सोमवार, 30 अगस्त 2010

१ सामयिक

आस्था के नए प्रतिमानोें की तलाश
डॉ.ओ.पी.जोशी

पुरी की प्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा मेंप्रतिवर्ष एक हजार पेड़ों को काटकर रथ बनाए जाते हैं । पर्यावरणविदों का आग्रह है कि इस वार्षिक परम्परा में थोड़ा परिवर्तन कर इन रथों को तब तक इस्तेमाल किया जाए जब तक कि ये टूट न जाएं । क्या धार्मिक समाज इस विचार से सहमत हो जाएगा ?
पूर्वी भारत में स्थित उड़ीसा में प्रतिवर्ष होने वाली पुरी की भगवान जगन्नाथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है । इसमें देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं । इस वर्ष दस दिवसीय यह यात्रा १३ से २२ जुलाई के मध्य सम्पन्न हुई । पुराणों में भी इस यात्रा का वर्णन है । यह यात्रा बारहवीं शताब्दी के जगन्नाथ मंदिर से सुंदर साज-सज्जा के साथ लकड़ी के बने तीन रथों में निकलती है, जिनमेंं जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सुंदर झांकियां होती हैं। इन तीन रथों के निर्माण के लिए लगभग तेरह हजार घन फीट लकड़ी की आवश्यकता होती है,जिसे एक हजार वृक्षों को काटकर प्राप्त् किया जाता है । मंदिर प्रशासन लकड़ी के ८०० लट्ठे नयागढ़ व खुर्दा के जंगलों से प्राप्त् करता है । इनमें से लगभग ७०-७२ लट्ठों से तीनों रथ के ४२ पहिये बनाए जाते हैं । यात्रा समाप्ती पर इन रथों को तोड़कर प्राप्त् लकड़ी का उपयोग मंदिर के रसोईघरों में भोजन पकाने में किया जाता है ।
कुछ वर्ष पूर्व स्थानीय पर्यावरणविदों ने मंदिर प्रशासन से निवेदन किया था कि भगवान की पूजा के नाम पर एक हजार वृक्षों की कटाई नहीं होना चाहिए । यह श्रद्धा नहीं अंधभक्ति है । क्योंकि भगवान तो स्वयं पेड़ों एवं प्रकृति में विराजते हैं । पर्यावरणविदों ने यह भी कहा था कि उनकी जितनी श्रद्धा व आस्था इस यात्रा में है, उनती ही चिंता पेड़ों के कटने से बिगड़ते पर्यावरण की भी है । अत: इन दोनों के मध्य सामंजस्य होना जरूरी है । पर्यावरणविदों ने मंदिर प्रशासन को यह सुझाव दिया था कि स्थायी रथ बनाए जाएं एवं प्रतिवर्ष उनका उपयोग या फिर यात्रा के बाद रथ खोलकर रख दिए जाएं एवं अगले वर्ष फिर विधि-विधान अनुसार उन्हें जोड़कर तैयार किया जाए । इस तरह प्रतिवर्ष रथ तो नए बनेंगे परंतु लकड़ी वहीं रहेगी, जिससे पेड़ एवं पर्यावरण सुरक्षित रहेंगे ।
मंदिर प्रशासन ने पर्यावरणविदों के इन सुझावों को अस्वीकार करते हुए कहा था कि स्थायी रथ बनाना या उसी लकड़ी से प्रतिवर्ष नए रथ बनाना स्थापित धार्मिक मान्यताआें के विपरित है एवं इससे श्रद्धालुआें की भावना व आस्था प्रभावित होगी । हालांकि पुरी के कुछ वयोवृद्ध लोगों का कहना है कि जगन्नाथा मंदिर की कई प्राचीन परम्पराआें में समय अनुसार परिवर्तन किए गए हैं ।
प्रतिवर्ष पेड़ों को काटकर प्राप्त् लकड़ी से बनाए जाने वाले रथों की परम्परा पर भी कभी की सहमति से विचार कर परिवर्तन किया जाना चाहिए । स्थानीय वन-विभाग के अधिकारियों का मत है कि आगामी १५-२० वर्षोंा तक तो रथा यात्रा के लिए लकड़ी उपलब्ध हो जाएगी परंतु इसके बाद तो समस्या आना ही है । अत: कम से कम पांच वर्षोंा में एक बार नए रथ बनाए जाएं । इससे परम्परा भी जीवित रहेगी एवं पर्यावरण भी बचेगा ।
वैसे समय के साथ-साथ परम्पराआें में परिवर्तन आ रहे हैं एवं समाज इन्हें धीरे-धीरे मान्यता भी प्रदान कर रहा है । गणेश एवं दुर्गा प्रतिमाआें के विसर्जन से होने वाले भारी जल-प्रदूषण की समस्या के संदर्भ में अब लोग धातुआें की प्रतिमाएं स्थापित कर रहे हैं । नवम्बर २००९ में बार्सिलोना में संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन पर हुई बैठक में विभिन्न धर्मोंा के लगभग एक सौ धर्मगुरूआें ने पर्यावरण बचाने के कार्योंा को प्राथमिकता से करने हेतु कहा था कि धार्मिक स्थलों के कार्योंा में सौर ऊर्जा का उपयोग हो, जल-संवर्द्धन विधियां अपनाई जाएं, वृक्षारोपण, जंगलों की सुरक्षा एवं धार्मिक ग्रंथों का रिसायकिल कागज पर प्रकाशन हो । ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के समय में एक हजार वृक्षों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है । भले ही वन-विभाग काटे गए पेड़ों की तुलना में दो गुना या तीन गुना नए पौधे लगाए परंतु ये पौधे वृक्ष को बराबरी नहीं कर सकते हैं ।
वैसे भी अब पर्यावरण सुरक्षा सबसे बड़ा धर्म बनता जा रहा है एवं आस्था भी वही है जो पर्यावरण को बचाए ।
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