बीसीएन ने वहां एक भूखंड खरीदा है जहां मरणासन्न पशुओं को रखा जाता है यह कंपनी किसानों से बूढ़े और बीमार पशुओं की खरीददारी करता है और फिर इनका डिक्लोफैनक के बजाय किसी और वैकल्पिक दवा से इलाज किया जाता है। पब पशु की मौत हो जाती है तो उसके पार्थिव अवशेष को खुले मैदान में छोड़ दिया जाता है।

डिक्लोफैनक से मुक्त यह मांस गिध्दों के लिए लाभदायक होता है। डिक्लोफैनक के बजाय मरणासन्न पशुओं को मेलोक्सीकम दवा दी जाती है जो गिध्दों के लिए खतरनाक नहीं है। इस तरह के कई और रेस्तरां गिध्दों के लिए बनेंगे। पंचनगर गांव में भी गिध्दों के लिए एक ऐसा ही भोजनालय बना है।

एयर कंडीशनर से बढ़ती है शहर की गर्मी

घरों को ठंडा करने के लिए इस्तेमाल होने वाले एयर कंडीशनर से बाहर का वातावरण गरम होता है और इस तरह से आखिरकार शहर की गर्मी बढ़ जाती है। अध्ययनकर्ताओं ने उपरोक्त खुलासा किया है।

एक जानकारी के अनुसार ओकायामा यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस के यूकीताका ओहाशी और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने जापान के एक शहर के तापमान का विस्तृत अध्ययन किया। इन शोधकर्ताओं ने अलग-अलग मौसम में टोक्यो के तापमान का अध्ययन करने के बाद यह खुलासा किया है। अध्ययन में बताया गया है कि एयर कंडीशनर से निकलने वाली गर्मी से सड़कें और गलियां गरम हो जाती हैं। एयर कंडीशनर से इतनी अधिक गरमी निकलती है कि तापमान में कम से कम एक से दो डिग्री सेल्सियस तक की वृध्दि हो जाती है। एयर कंडीशनर से न सिर्फ किसी इमारत या घर के अंदर की गरमी बाहर आती है, बल्कि बिजली का इस प्रक्रिया में जिस तरह से उपयोग होता है, उससे भी अच्छी खासी मात्रा में गरमी बाहर आती है। अन्य शब्दों में कूलर न सिर्फ अंदर की गरमी को बाहर लाता है, बल्कि बाहर की गरमी में वह और अधिक गरमी घोलता है। मशीनें जिस तरह से ऊर्जा का उपयोग करती हैं, उससे बाहर के परिवेश के तापमान में वृध्दि होती है। वस्तुतः जापानी शोधकर्ताओं के अनुसार टोक्यो किसी भी गरम दिन के दौरान लगभग 1.6 गीगावाट बिजली की खपत करता है। यह 1.5 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाली बिजली के बराबर है। किस बड़े शहर के वायुतापमान का सही-सही अनुमान लगाने के लिए मौसम विभाग के विशेषज्ञों को यह जानने की जरुरत है कि कैसे बड़ी इमारतों से गर्मी बाहर जाती है।

शिकार की खोज में लोहे की बू

यह तो आपने भी महसूस किया होगा कि लम्बे समय तक लोहे के औजारों से काम करने के बाद शरीर से एक विचित्र किस्म की गंध आने लगती है। इसी तरह रेलगाड़ी में लम्बी यात्रा के बाद भी शरीर से एक अजीब-सी धातुई गंध निकलती है। यदि सूक्ष्म स्तर पर देखें तो सिक्कों या चाबी को संभालते-संभालते भी हाथों में यह गंध सूंघी जा सकती है। क्या है यह गंध? लोहे में तो कोई गंध होती नहीं, फिर यह गंधी कैसी है ? दरअसल यह गंध लोहे की नहीं होती।

हमारी त्वचा वसा का निर्माण करती है। यह वसा जब लोहे के संपर्क में आती है तो इसका विघटन होता है और तरह-तरह के कीटोन्स और एल्डीहाइट्स बनते हैं। ये वाष्पशील होते हैं और इनकी गंध काफी तीखी होती है। यह वह धातुई गंध होती है जो लोहे से संपर्क के बाद पैदा होती है। मज़ेदार बात यह है कि यह लोहा किसी भी तरह का हो सकता है। मतलब यह पर्यावरण में पाया जाने वाला लोहा हो या हमारे अपने खून के हीमोग्लोबिन का, कोई फर्क नहीं पड़ता। वर्जीनिया पोलीटेक्निक संस्थान तथा ब्लैक्सबर्ग स्टेट विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ डाएटमार ग्लिंडमैन का यही विचार है।

श्री डाएटमार और उनके सहयोगियों ने सात व्यक्तियों के शरीरों पर लोहा घिसने के बाद निकलने वाली वाष्प का विश्लेषण करके उसमें मौजूद रसायन पहचाने। इनमें सबसे तेज गंध वाले रसायन का नाम था 1-ऑक्टीन-3-ओन। यह एक कीटोन पदार्थ है।

जर्मन शोध पत्रिका आंगवांडे केमी के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित अपने शोध पत्र में डाएटमार व साथियों ने बताया कि जब उन्होंने अपना ही खून खुद की त्वचा पर रगड़ा और वाष्प का विश्लेषण किया तो इसी तरह के रसायन उपस्थित थे। यानी खून में मौजूद लौह भी त्वचा की वसा के साथ उसी प्रकार क्रिया करता है।

श्री डाएटमार का मत है कि मनुष्यों में यह गंध पहचानने की क्षमता शिकार में मददगार रही होगी। इस गंध की मदद से वे हाल ही में घायल हुए पशुओं को ढूंढ पाते होंगे। अलबत्ता यह उनका मत है, इसकी पुष्टि करना काफी मुश्किल काम होगा।

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