शनिवार, 28 अप्रैल 2007

इस अंक में

इस अंक में

पर्यावरण डाइजेस्ट के इस अंक में ग्लोबल वार्मिंग पर विशेष सामग्री दी गयी है।

पहले लेख बढ़ता तापमान डूबते द्वीप में लेखक पत्रकार प्रमोद भार्गव ने लिखा है जलवायु पर विनाशकारी असर डालने वाली यह ग्लोबल वार्मिंग आने वाले समय में भारत के लिए खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न कर सकती है। दूसरे लेख जलवायु परिवर्तन का जिम्मेदार कौन हैं ? में कमलेश कुमार दीवान ने जलवायु परिवर्तन के जिम्मेदार कारणों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तीसरे लेख ग्लोबल वार्मिंग : मिथ्या या सच्चाई में दीपक शिंदे का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग को इतना ब़़ढा-च़़ढा कर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। इसी क्रम में प्रवीण कुमार ने अपने लेख जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां में कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग अब केवल बौद्धिक विलास का विषय नहीं रहा गया है। सुश्री रेशमा भारती के लेख ग्लोबल वार्मिंग की गिरफ्त में समुद्र में कहा है कि उफनता हुआ समुद्र धरती पर बसे तमाम प्राणियों के अस्तित्व के लिए भी खतरा उपस्थित कर रहा है।

इसके साथ ही डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के लेख वृक्ष : जीवंत परंपरा के संवाहक में कहा गया है कि वृक्षों की पूजा दरअसल एक मायने में अपने पूर्वजों को आदर प्रकट करने का माध्यम है। ऊबे होएरिंग के लेख भारत में पवन ऊर्जा एक दुधारी तलवार में कहा गया है कि भारत को पवन तथा ऊर्जा के अन्य अक्षय स्त्रोतों से अधिक बिजली बनाने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। खासखबर में इस बार हमारे विशेष संवाददाता की रिपोर्ट मौत के मुहाने पर खड़ी है गंगा में गंगा में बढ़ते प्रदूषण की विस्तार से चर्चा की गई है।

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-कुमार सिद्धार्थ

भारत में विज्ञान के लिए शर्मनाक क्षण

भारतीय विज्ञान में कुछ ऐसा घटा है जो शर्मनाक और दुखदायी है। हाल ही में भारत सरकार द्वारा पेटेंट कानूनों पर विचार के लिए गठित मशेलकर समिति को अपनी रिपोर्ट इसलिए वापिस लेने की पेशकश करनी पड़ी कि उसके मुख्य निष्कर्ष वाले हिस्से में एक अन्य रिपोर्ट से नकल पाई गई थी। इस घटनाक्रम के कई आयाम हैं जो सोचने को मजबूर कर देते हैं।

मशेलकर समिति को विचार इस बात पर करना था कि हाल ही में भारतीय पेटेंट कानूनों में जो संशोधन किए गए हैं वे विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों का उल्लंघन तो नहीं करतेहै।

दरअसल भारत सरकार ने तय किया था कि विश्व व्यापार संगठन के पेटेंट संबंधी नियमों की सही व्याख्या यह होगी कि इनके तहत उन्हीं दवाइयों को पेटेंट दिया जाए जो सचमुच नवीन हों; किसी पुरानी दवाई का थोड़ा-सा परिवर्तित रूप पेटेंट के दायरे में नहीं आएगी। आम तौर पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां करती यह हैं कि जब किसी दवाई का पेटेंट खत्म होने वाला होता है, तोे उसमें कोई छोटा-मोटा परिवर्तन कर देती हैं जिससे पेटेंट अवधि एक बार फिर आगे खिसक जाए।

मशेलकर समिति को विचार करना था कि क्या भारत का उपरोक्त कानून विश्व व्यापार संगठन की शर्तो के खिलाफ जाता है। हाल ही में समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी मगर एक अखबार ने यह खोज निकाला कि इस रिपोर्ट के काफी सारे हिस्से एक अन्य पर्चे से जब से तस उठाए गए है। दूसरी और ़़ज्यादा महत्वपूर्ण, बात यह थी कि वह पर्चा इंटरपैट नामक जिस संस्था ने तैयार किया था उसे दवा कम्पनियों के एक संघ से पैसा मिलता है और नोवार्टिस भी उस संघ की एक सदस्य कम्पनी है। ज़ाहिर है समिति के निष्कर्ष उस पर्चे से मेल खाते हैं और उस पर्चे के निष्कर्ष कम्पनियों के हितों से।

दुख की बात यह है कि डॉ. मशेलकर भारत में शोध की अग्रणी संस्था सी.एस.आई.आर. के अध्यक्ष रह चुके हैं। उनका कहना है कि उन्हें पता नहीं था कि रिपोर्ट के कुछ हिस्से कहीं से चोरी से लिए गए हैं। अब उन्होंने रिपोर्ट वापिस लेकर सरकार से तीन माह का समय मांगा है ताकि वे अपनी रिपोर्ट में संशोधन करके फिर से सौंप सकें। सरकार ने अभी हां या ना कुछ नहीं कहा है। ताज़ा समाचार यह है कि डॉ. मलेशकर ने समिति की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। मगर यह कितनी आश्चर्य कि बात है कि भारत के एक जाने-माने वैज्ञानिक पर इस तरह के आरोप लगेंयह स्थिति शर्मनाकहै।

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