शनिवार, 31 मार्च 2007

सामाजिक पर्यावरण

13 सामाजिक पर्यावरण

साक्षरता का सच

प्रमोद भार्गव

आखिरकार साक्षरता अभियान का वही सच सामने आया जो आम तौर पर सरकारी योजनाओं की वास्तविकता होती है। देश के मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जनसिंह को दाद देनी होगी कि उन्होंने साक्षरता मुहिम चलाने वाले मंत्रालय के मुखिया रहते हुए सार्वजनिक रुप से यह स्वीकार किया कि साक्षरता आंदोलन के साथ हमने धोखा किया है।

वैसे साक्षरता को लेकर चिंता जताना कोई नई बात नहीं है; अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की रस्म अदायगी के अवसर पर मंत्री और शिक्षाविद् साक्षरता व शिक्षा की दशा व दिशा पर चिंता जताया करते हैं, लेकिन धोखा शब्द का इस्तेमाल करके जिस तरह से साक्षरता की अनुपब्धियों की आलोचना की गई वह साक्षरता आंदोलन की व्यर्थता को रेखांकित करती है। वैसे अरबों रुपए खर्च करके चल रही इस मुहिम में जबरन जोड़े गए शिक्षक यह आरोप लगाते रहे हैं कि सरकारी स्तर पर चलने वाली प्राथमिकता शिक्षा को कमजोर करने का काम वास्तव में साक्षरता जैसे अभियानों ने ही किया है।

दरअसल साक्षरता अभियान के हश्र के लिए एक ओर तो बेइंतहा धन और साधन मुहैया कराया जाना जिम्मेदार है। दूसरी ओर, उससे कहीं ज्यादा दोषी नौकरशाह और स्वयंसेवी संगठन हैं जिन्होंने साक्षरता अभियान की सफलता के झूठे आंकड़े गढ़े और धन का दोहन निजी हितों के लिए किया।

दरअसल साक्षरता अभियान धन व साधनों के सहारे नहीं बल्कि दृढ़ इच्दा शक्ति और निरक्षरों के प्रति प्रतिबध्दता की पवित्र भावना के साथ सफल हो सकता था। कोई भी बहुजन हितकारी योजना अथवा मुहिम न तो नौकरशाहों के रुतबे के सफल हो सकती हे और न ही उसे राजनीति में प्राथमिकता की मदद से परवान चढ़ाया जा सकता है। दरअसल साक्षरता अभियान सतत चलने वाला सिलसिला हैं, जिसकी निरंतरता प्राथमिकता शिक्षा के माध्यम से जारी रहनी चाहिए। एक अलग-थलग अभियान इसका जवाब नहीं हो सकता।

यदि सरकार इस अभियान को पुनर्जीवित कर चलाने की मंशा रखती है तो आंकड़ों की बाजीगरी की बजाय पहले इसकी असफलता के कारणों की गंभीर पड़ताल करना जरुरी है क्योंकि इसकी झूठी उपलब्धियों के ढिंढोरे में ही इसके हश्र के काण छिपे हैं, जिन्हें नौकरशाहों और स्वयंसेवी संगठनों ने नए-नए प्रयोगों का आवरण चढ़ाकर ढंके रखा है। इस आवरण को पहले उघाड़ने की जरुरत है, जिससे उस छल का खुलासा हो जिसकी ओर इशारा अर्जुन सिंह ने किया है।

भारत में साक्षरता अभियान के माध्यम से साक्षरता बढ़ जाने का ढोल जिला साक्षरता समितियों की बैठकों खूब पीटा गया। जिला कलेक्टर (जो जिला साक्षरता समिति के पदेन अध्यक्ष होते हैं) और स्वयंसेवी संगठनों ने कुछ प्रदेशों के अभियानों को उत्प्रेरक मानकर अभियान को गतिशीलता देने का ऐलान किया। केरल और मिरोजम में साक्षरता का जो प्रतिशत 90 से अधिक था उसकी वजह साक्षरता अभियान न होकर वहां दशकों से मौजूद शालेय शिक्षा की मबजूत संरचना थी। इसी के फलस्वरुप एर्नाकुलम में 1989 में साक्षरता का आंकड़ा 91 प्रतिशत पर जा पहुंचा था। साक्षरता की इन उपलब्धियों को कालांतर में साक्षरता अीयिान की उपलब्धियों के रुप में गिना गया, जबकि सच्चाई यह थी कि इन प्रदेशों और खासकर एर्नाकुलम में पौढ़ साक्षरता अभियान की शुरुआत उसी साल की गई थी।

इसी तरह 1991 की जनगणना में यह जानकारी सामने आई कि 1981 से 1991 के के दशक में साक्षरता दर में 10-12 प्रतिशत की वृध्दि हुई। कहा गया हकि यह वृध्दि साक्षरता अभियानों के चलते ही आई है जबकि इस दौरान साक्षरता अभियान प्रत्येक जिले में अस्तित्व में ही नहीं आया था। वह गठन की प्रक्रिया में ही था। साक्षरता अभियान पूरे देश में सही मायनों में 1994-95 में सक्रिय हुआ और 1999-2000 तक इसने दम तोड़ दिया।

इस नाकामी को छिपाने के लिए बड़ी चतुराई से इस अभियान को सतत शिक्षा के बहाने पुस्तकालय अभियान और ड्रॉप आउट हुए निरक्षरों के लिए सेतु पाठयक्रमों (ब्रिज-कोर्स) के संचालन से जोड़कर नौकरशाहों ने अभियान से असफलता से पिण्ड छुड़ा लिया। इस दौर में जिला साक्षरता समितियों में जो जन भागीदारी सुनिश्चित थी, जिसके माध्यम से परियोजना को कार्य रुप देने के पारदर्शी स्वरुप का प्रावधान था वह समिति के अध्यक्ष यानी कलेक्टरों के एकाधिकार में विलुप्त हो गया।

साक्षरता अभियानों की कथित सफलता की एक और बानगी देखिए। मध्यप्रदेश के धार जिले में अभियान की कामयाबी का झंडा गाड़ते हुए शासन ने 52.70 प्रतिशत निरक्षरों के साक्षर हो जाने के आंकड़े पेश कर खूब प्रशंसा लूटी थी। कुछ समय के लिए पूरे प्रदेश में धार जिले में साक्षरता के आंकड़ों मुताबिक हर दूसरा व्यक्ति साक्षर था लेकिन पंचायत चुनाव में मतदान के वक्त बीस गांवों के मतदाताओं ने हस्ताक्षर की जगह अपने अंगूठे चस्पा किए। इस रहस्य के उजागर होने के बाद धार जिले की कागजी साक्षरता दर की हकीकत सामने आईथी ।

इसी तरह खण्डवा जिले के भीकनगांव विकास खण्ड में 62 पंचायतों के 987 पंचों मसे से 400 अंगूठाछाप निकले। अंगूठाछाप साक्षरता के ये उदाहरण दरअसल पूरे मध्यप्रदेश का प्रतिबिम्ब तो हैं ही, यदि इन्हें समूचे हिन्दी क्षेत्र और समूचे उत्तर भारत का प्रतिबिम्ब मान लिया जाए तो भी कोई ज्यादती नहीं होगी। साक्षरता मिशन के वजूद में आने से पहले संविधान के अनुच्छेद 45 का लक्ष्य बालक-बालिकाओं को शिक्षित करना था न कि मात्र अक्षर ज्ञान कराना। लेकिन साक्षरता अभियानों की कथित गतिशीलता ने प्राथमिकता शिक्षा को अक्षर ज्ञान और साक्षरता एक सीमित कर दिया। सरकारी स्तर पर क्योंकि जिस प्रौढ़ साक्षरता अभियान का उद्देश्य वंचितों को अक्षर ज्ञान कराकर शालेय शिक्षा से जोड़ना, स्त्री समता को बढ़ावा देना, समाज में प्रचलित विषमता व कुरीतियों को कम करना, रोजगार हेतु कौशल निर्माण करना, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना, जनसंख्या नियंत्रण और जन जागृति लाना था, वह बारहखड़ी सीखने तक सिमटकर रह गया और अंततः इस सीमित लक्ष्य की पूर्ति भी नहीं हुई।

इन लक्ष्यों को इसलिए रेखांकित किया गया था क्योंकि साक्षरता अभियान 14 से 35 आयु वर्ग के लिए था जबकि साक्षरता केन्द्र में आने वाले लोगों में से अधिकांश 9 से 14 वर्ष आयु समूह के थे। इस विसंगति को उचित ठहराने के लिए अभियान संचालकों ने तर्क गढ़े कि वे शालेय शिक्षा के लिए बचों की मानसिकता तैयार कर रहे हैं। वस्तुतः ऐसे भटकावों पर लगाम लगाने की जरुरत थी। लेकिन इन लक्ष्य विरोधी भटकावों पर अंकुश लगाने की बजाय इन्हें उपलब्धियों की कहानियां बताकर उछाला गया। ऐसा इसलिए किया गया ताकि विश्व बैंक और उसकी अनुयायी अंतर्राष्ट्रीय वित्त पोषक संस्थाएं साक्षरता मिशन को धन उपलब्ध कराती रहें और नौकरशाह व स्वयं सेवी संगठन अभियान का आर्थिक दोहन करते रहें।

यदि साक्षरता के साथ किए गए छल से उबरना है और 2010 तक संपूर्ण सक्षरता के लक्ष्य तथा 2015 तक सभी को शिक्षा के लक्ष्य को पाना है तो साक्षरता अभियान को विश्व बैंक और उसकी सहयोगी फंडिंग एजेंसियों की मदद पर नहीं बल्कि रालेगन सिध्दि की तरह सामाजिक व्यवहार और स्थानीय परिवेश से सीखने पर आधारित करना होगा। अर्जुन सिंह यदि अपने नेता के सपने को साकार देखना चाहते हैं तो इस अभियान को बेइंतहा धन और साधन के आडंबर से मुक्त रखना होगा। इस काम का उत्तरदायित्व ऐसे लोगों को सौंपना होगा जो इसकी सफलता का अकलन कागजी आंकड़ों की अपेक्षा जमीनी हकीकत के आधार पर करें। तभी कोई परिणाम की उम्मीद की जा सकती है अन्यथा ऐसा ही चलता रहेगा ।

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