मंगलवार, 3 जून 2008
संपादकीय
प्रसंगवश
१ पर्यावरण दिवस पर विशेष
२ हमारा भूमण्डल
३ विरासत
४ सामयिक
५ विशेष लेख
६ दृष्टिकोण
७ कृषि जगत
८ पर्यावरण परिक्रमा
वैश्विक तापमान परिवर्तन के चलते संसार भर की हर आठ में से एक पक्षी प्रजाति पर लुप्त् होने का खतरा मंडराने लगा है । विख्यात पत्रिका न्यू सांईटिस्ट ने हाल ही में पक्षियों की उन प्रजातियों की लिस्ट छापी है जिन्हें इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कन्जरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने अपनी `रेड लिस्ट' में शामिल किया है । इस लिस्ट में इस बार १२२६ पक्षी प्रजातियों का नाम शामिल किया गया है । उल्लेखनीय है कि यह विश्व प्रसिद्ध संस्था अपनी रेड लिस्ट में उन्हीं प्रजातियों को शामिल करती है जिन पर लुप्त् होने का संकट मंडरा रहा होता है । इस बार की लिस्ट में उन पक्षियों पर और अधिक खतरा बताया गया है जो पिछली बार खतरे वाली सूची में शामिल किए जा चुके थे । इस बार २६ पक्षी प्रजातियों को पिछली बार के मुकाबले अधिक खतरे में बताया गया है जबकि सिर्फ दो पक्षी प्रजातियों को पहले के मुकाबले बेहतर स्थिति में बताया गया है। पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पक्षियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और वैज्ञानिकों ने इसके लिए मुख्य कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि और मौसम में हो रहे लगातार परिवर्तनों को बताया है। आईयूसीएन ने डाँवाडोल हो रही प्रकृति के लिए मानव की हरकतों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि वह अपनी इच्छाआें पर काबू नहीं कर पा रहा है । उसने जंगलों का बेतहाशा दोहन करना भी नहीं रोका है। पापुआ न्यू गिनी का उदाहरण देते हुए रिपोर्ट में लिखा है कि वहाँ बॉयोफ्यूल का उत्पादन करने के लिए जंगलों को बेतरतीब तरीके से काट दिया गया और इससे वहाँ रहने वाले पक्षियों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है ।
भोपाल के जहरीले यूनियन कार्बाइड परिसर में रखे ३९० टन रसायनिक कचरे को गुजरात में ले जाकर नष्ट करने की योजना है । इस कचरे को हटाने के लिए नई रणनीति बनाई जा रही है जिसके तहत यूका परिसर से कचरे को हटाने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय ली जायेगी। पिछले महीने गैस राहत और पुर्नवास विभाग ने भारतीय सेना से इस संबंध में संपर्क किया था, साथ ही ट्रांसपोर्टस को भी पत्र लिखा गया था, जिसका परिणाम सकारात्मक बताया जा रहा है । जिसमें केन्द्र और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियम और शर्तो की जानकारी दी गई है । यूका परिसर में मौजूदा कचरे में से कुछ हिस्सा जमीन में दफनाया जायेगा जबकि शेष बचे कचरे को गुजरात ले जाकर जलाया जायेगा । प्रदूषण निवारण मंडल के वैज्ञानिकोंद्वारा बनाए नये नियमों के तहत जमींदोज किये जाने वाले कचरे को ठोस रूप में जमा दिया जायेगा । जबकि बाकी जहरीले कचरे को १४०.० डिग्री सेल्सियस तापमान पर जलाकर नष्ट कर दिया जायेगा । हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान गैस राहत व पुर्नवास मंत्री अजय विश्नोई ने भी स्वीकार किया था कि कुछ ट्रांसपोर्ट से उन्होंने बात की है । कचरे की मात्रा को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है । यूनियन कर्बाइड परिसर में कितना जहरीला रसायन है, इसे लेकर अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हैं । सरकार का दावा जहां ३९० मैट्रिक टन का है, वही गैस पीड़ित संगठनों का कहना है कि परिसर में १८ हजार टन घातक रसायन मौजूद हैं, बहरहाल प्रदूषण निवारण मंडल ने लगभग दो वर्ष पहले जो पैकिंग कराई थी, वह कचरा सबसे पहले हटाया जायेगा।
जब जंगलों पर चौतरफा हमला हो रहा हो, रक्षक भी भक्षक बन रहे हों, ऐसी स्थिति में बंगाल के कुछ युवकों की टोली जंगलों की रक्षा के लिए आगे आई है । पं. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दूरा क्षेत्र में २०-२५ वर्ष के चौबीस युवकों का यह समूह छ:-छ: की टुकड़ियों में क्षेत्र के वनों की रक्षा करता है । मदारीहाट वन क्षेत्र के रेंजर असीम कुमार ने बताया कि ये युवक वनों की तस्करों से रक्षा का कार्य बड़ी मुस्तैदी से कर रहे हैं । ये युवक गत अप्रैल माह से यह कार्य कर रहे हैं । फलस्वरूप पेड़ों की अवैध कटाई में पचास प्रतिशत तक कमी आई है । युवकों की यह रक्षक टोली वन विभाग और ग्रामीणों के बेहतर संबंधों का नतीजा है । सन् १९९१ में वन विभाग ने वनवासियों को वनों की रक्षा में सहभागी बनाने की पहल शुरू की थी । वन रक्षक समितियों का गठन किया गया था । ये समितियाँ वनों के अलावा वनोपज और वन्यजीवों की रक्षा का कार्य भी कर रही हैं । बदले में वन विभाग, समिति सदस्यों को वन भूमि पर खेती करने और चूल्हे के लिए जलाऊ लकड़ी लेने की छूट देता है । ऐसी ही एक समिति का सदस्य भैया ओरांव कहता है - हमें वन विभाग ने सड़क बना दी है और पीने का पानी भी उपलब्ध कराया है । हमें सब्जियाँ उगाने की भी छूट हैं । वनों पर हमारी अंतरनिर्भरता है । युवकों की इस रक्षक टोलियों को वन विभाग ने साइकलें, टार्च और लाठियाँ उपलब्ध करा दी हैं । इन युवकों को दो हजार रू. प्रतिमाह मानदेय मिलता है । युवकों की इस टोली के साथ पंद्रह सदस्यीय महिलाआें की टोली भी जुड़ने के लिए तैयार है । फिलहाल वन विभाग से इस पर चर्चा चल रही है ।
जैविक खाद से बढ़ सकती है ३० प्रतिशत उपज
खाद्यान्न की बढ़ती मांग पूरी करने में जैविक खाद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है । इनके इस्तेमाल से कृषि उपज में २५ प्रतिशत से ३० प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है और नाइट्रोजन और फास्फोरस पर निर्भरता २५ प्रतिशत तक घटाई जा सकती है । कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक खाद के अंधाधुंध और अनुचित इस्तेमाल के कारण कृषि भूमि का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है या उसकी रासायनिक संरचना में असंतुलन हो गया है । इससे कृषि पैदावार में ठहराव की स्थिति पैदा हो गयी है । राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम के विभिन्न परीक्षणों के परिणामों के अनुसार जैविक खाद के इस्तेमाल से पौधों का विकास तरीके से होता है और भूमि की जैव सक्रियता बढ़ती है । कृषि भूमि की उवर्रकता बरकरार रहती है और भूमि को कई तरह की बीमारियों से बचाया जा सकता है । देश के विभिन्न हिस्सों में किए गए परीक्षण के अनुसार जैविक खाद के इस्तेमाल से चावल की उपज में औसत २७ प्रतिशत, गेहूँ में २५ प्रतिशत, जौ में १५ प्रतिशत, दालों में १२ प्रतिशत, तिलहन में १० प्रतिशत, गन्ने में १३ प्रतिशत और सब्जियों में १९ प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है । देश में प्रति वर्ष १५ हजार से २० हजार टन जैविक खाद की आवश्यकता है जबकि उत्पादन केवल १० हजार से १२ हजार टन प्रतिवर्ष हो रहा है। कृषि मंत्रालय के अनुसार देश में कुल कृषि उपज का ५० प्रतिशत श्रेय विभिन्न खादों को जाता है । किसान अपनी उपज बढ़ाने के लिए ज्यादातर रासायनिक खाद पर निर्भर रहे हैं । हाल के वर्षो में जैविक खाद पर निर्भर रहे हैं । हाल के वर्षो में जैविद खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देना शुरू किया । सातवीं पंचवर्षीय योजना में जैविक खाद के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की एक व्यापक योजना तैयार की गयी । इसके तहत कृषि मंत्रालय के अधिन राष्ट्रीय विकास एवं जैविक खाद उपयोग परियोजना के तहत राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास केन्द्र का गठन किया गया जबकि भुवनेश्वर, बेंगलूर, नागपुर, जबलपुर, हिसार और इंफाल में उपकेन्द्र बनाए गए है । इन केन्द्रों को जैविक खाद के क्षेत्र परीक्षण और प्रदर्शन करने के लिए अधिकृत किया गया । प्रत्येक क्षेत्र के किसानों के लिए अलग अलग जैविक खाद लिए गए और किसानों को उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया गया । इन अनुसंधानों से जुड़े रहे बायोनिक्स ट्रेक्नोलाजिजके अंबर जैन के अनुसार किसानों की रूचि मूल रूप से उपज बढ़ाने, बेहतर उपज प्राप्त् करने और कम खाद का इस्तेमाल करने में होती है। यदि किन्हीं खाद के मिश्रण से किसानों को ये उद्देश्य प्राप्त् होते हैं तो वह इन्हें अपनाने में संकोच नहीं करते है ।
मैकडोनाल्ड बेचेगा `इको - फैंडली' कॉफी
इस कंपनी के बर्गरों को भले ही लोग `जंक फूड' कहते हों लेकिन `फॉस्ट फूड' के क्षेत्र में अग्रणी कंपनी मैकडोनाल्ड्स पहली बार पर्यावरण की ओर कदम बढ़ा रही है । इसने अपने यहाँ मिलने वाली कॉफी के लिए उन कोको के दानों को खरीदा है जो पर्यावरण हितैषी माहौल में उगाए गए है । मैकडोनाल्ड्स ने घोषणा की है कि अगले वर्ष से वह ऑस्ट्रेलिया में स्थित अपने ४८४ कैफेटेरिया में कॉफी उपलब्ध कराने लग जाएगा जो दक्षिणी अमेरिका में उच्च् श्रेणी के पर्यावरण हितैषी (इको- फ्रैंडली') माहौल में उगाई गई है । मैकडोनाल्ड्स अगले वर्ष मार्च से यह कदम उठाने जा रहा है । उल्लेखनीय है कि कंपनी ने अपने यहाँ परोसी जाने वाली फिल्टर कॉफी की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए न्यूयॉर्क की रेनफॉरेस्ट एलायंस नामक कंपनी को ठेका दिया था जो ग्रीन फ्रॉग लेबल के नाम से कॉफी उपलब्ध करवाती है । मैकडोनाल्ड्स की सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) कैट्रिओना नोबल के अनुसार, हम संसार के लिए एक सकारात्मक योगदान देना चाहते हैं और अगर यह शुरूआत एक कप कॉफी से ही हो रही हो तो इसमें बुरा क्या है । `सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड' ने नोबल के हवाले से कहा कि दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाना । अब सिर्फ एक सपना ही नहीं बल्कि इसे आज की जरूरत माना जाना चाहिए ।***
९ स्वास्थ्य
११ ज्ञान विज्ञान
वैज्ञनिकों द्वारा ब्राह्माण्ड के पुराने स्वरुप खोजने और उस पर मॉडल बनाए जाने की प्रक्रिया से पता चला है कि करोड़ साल पहले पृथ्वी पर कई चंद्रमाआें के अस्तित्व की संभावना थी । वैज्ञानिकों के अनुसार वह समय पृथ्वी पर कई प्राकृतिक उपग्रहों का था और इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय पृथ्वी से कई चाँद नजर आते होंगे । न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार उस समय पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति जिस तरह की थी, उससे तो यहीं प्रतीत होता है कि पृथ्वी के लिए एक से ज्यादा चाँद उपलब्ध होंगे। इस बारे में नासा केेलिफोर्निया स्थित रिसर्च सेंटर के अध्ययन दल के सदस्य जैक लेसर बताते हैं कि यह स्थति लैगरेनगियन कहलाती है जिसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बल से कई ग्रह और उपग्रह आपस में जुड़े होते है । ये सभी जिन बिन्दुआे पर एक दूसरे से जुड़ते हैं, उन्हें ट्रोजन कहा जाता है और अगर उस गुरुत्वाकर्षण में कोई छेड़छाड़ नहीं हो तो यह स्थिति लंबे समय तक जस की तस बनी रह सकती है । उस समय पृथ्वी के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थित के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनी होगी । अगर कोई अन्य उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में उस दौरान आया होगा और ट्रोजन बिंदु पर जम गया होगा तो उस स्थिति में वह उपग्र्रह १०० करोड़ साल तक पृथ्वी के लिए प्राकृतिक उपग्रह की भूमिका निभाता रहा होगा, ठीक उसी तरह जैसे कि आज चन्द्रमा निभा रहा है । बाद में जब उस स्थिमि में कोई बदलाव आया होगा तब वह उपग्रह या तो पृथ्वी की कक्षा से बाहर हो गया होगा या फिर पृथ्वी पर गिरकर नष्ट हो गया होगा । वैज्ञानिकों ने ऐसे उपग्रहों को `ट्रोजन सेटेलाइट' नाम दिया है । वैज्ञानिकों के अनुसार वह स्थिति बहुत रोचक रही होगी, क्योंकि तब ये उपग्रह पृथ्वी के आस-पास ठीक वैसे ही दिखते होंगे जैसे कि वर्तमान में जूपीटर और वीनस ग्रहों के उपग्रह दिखते हैं । वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट में कहा है कि हो सकता है कि उन उपग्रहों ने पृथ्वी की कक्षा में अरबों साल तक चक्कर लगाए हों और बाद में वे सब लापता हो गए हों ।
१२ कविता
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१३ जैव टेक्नालॉजी
उपज के लिए पौधों से खिलवाड़
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
अनाज, फलों और नगदी फसलों की अच्छी उपज देने वाले संकर पौधे उपयोगी हैं मगर लंबे समय तक इनका संवर्धन करना एक चुनौती रही है क्योंकि `संकर स्फूर्ति' समय के साथ फीकी पड़ जाती है । इस संदर्भ में हैदराबाद के कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र के डॉ. इमरान सिद्दिकी और उनके साथियों द्वारा नेचर के २८ फरवरी २००८ के अंक में प्रकाशित शोध पत्र मील का पत्थर है। इसमें उन्होंने एक तकनीक का ब्यौरा दिया है जिसकी मदद से ज्यादा पैदावार वाले पौधों को निरंतर उगाना संभव हो सकेगा । इस तकनीक में जिनेटिक स्विचिंग का एक चरण शामिल है जो पौधे के सेक्स जीवन को बदल डालेगा । बच्च पैदा करने के कितने तरीके हैं? जवाब इस बात पर निर्भर है कि यह सवाल किससे पूछा गया है । कई एक कोशिकीय बैक्टीरिया के पास संतानोत्पत्ति का आत्मनिर्भर तरीका मौजूद है । वे तो बस अपनी जिनेटिक सामग्री (जीनोम) की एक नकल बनाते हैं और दो कोशिकाआें में विभाजित हो जाते हैं । समय आने पर इनमें से प्रत्येक कोशिका फिर से दो-दो में विभाजित हो जाती है । और यह प्रक्रिया चलती रहती है । जल्दी ही एक मूल कोशिका से करोड़ों, अरबों कोशिकाएं बन जाती हैं । यह एक जांची परखी प्रक्रिया है, जिसे माइटोसिस या समसूत्री विभाजन कहते हैं और यह करोड़ों सालों से जारी है । चूंकि प्रजनन की यह शैली एक अकेली कोशिका से चलती है और उसकी लगभग सत्य प्रतिलिपियां बनती हैं, इसलिए संतानें पालक की क्लोन होती हैं । इसे क्लोनल विस्तार भी कहते हैं । बहु-कोशिकीय जीवों में कोशिकाएं न सिर्फ हूबहू अनुकृति के रूप में विभाजित होती हैं बल्कि विभेदित होकर अन्य किस्म की कोशिकाएं भी बनाती हैं। ये विभेदित कोशिकाएं फिर क्लोनल विस्तार के जरिए ऊतक व अंगों का निर्माण करती हैं । क्लोनल प्रजनन काफी कार्यक्षम है मगर कभी-कभी इसमें त्रुटियों की संभावना रहती है । जब नकल बनाने में इस तरह की त्रुटियां होती हैं तो डी.एन.ए. में उपस्थित सूचना में फेरबदल हो जाता है । समय के साथ जीवों में प्रूफ रीडिंग, संपादन व मरम्मत की तकनीकें विकसित हुई हैं । इसके बावजूद यदि त्रुटि हो जाए और वह संतान कोशिका तक पहुंच जाए, तो म्यूटेशन्स यानी उत्परिवर्तन पैदा होते हैं । यदि ऐसा कोई म्यूटेशन संयोगवश उस जीव को किसी पर्यावरण में बेहतर जीने की क्षमता देता है, तो वह लाभदायक हो जाता है । यह म्यूटेशन युक्त कोशिका (म्यूटेन्ट) अन्य कोशिकाआें से ज्यादा जी पाती है । औषधि प्रतिरोधी बैक्टीरिया इसी तरह विकसित होते हैं । दूसरी ओर, कोई म्यूटेशन कोशिका को दुर्बल भी बना सकता है । यदि यह जिनेटिक त्रुटि पीढ़ियों तक चलती रहे तो सजीवों का कम तंदुरूस्त खानदान तैयार होता है । लिहाजा यह अच्छा होगा यदि नए व उपयोगी जीन्स हासिल करने का तथा प्रजनन का कोई और तरीका मिल जाए । यदि उपरोक्त सवाल हमारे जैसे किसी स्तनधारी से पूछा जाए, तो जवाब होगा: सेक्स, जिसमें बच्च्े पैदा करने के लिए दो पालक (एक मादा व एक नर) की जरूरत होती है । नर व मादा के शरीर में २०० विविध किस्म की कोशिकाआें के अलावा एक विशेष किस्म की कोशिकाएं बनती हैं जन्हें अंडाणु या शुक्राणु कहते हैं । इनमें जीव की पूरी जिनेटिक सामग्री नहीं होती, सिर्फ आधी सामग्री होती है । शुक्राणु और अंडाणु के मिलने से निषेचन होता है और एक भ्रूण बनता है। समय के साथ भ्रूण विकसित होकर शिशु बनता है । अर्थात माता व पिता दोनों जीन्स संतान को हस्तांतरित किए जाते हैं । इस तरह के लैंगिक प्रजनन में क्लोनिंग की अपेक्षा कई फायदे हैं । इसके जरिए नए-नए जीन्स जुड़ते हैं और विविधता बढ़ती है । नए गुण जुड़ते हैं व नई संभावनाएं खुलती हैं । इसके अलावा मादा और नर को अपना प्रजनन साथी चुनने का मौका मिलता है ताकि वे स्वस्थ संतान उत्पन्न कर सकें । जीन का मिश्रण लैंगिक प्रजनन का एक फायदा है । मगर इसमें जो जैविक प्रक्रियाएं होती हैं, वे समसूत्री विभाजन की अपेक्षा ज्यादा पेचीदा है । पालकों के जिनेटिक पदार्थ को पहले गैमेट्स (अंडाणु व शुक्राणु) में बांटा जाता है, और फिर निषेचन के दौरान इन्हें फिर से मिलाया जाता है - इन प्रक्रियाआें को अर्धसूत्री विभाजन और पुनर्मिश्रण कहते हैं । कई पौधों में यही रास्ता अपनाया जाता है । फूलधारी पौधों के स्त्रीकेसर में अंडाणु होते हैं । (इन्हें बीजांड कहते हैं) पुंकेसर नर प्रजनन अंग है जिसमें पराग कोश होते हैं । पराग कोशों में पराग कण होते हैं जो नर प्रजनन कोशिकाएं हैं । जब पराग कण स्त्रीकेसर पर पहुंचकर बीजांड से मिलते हैं तो निषेचन होकर भ्रूण बनता है । यह बीज के अंदर होता है । बीजांड के आसपास की कोशिकाएं भी विभाजित होकर बीज बनाती हैं । जैसे हम खुद के लिए प्रजनन साथी का चुनाव करते हैं उसी प्रकार खेती में हम विभिन्न गुणों वाले पौधों का चयन करके उनका निषेचन करवाते हैं ताकि मनचाहे गुणों वाले पौधे पा सकें । जैसे, ज्यादा पैदावार, कीट प्रतिरोध, बेहतर फल, या ज्यादा सुंदर फूल वगैरह । खेजी में प्रमुख खाद्यान्न फसलों में इस तरह से संकरण से ऊंचीपैदावार वाली संकर किस्में बनाई जाती हैं । हरित क्रांति इसी तरह की कवायद का नतीजा थी । मगर किसानों के सामने एक समस्या आती है । एक अच्छी संकर किस्म मिल जाने पर चाहते हैं कि उसके जीन्स बरकरार रहें । तब वे संकर किस्म में स्व निषेचन के जरिए इसका फैलाव करते हैं ताकि संतानें बेहतर होती जाएं । मगर तथ्य यह है कि यह संकर स्फूर्ति स्व निषेचन से उत्पन्न कुछ ही पीढ़ियों बाद समाप्त् हो जाती है । संकर किस्म में उपस्थित विभिन्न जीन्स बीजांड या पराग कणों के निर्माण के दौरान अलग-अलग हो जाते हैं और फिर अलग ढंग से पास-पास आते हैं । परिणाम यह होता है कि हमें हर बार पालकों की मूल संकर किस्म के साथ निषेचन करवाना होता है ताकि स्फूर्ति बने रहे । किसानों की दृष्टि से यह कोई संतोषजनक स्थिति नहीं है । अलबत्ता, एक रास्ता है । यह रास्ता कई पौधों (तथा कीट व मछली जैसे कुछ जंतुआें) के एक विचित्र गुण का परिणाम है । डेंडेलियन तथा बेरियों व घासों जैसे कुछ पौध अर्धसूत्री विभाजन को तिलांजलि दे देते हैं और क्लोन विधि से बीज पैदा करते हैं । मादा का पूरा का पूरा जीन सेट पुत्री बीज को मिल जाता है। इस अजीब किंतु रोमांचक गुण को एपोमिक्सिस कहते हैं । इसमें मियोसिस यानी अर्धसूत्री विभाजन नहीं होता है । यह अलैंगिक प्रजनन है । जहां बेरियां व घासें ऐसा करती हैं, वहीं प्रमुख फसलों पौधों में ऐसा नहीं होता । वे तो लैंगिक प्रजनन ही करते हैं। काश, उन्हें भी एपोमिक्टिक बनाया जा सके । तब संकर स्फूर्ति सदा के लिए बनी रहेगी क्योंकि जीन्स का पुनर्मिश्रण नहीं होगा । यदि एपोमिक्सिस का जीव वैज्ञानिक आधार व प्रक्रिया समझ सकें, तो शायद हम गेहूं, चावल और मक्का जैसी फसलों को एपोमिक्सिस की राह पर भेज सकेंगे और अच्छी पैदावार ले सकेंगे। तो वे कौन-से जीन्स हैं जो एपोमिक्सिस का नियंत्रण करते हैं ? डॉ. इमरान सिद्दिकी और उनके साथियों ने इसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाला है । इसके लिए उन्होंने अलैंगिक प्रजनन करने वाले एक पौधे एरेबिडोप्सिस का उपयोग किया। उन्होंने दर्शाया है कि ऊधअऊ नामक एक जीन में फेरबदल करने से एपोमिक्सिस का रास्ता खुल जाता है और पौधा अलैंगिक प्रजनन करने लगता है । ऊधअऊ जीन सामान्य रूप से अर्धसूत्री विभाजन के दौरान गुणसूत्रों के संगठन का नियमन करता है । मगर ऊधअऊ जीन में उत्परिवर्तन होने पर पौधों में ऐसे बीज बनने लगते हैं जिनमें एक ही पालक के पूरे गुणसूत्र होते हैं । इस जीन का काम भलीभांति ज्ञात है मगर इस एक अकेले जीन में उत्परिवर्तन से पौधा एपोमिक्टिक बन सकता है, यह सचमुच एक पथ प्रदर्शक खोज है । सिद्दिकी का कहना है, ``हमारे नतीजे ऐसे अन्य जीन्स की खोज को प्रेरित करेंगे, जिनका उपयोग करके हम खाद्य फसलों में एपोमिक्सिस पैदा कर सकेंगे जो दुनियाभर में कृषि जैव-टेक्नॉलॉजी का लक्ष्य है ।***