शनिवार, 21 जुलाई 2007

१२ कविता

१२ कविता
जल
कुंवर कुसुमेश
विषमय हो जा रहा, सरिताआं का नीर ।
लेकिन सुनता नहीं, कोई इनकी पीर ।।

नदियां पर्वत की बहें, हर पल सिल्ट समेट ।
यहां सिल्ट का अर्थ है, पत्थर, बजरी, रेत ।।

यही सिल्ट मैदान में, बाधित करे बहाव ।
दूषित जल का मुख्य है, कारण जल ठहराव ।।

दूषित जल से यदि मरे, नित्य समुद्री जीव ।
पूरे पर्यावरण की, हिल जायेगी नींव ।।

झीलों, नदियों, सागरों, का लेकर आकार ।
इकहत्तर प्रतिशत दिखे, भू पर जल-विस्तार ।।

धरती से जल वाष्प बन, चले गगन की ओर ।
फिर वर्षा के रूप में, छुए धरा का छोर ।।

कहीं पड़ा सूखा कभी, कहीं आ गई बाढ़ ।
ज़रा सोचिए प्रकृति क्यों, करती ये खिलवाड़ ।

भारी वर्षा तो कहीं, भीषण है तूफान ।
अरबों की सम्पत्ति को, पहुंचाये नुकसान ।।

जलाभाव से मच रहा, चहुं दिशि हाहाकार ।
लगातार घटने लगा, भू का जल भंडार ।।

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