शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

१ सामयिक

वृक्ष सिर्फ इमारती लकड़ी नहीं
अपर्णा पल्लवी
यह त्रासदायी सच्चई है कि जिन आदिवासियों ने पीढ़ियों से वनों को न केवलबचाए रखा है बल्कि उनका विस्तार किया है उन्हें बिना विश्वास में लिए वनों का प्रबंधन (?) किया जा रहा है । क्षितिज की ओर देखते हुए नानकी बाई कहती हैं `` हमारे इलाके में लोग अक्सर कहा करते थे , कि क्या जंगल गायब होंगें ? पर मैंने अपनी आंखों के सामने पहले सिन्हार की बेल और उसके बाद बांस गायब होते देखें । परन्तु जब ``साल'' के वृक्ष लुप्त् होना प्रारंभ हुए तो लोगों को समझ आया कि अगर अब भी सुरक्षा नहीं की गई तो जंगल मिट जाएगें । मध्यप्रदेश के डिंडोरी जिले के सामनापुर, करंजिआ और बजांग विकास खंड के बैगाचक क्षेत्र के ५२ गांवों में निवास कर रही बैगा जनजाति हजारों वर्षोंा से बहुत सजगता से वनों का संरक्षण कर रही है । ३०-३५ हजार व्यक्तियों वाले इस समुदाय की मान्यता है कि `` वन लोगो की रक्षा करते हैं , न कि लोग वनों की । '' यहां वन संरक्षण को एक धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है । वन अधिकारियों ने `बहुमूल्य' जंगल लगाने के व्यावसायिक दृष्टिकोण से जहां ग्रामवासियों को जंगल की सफाई हेतु भुगतान किया वहीं व्यापारियों ने उन्हें आंवला और छार या चिरौंजी जैसे फलों एवं औषधीय जड़ी बूटियां निकालने के लिए धन दिया । पोंडी गांव की एक अस्सी वर्षीय गृहणी का कहना है कि , ` हमसे कहा गया था कि जंगल तो सरकार के हैं ।'' लाभकारी लताआें और जड़ी बूटियों के लुप्त् होने से स्थानीय समुदाय भी गरीब होने लगा । लोग वन विभाग और व्यापारियो द्वारा दी गई मजदूरी पर अधिकाधिक निर्भर होने लगे । १९९५ में साल वृक्षों को खा जाने वाली महामारी फैलने के बाद असंतोष अपने चरम पर पहुंच गया । अजगर गांव निवासी गोंडी सिंह रथूरिया का कहना है कि , ` हमसे स्वस्थ वृक्षों को भी काटने को कहा गया। संक्रमित वृक्षों से दुगने स्वस्थ वृक्ष काट डाले गए । हमने अपने पूरे जीवन में इतने बड़े स्तर पर कटाई नहीं देखी थी । इस दौरान अनेक गांवों में असंतोष भड़क उठा परन्तु उसे दबा दिया गया । परन्तु ग्रामवासी सतर्क हो गए थे और उन्होंने वनों के विनाश पर विमर्श आरंभ कर दिया । शीघ्र ही उन्हें यह भान भी हो गया कि लताआें के लुप्त् हो जाने से क्या हानि हुई है । एक स्थानीय वृद्ध वैद्य (चिकित्सक) वीर सिंह सरोदिया का कहना है कि लताएं मिट्टी और हवा की नमी बरकरार रखती हैं , जानवरों को छिपने का स्थान उपलब्ध करवाती हें , वृक्षों को इस तरह जकड़लेती है कि उनका गिरना रूक जाता है । परन्तु सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वनों को अभेद्य बनाती हैं । '' सिन्हार, कानियाकंद, गीथ और किरची जैसी लताएं , अनाज के स्थानापन्न के रूप में फल, बीज, फाईबर व कंद जैसे पौष्टिक पदार्थ भी उपलब्ध करवाती हें । सिन्हार की पत्तियों का उपयोग पत्तल बनाने व छत को ढंकने के काम में भी किया जाता है । लताआें के विलुप्त् होने से इस क्षेत्र के दलदल भी सूख गए । क्षेत्र में अनेक बड़े व छोटे दलदल थे । ये दलदल तेजराज, भृंगराज, कामराज व मूसली जैसी अनेक औषधीय जड़ी बूटियों के भंडार थे । प्रत्येक बीमारी का उपचार यहां उपलब्ध था । जहांपहले औषधीय जड़ी बूटी की६१ किस्में उपलब्घ थीं अब केवल १०-१२ बची है । सेरझार गांव के सरपंच धनसिंह कुसराम का कहना है कि` अन्य उपयोगी पौधें जैसे आंवला, हरेड़ा, सुरेई , आम व बांस भी विलुप्त् होते जा रहे हैं । हमारा जंगल मिश्रित जंगल था । यहां ५० प्रकार के विशाल वृक्ष पाए जाते थे अब इसमें से २३ ही बचे हैं । वहीं प्रत्येक १००० वृक्षों में से ९२० वृक्ष साल के हैं। वनों के संरक्षण के नियम बनाना एक अन्य आवश्यक कवायद थी। इसके अंतर्गत वृक्षों और लताआें के काटने पर प्रतिबंध , जब तक वन उत्पाद पूरीतरह से तैयार न हो जाएं तब तक उनके एकत्रीकरण पररोक, वनों की आग व चोरी रोकने के लिए चौकसी व व्यापारियों द्वारा बाहर से मजदूर लाने पर प्रतिबंध लगाया गया । वन में आवंला, आम , बांस और छार के पौधे लगाए गए । इसके उत्साहवर्धक नतीजे समाने आए । जिन १२ गांवों में संरक्षण का कार्य प्रारंभ हुआ था उसमें से तीन गांवों के पानी के स्त्रोत पहले तीन वर्षोंा में ही पुनर्जीवित हो गए । विलुप्त् हुए छार, तेंदूफल, मुसली और कादा जैसे मसाले ३२०० हेक्टेयर के उस जंगल में , जिसे गांववासियों ने संरक्षित किया था, पुर्नउत्पादित होने लगे । परन्तु समस्या का पूर्ण निराकरण अभी भी नहीं हो पाया है । पिछले कुछ वर्षोंा में ग्रामवासियों का वन विभाग के अधिकारियों से अनेकों बार आमना - सामना हुआ है । इसकी मुख्य वजह है, समान्य तौर पर गिरे वृक्षों के बजाए सरकारी तौर पर अधिक वृक्षों को काटकर बड़ी मात्रा में इमारती लकड़ी निकाल लेना । धाबा गांव में २००४ में कुल ४००० वृक्ष काटने हेतु चिन्हित किए गए। गांव वालों ने जब यह मांग की कि उन्हें उन वृक्षों का निरीक्षण करने दिया जाए तो अधिकारी बाहर से मजदूर ले आए । तब उत्पन्न विवाद में एक राजस्व धिकारी ने हस्तक्षेप किया और २०० वृक्ष काटे गए । पछले वर्ष रजनीसराय में नी चिन्हित वृक्षों में से आधे को ही काटने दिया गया। २००७ में रंजरा गांव में ३००० वृक्षों को काटने हेतु चिन्हित किया गया । ग्रामवासियेा के विरोध व लम्बे तनावपूर्ण संघर्ष के बाद हुए समझौते में बहुत कम पेड़ काटे गए । अक्टूबर -नवम्बर २००८ में अफसरों ने चुपचाप सरकारी कटाई के लिए वृक्षों को चिन्हित कर देने के फलस्वरूप अनेक गांवों में झड़पे हुई हैं । वैसे वन विभाग ने ऐसी मुठभेड़ों से इन्कार किया है । वरिष्ठ वन अधिकारी कहते हैं कि २००८ में रजनीसराय के अलावा कहीं भी विवाद की स्थिति नहीं बनी । वहीं सेराझर, धाबा, रजनीसराय और रंजरा की ग्रामसभाओं के दस्तावेज बताते हैं कि दोनों पक्षों के बीच अनेक समझौता वार्ताएं हुई हैं । वहीं रजरा गांव की फूलवती निनगुनिया का कहना है कि ,``विवाद की स्थिति पैदा होते ही अफसर कहने लगते हैं कि तुम्हें कौन भड़का रहा है ? वे यह स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि ये जंगल `हमारा है इसलिये यह हमारी चिंता का विषय है ।' अधिवक्ता अनिल गर्ग जिन्होंने क्षेत्र के भूमि- अभिलेख और सरकारी कटाई का अध्ययन भी किया है के अनुासर वन विभाग अभी भी अंग्रेजों के तरीकों से ही वन प्रबंधन कर रहा है और उसने स्वयं को इमारी लकड़ी के उत्पादन तक सीमित कर लिया है । मध्यप्रदेश के सभी जिलों की वन संबंधी कार्ययोजनाआें में वर्र्षोंां से मिश्रित वनों को `घटिया या निकृष्ट वन' की संज्ञा दी जाती रही है । सरकारी अधिकारी यह भी स्वीकार करते हैं कि उनकी कार्ययोजना में ऐसी लताआें और अन्य निकृष्ट किस्मों की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है । जबकि जैव विविधता और बेआगों की जीविका के लिए यह एक अनिावार्यता है । अपवादस्वरूप कार्ययोजना में कुछ हिस्सों मे ंजैव विविधता बनाए रखने की अनुशंसा की गइ्र है । वैसे सामान्य निर्देश हैं कि लताआें और बेकार झाड़ियों को नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि इससे साल और सागौन के वृक्षों की `वृदि्घ' में रूकावट आती है । सरकारी अधिकारी दावा करते हैं कि वे वैज्ञानिक तरीकों से पेड़ कटाई कर रहे हैं । वहीं दूसरी ओर बैगाआें का कहना है कि सरकारी कटाई बहुत ही नुकसानदायी है । रंजरा के सरपंच और वन अध्ययन समूह के अध्यक्ष जुगल निनगुनिया का कहना है कि `` जब एकपेड़ गिरता है तो उस पर आश्रित लताएं भी मर जाती हैं , जड़ी बूटियां और बीज भी नष्ट हो जाते हैं तथा इससे चिड़ियां और वन्यजीव भी विचलित हो जाते हैं । जिसके फलस्वरूप वन के पुनरूद्घार में भी विलंब होता है । '' ग्रामीणों का मानना है कि साल के वृक्षों की कटाई के लिए १२५ सेमी गोलाई तय करना भी उचित नहीं है । इतना तो वह २५ वर्षोंा में बढ़ जाता है । इसे स्वीकारता हुए छिंदवाड़ा स्थित वन विभाग के मानव संसाधन केंद्र के निदेशक सुनील बक्षी कहते हैं कि, `` वैसे तो साल वृक्ष सौ वर्ष तक जिंदा रह सकता है परन्तु इस गोलाई (३० सेे ३५ वर्ष में ) तक पहुंचने के बाद वह खोखला होने लगता है और उसका मूल्य भी घटता जाता है ।'' उत्पीड़न के भय से बैगा सरकारी कटाई को पूर्णतया रोकने की चुनौती नहीं दे रहे हैं , परन्तु उनका आग्रह है कि वृक्ष कटाई उनसे सलाह मशविरे के बाद ही हो । ***मच्छर नहीं फैलापाएंगे डेंगू ! मच्छरों को डेंगू व मलेरिया सहित कई खतरनाक बीमारियों का वाहक माना जाता है । लेकिन यदि मच्छर को ही संक्रमित कर दिया जाए तो यह हमारी जिंदगी के लिए खासा फायदेमंद साबित हो सकता है । एक वैज्ञानिक शोध के मुताबिक मच्छर को एक खास बैक्टीरिया वोल्बाशिया से संक्रमित कर दिया जाना न केवल उसके जीवनकाल को कम कर देगा, बल्कि उसके डेंगू व अन्य घातक बीमारियों के फैलाने पर रोक लगाने में कारगर साबित होगा । आनुवांशिक इंजीनियरिंग से बनाया गया बैक्टीरिया वोल्बाशिया से संक्रमित एडीस एजिप्टी(डेंगू को फैलाने वाला मच्छर) की उम्र सामन्य मच्छर की तुलना में आधी देखी गई। ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताआें के मुताबिक यह बैक्टीरिया मच्छर के डेंगू फैलाने की क्षमता को कम कर देगा । उल्लेखनीय है कि एडीस मच्छर में पलने वाला डेंगू का वायरस होने में दो हफ्ते का समय लेता है और उसके बाद संक्रमण फैलाने के काबिल हो जाता है । क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी के स्काटओ `नील के अनुसार बूढ़ी मादा एडीस एजिप्टी के द्वारा ही डेंगू फैलता है । यदि वोल्बाशिया से मच्छर को संक्रमित कर दिया जाए तो यह डेंगु की रोकथाम में काफी हद तक मददगार साबित हो सकता है ।

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