सोमवार, 12 अगस्त 2013

प्रदर्श चर्चा
गुजरात : मातृ स्वास्थ्य से खिलवाड़
ज्योत्सना सिंह
    गुजरात को देश के विकास का पैमाना बनाया जा रहा है । लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता संभवत: आधुनिक विकास की परिभाषा में नहीं आती । राज्य में मातृ स्वास्थ्य योजना की दुर्गति बताती है कि निजी स्वास्थ्य संस्थाएं महज लाभ से वास्ता रखती है ।
    गुजरात के पंचमहाल जिले की संतरामपुर तहसील की २४ वर्षीय आदिवासी उषा बेन को एक निजी अस्पताल में चिकित्सक की अनुपस्थिति में एक नर्स से अपना प्रसव करवाना पड़ा । चिकित्सक ने यह सुनते ही वह गुजरात सरकार की चिरंजीवी योजना की हितग्राही है, उसका उपचार करना बंद कर दिया था । प्रसव के तुरंत बाद बिना अनिवार्य प्रसवोत्तर देखभाल के उसे वापस घर भेज दिया गया । राज्य सरकार द्वारा वित्तपोषित इस योजना का उद्देश्य है सांस्थानिक प्रसवों को प्रोत्साहित कर आदिवासी एवं गरीबी रेखा से नीचे आने वाले वर्ग में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाना । यह योजना केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन द्वारा जननी सुरक्षा योजना, जिसका उद्देश्य भी मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य बेहतर बनाने के लागू होने के तुरंत बाद सन् २००५ में लागू की गई थी । चिरंजीवी योजना को लेकर इतनी समस्याएं सामने आ रही हैं कि अब तो महिलाएं भी इसका लाभ लेने से भी बचने लगी हैं ।
     चार माह पूर्व बड़ौदा की मलिन बस्ती में रहने वाली गीता राठवा ने अपने  प्रसव हेतु बजाए निजी के क्षेत्र के  सरकारी अस्पताल को प्राथमिकता दी । उनका कहना है, इस योजना का लाभ लेने के लिए निजी चिकित्सक ढेर सारे दस्तावेज मांगते हैं । इससे भी बुरा यह है कि हममें और भुगतान करने वालोंके   बीच भेदभाव करते हैं ।  उनका कहना है अपनी जांच के लिए वह एक निजी अस्पताल में ही गई थीं, लेकिन वहां उन्होंने मुझे अंत तक बैठाए रखा । 
    एक वर्ष की पायलेट परियोजना के रूप में  यह योजना नवंबर २००५ में राज्य के पांच सर्वाधिक पिछड़े जिलों बनासकाठा, दाहोद, कच्छ, पंचमहाल एवं साबरकाठा जिलों में प्रारंभ की गई थी । बाद में इसका विस्तार पूरे राज्य में कर दिया गया ।  योजना में गैर आयकरदाता एपीएल समूह को भी शामिल किया गया था। योजना के  मुताबिक सरकार ने निजी अस्पतालों के  साथ एक समझौते  पर हस्ताक्षर कर उन्हें १०० प्रसव हेतु  २,८०,००० रु. का पैकेज दिया, जिसमें सामान्य, सिजेरियन एवं जटिल तीनों  प्रकार के प्रसव शामिल थे । इसकी निगरानी हेतु सरकार ने दक्षिण गुजरात का गैर सरकारी संगठन `सेवा` ग्रामीण एवं भारतीय प्रसव एवं स्त्री रोग फेडरेशन के प्रतिनिधियों को विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया, लेकिन ८ साल बाद लाभार्थियों के साथ ही साथ चिकित्सक भी इस योजना से मुंह चुरा रहे हैं । सन् २००९ में जहां ८३३ चिकित्सक इसमें सूचीबद्ध थे वहीं अब यह मात्र ४७५ बाकी बचे हैं ।
    बड़ौदा के एक मान्यता प्राप्त अस्पताल के चिकित्सक का कहना है, हमें प्रति प्रसव २,८०० रु. मिलते हैं । जबकि हम अन्य मरीजों से काफी  अधिक लेते हैं । सन् २००९ में सरकार ने निजी चिकित्सकों के साथ भुगतान विवाद को लेकर बैठक की थी । इसमें चिकित्सकों ने कम भुगतान की शिकायत की थी । बड़ौदा में निजी अस्पतालों में सामान्य प्रसव की लागत ७,००० रु. एवं सिजेरियन की ४०,००० रु. तक एवं वलसाड में ४००० से ५००० एवं सिजेरियम १५००० से २५००० तक पड़ती है ।
    इसके साथ चिकित्सकों ने दस्तावेज सत्यापन की कठोर प्रक्रिया की शिकायत भी की । बड़ौदा के अस्पतालों का कहना है कि सरकारी कागजातों के  सत्यापन की विशेषज्ञता हममें नहीं है । चिकित्सकों द्वारा की गई धोखाधड़ियों के बाद शासन ने इस प्रक्रिया को कोठर बनाया । वलसाड की आशा कार्यकर्ता एक  गर्भवती महिला को वलसाड़ के निजी अस्पताल में जांच के लिए ले      गई । जब वह प्रसव के लिए पहुंची तो उससे दस हजार रुपए की मांग की     गई  । मना करने पर उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया । आशा कार्यकर्ता का कहना है कि ``अस्पताल सरकार के साथ ही साथ मरीजों से भी धन चाहते हैं । वलसाड के स्वास्थ्य विभाग ने ऐसे तीन अस्पतालों को बंद करने का आदेश दिया है ।
    इस योजना के प्रभाव  को लेकर सन् २०१२ में हुए अध्ययन में पाया गया है कि चिकित्सक भी लाभार्थियों का  उपचार करने से बचते हैं । भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान (आईआईपीएच, गांधी नगर) ने साबरकाठा के निजी अस्पतालों में लाभार्थियों एवं गैर लाभार्थियों में हुए सिजेरियन प्रसवों का तुलनात्मक अध्ययन किया । शोधकर्ताओं ने चिरंजीवी योजना के अंतर्गत मान्यता प्राप्त २३ अस्पतालों की २२४ और ४३ अन्य सुविधाओं की ३७२ माताओं का साक्षात्कार लिया उन्होंने पाया कि योजना की लाभार्थियों में जहां यह दर ६ प्रतिशत है वहीं गैर लाभार्थियों में यह दर १८ प्रतिशत है । संस्थान के निदेशक दिलीप मावलंकर का कहना है, ``सभी प्रसवों के लिए राशि निश्चित होने से सिजेरियन प्रसवों की संख्या में कमी आई है ।`` उनका यह भी कहना है कि संभवत: चिकित्सक उन्हीं मरीजों का चुनाव करते हैंजिनमें सामान्य प्रसव की आवश्यकता हो ।
    गुजरात में शहरी गरीबों में मातृ-शिशु मृत्यु दर कम करने हेतु प्रयासरत संस्था सहज की सुनंदा बेन का कहना  है ``एक  तयशुदा लागत (योजना में) की वजह से सिजेरियन प्रसवों की संख्या में कमी आई है । वे समझौता तोड़ सकते हैं, लेकिन भेदभाव नहीं कर सकत े।``  ``इस स्थिति से उभरने के लिए सरकार प्रोत्साहन राशि में वृद्धि का इरादा रखती है । वलसाड  के मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी ए.एस. संघवी का कहना है कि ``हमें इस ४००० रु. प्रति प्रसव तक बढ़ाने की सोच रहे हैं । वहीं मावलंकर का कहना है, ``अभी की  आवश्यकता  है कठोर निगरानी एवं शिकायत निवारण । योजना को सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक है मानव संसाधन और अधोसंरचना का विकास किया जाए । हमें अनियमितताओं पर नजर रखने के लिए आशा और ए.एन.एम. को  प्रशिक्षित करना आवश्यकहै । इसके अलावा सभी की पहुंच में आ सकने वाली क्लिनिक खोलना भी आवश्यक है । अहमदाबाद के स्वास्थ्य शिक्षा, प्रशिक्षण एवं पोषण जागरूकता संस्थान की निदेशक  इंदु कपूर का कहना है कि, ``बजाए सांस्थानिक प्रसव के, सुरक्षित प्रसव  पर जोर देना आवश्यक है । आदिवासी एवं ग्रामीण इलाकों में ऐसे क्षेत्र मौजूद हैं जहां पर अभी भी एम्बुलेंस नहीं पहुंच सकती । ऐसे स्थानों पर पारंपरिक प्रसव सहायकों को प्रोत्साहन देना चाहिए ।``
    चिरंजीवी योजना इस तरह बनाई गई है कि उसकी पहंुच सीमित है । छितरी जनसंख्या वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्त्री रोग विशेषज्ञों  की संख्या काफी कम है । इन दूरस्थ इलाकों हेतु गुजरात सरकार ने दमन एवं दीव सरकार से एक समझौता किया था । लेकिन वह भी मूर्तरूप नहीं ले पाया । यह विश्वास कर लेना भी गलत है कि सभी निजी अस्पताल अच्छे हैं और वे स्वीकार्य  सेवा  प्रदान कर पाएंगे । इस तरह की योजना को निरंतर निगरानी की दरकार रहती है । ऐसा लगता है कि सरकार ने भी निजी अस्पतालों से समझौते पर हस्ताक्षर कर अपनी जिम्मेदारी  से पल्ला झाड़  लिया और उन्हें (अस्पतालों) तो केवल लाभ से लेना देना है । अंत में सर्वाधिक  घाटे में संभाव्य माताएं ही हैं  जिन पर सर्वाधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है । 

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