रविवार, 30 मार्च 2008

११ विज्ञान जगत

क्यों सक्रिय नही हैं वैज्ञानिक ?
यू. रावल
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम देश के महान वैज्ञानिक भी रहे हैं । राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान और उसके बाद भी समय-समय पर अपनी वैज्ञानिक दृष्टि के जरिए वे देश की का समाधान पेश करते रहे हैं । उनकी इस सक्रियता की तुलना न्यायपालिका की सक्रियता से की जा सकती है, जो इन दिनों विभिन्न सामाजिक मामलों पर अपनी सुस्पष्ट राय के लिए जानी जाने लगी है । लेकिन अगर हम देश के वैज्ञानिक समुदाय पर नजर दौड़ाएं तो वह प्राय: समाज से कटा हुआ ही नजर आता है । क्या वैज्ञानिकों को भी सामाजिक सरोकारों के प्रति सक्रिय होना चाहिए, इसी सवाल का जवाब देने का प्रयास करता है यह आलेख । भारत में हाल के दिनों में न्यायपालिका ने काफी सक्रियता दिखाई है, खासकर सामाजिक महतव के मुद्दों पर । हालांकि न्यायपालिका को बजट आवंटन सरकार से मिलता है, न्यायाधीशों व कर्मचारियों के वेतन-भत्ते सरकार देती है, लेकिन जब फैसलों की बारी आती है, तो वे शुद्धत: सबूतों पर आधारित होते हैं । न्यायाधीश संविधान में निहित अधिकारों का इस्तेमाल कर कानूनों के तहत फैसला देते हैं, भले ही वह सरकार के खिलाफ ही क्यों न हो । किसी मुद्दे विशेष को लेकर सरकार क्या सोचती है, यह मायने नहीं रखता । मायने रखता है तो यह कि उस समले पर कानून क्या कहता है । यह अलग बात है कि न्यायिक सक्रियता को लेकर अब देश में बहस भी चल पड़ी है । एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो इसे विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में `अनावश्यक दखल' मानकर न्यायपालिका को अपनी हदों में रहने की हिदायत देता है । अब जरा वैज्ञानिक बिरादरी की बात करें । वैज्ञानिकों के वेतनमान, प्रयोगशालाआें व उपकरणों का खर्च और अन्य तमाम खर्च सरकार वहन करती है । वैज्ञानिकों के कार्य करने का आधार वैज्ञानिक तथ्य और प्रयोग होते हैं । इन्हीं तथ्यों व प्रयोगों के आधार पर वे निष्कर्ष निकालते हैं और आगे की कार्ययोजना तैयार करते हैं। उनके निष्कर्ष का आधार सरकार या उससे बाबुआें की सोच नहीं होती । यानी कहा जा सकता है कि जैसे न्यायाधिकारी संविधान के प्रति जवाबदेह होते हैं और उसी से `ताकत' पाते हैं, उसी प्रकार वैज्ञानिक भी एक तरह से अघोषित `वैज्ञानिक कानूनों व नियमों' से बंधे होते हैं और इन्हीं के प्रति जवाबदेह होते हैं । इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज के प्रति भी वैज्ञानिकों का दायित्व है । ऐसे में कई मामलों में यह जरूरी हो जाता है कि वैज्ञानिक बिरादरी समाज के साथ जीवंत संपर्क बनाए रखे या अपने सरोकारों का नाता सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ें । लेकिन यह देखकर निराशा ही हाथ लगती है कि न्यायपालिका के विपरीत वैज्ञानिक समुदाय समाज से दूर ही रहता है । वैज्ञानिक कार्योकी जरूरत के बारे में लोगों को बताने या किसी कार्य का वैज्ञानिक मूल्यांकन करने की बजाय वह अक्सर चुप्पी ही साधे रहता है । भारत जैसे विकासशील देश में विशाल आबादी, गरीबी, साक्षरता, स्वज्ञस्थ सेवा, वैज्ञानिक जागरूकता से संबंधित कई ऐसे मसले और समस्याएं हैं जिनके मद्देनजर विज्ञान (शायद प्रौद्योगिकी) व वैज्ञानिक समुदाय का समाज के साथ निकट संपर्क जरूरी है । उदाहरण के तौर पर देश की अल्प व दीर्घकालीन ऊर्जा जरूरतों, पेयजल संकट, प्रदूषण, कचरा प्रबंधन (परमाणु कचरे सहित), आपदा प्रबंधन, गेर महानगरीय व गैर शहरी जनसंख्या की जरूरतों पर आधारित टेक्नॉलॉजी व विकास इत्यादि मुद्दे वैज्ञानिक समुदाय से पर्याप्त् ध्यान की मांग करते हैं । लेकिन सीधे-सीधे जनता से जुड़े इन मसलों पर वैज्ञानिक व अकादमिक बिरादरी द्वारा न तो कोई विचार-विमर्श किया जाता है और न ही कोई कार्ययोजना, ब्ल्यूप्रिंट या मॉडल पेश किया जाता है । अगर कोई चर्चा होती भी है तो उसका जनता से कोई वास्ता नहीं होता है । हां, हर साल प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में होने वाली विज्ञान कांग्रेस में इन तमाम मुद्दों पर विस्तृत विश्लेषण पेश किया जाता है जिसमें पांडित्यपूर्ण ढंग से चिंता जताई जाती है। लेकिन बाद में क्या होता है, किसी को पता नहीं । पर्याप्त् कार्रवाई के अभाव में ये बड़ी-बड़ी बातें और चिंताएं महज औपचारिक ही साबित होती हैं । लगता है साल-दर-साल केवल परम्परा का निर्वाह किया जा रहा है । इसके उलट अमेरिका में `अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ एडवांंस्मेंट ऑफ साइंस' (ए.ए.ए.एस) और अन्य विज्ञान संगठनों द्वारा वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों की ऐसी समितियों का गठन किया जाता है जो विभिन्न सामाजिक, वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी मसलों पर रिपोर्ट तैयार कर संभावित कार्यवाही योजना भी बनाती हैं (अल्पकालीन व दीर्घकालीन दोनों जरूरतों के अनुरूप) । ये रिपोर्ट अमेरिकी कांग्रेस व सीनेट में पेश की जाती हैं ताकि इन मसलों पर सांसदों को जानकारी दी जा सके । लेकिन हमारे वैज्ञानिकों में अमेरिका के इस प्रभावी व उपयोगी तरीके का अनुसरण करने की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती । यहां हाल ही के दो बड़े मुद्दों के उदाहरण देना उचित होगा जो लगातार अखबारों में सुर्खियों में रहे है । पहला मुद्दा है अमेरिका के साथ असैन्य एटमी करार और दूसरा रामसेतु । अगर पहले मुद्दे की बात करें तो हमें इस बारे में कोई वैज्ञानिक जानकारी नहीं मिलती है कि देश की अल्प व दीर्घकालीन ऊर्जा जरूरतें क्या हैं और परमाणु ऊर्जा से इनका किस हद तक समाधान किया जा सकता है । यही स्थिति रामसेतु मसले को लेकर है । रामसेतु के इतिहास, समय काल, प्रकृति और निर्माण की वजह (मानव निर्मित या प्राकृतिक) को लेकर ऐसी कोई वैज्ञानिक सामग्री या आंकड़े प्रस्तुत नहीं किए गए हैं जिनके आधार पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचा जा सके । इस संबंध में एक वस्तुपरक व निष्पक्ष आकलन करने के लिए जरूरी वैज्ञानिक आंकड़े फिलहाल शायद उपलब्ध ही नहीं हैं । हालांकि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका है कि रामसेतु मानव निर्मित संरचना नहीं है, लेकिन उसने यह नहीं बताया है कि इसका आधार क्या है । अगर वाकई इसका कोई वैज्ञानिक आधार है, तो संबंधित वैज्ञानिकों और समूहों को आम जनता की जानकारी में यह बात लानी चाहिए । लगता है कि अपनी-अपनी बात के समर्थन में वैज्ञानिक आधार दोनों ही पक्षों के पास नहीं है, न रामसेतु प्राकृतिक मानने वालों के पास और न ही उसे मानव निर्मित मानने वालों के पास । तो ऐसे में सवाल यह है कि सरकारी समर्थन प्राप्त् वैज्ञानिकों को भी मंत्री महोदय की हां में हां मिलानी चाहिए या फिर थोड़ा सक्रिय होकर और ठोस वैज्ञानिक सबूत एकत्र कर `दूध का दूध, पानी का पानी' साबित करने का प्रयास करना चाहिए । जिस दिन वैज्ञानिक ऐसा करने लगेंगे, उसी दिन `न्यायिक सक्रियता' के साथ-साथ हमारे विमर्श में एक और उपयेागी शब्द जुड़ जाएगा - `वैज्ञानिक सक्रियता' । ***

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