शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

विज्ञान हमारे आसपास
सीएफएल: बचत के साथ साइड इफेक्ट्स
जी.अनंतकृष्णन

    बिजली की बचत करने वाले फ्लोरेसेंट लैम्पस की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन इससे निकलने वाले घातक अपशिष्ट पदार्थो के सुरक्षित निस्तारण को लेकर कोई पहल नहीं की गई है । इस वजह से यह पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या बनती जा रही है ।
    हवा, मिट्टी और पानी में धीरे-धीरे लगातार जो पारा घुलता जा रहा है, उससे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है । लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे नीति निर्धारकोंको इसकी कोई चिंता नहीं है । हमारे देश में हर साल बड़ी मात्रा में घातक और जटिल धातु नगर निकायों के लैंडफिल्स (कचरा भराव स्थलों) और हवा में छोड़ी जा रही है । यह धातु और कोई नहीं, बल्कि पारा है जो तथाकथित ग्रीनसोर्स  फ्लोरेसेंट लैम्प्स से निकल रही है । आज देश में बिजली की मांग और कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के प्रयास के तहत करोड़ों की संख्या में इन फ्लोरेसेंट लैम्प्स का इस्तेमाल किया जा रहा है । 
     भारत में फ्लोरेसेंट ट्यूबलाइ्टस (एफटीएल) और कॉम्पैैक्ट फ्लोरेसेंट लैम्प्स (सीएफएल) के घरेलू उत्पादन में हर साल आठ टन पारे का और आयातित सीएफएल में तीन टन पारे का इस्तेमाल किया जाता है । पर्यावरण व वन मंत्रालय भी स्वीकार करता है कि जितनी तेजी से इन लैम्पों की लोकप्रियता बढ़ी है, उसके मुकाबले उससे निकलने वाले जहरीले अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण की दिशा मेंबहुत कम काम किया गया है ।
    आज से पांच साल पहले पर्यावरण व वन मंत्रालय ने इस मामले में फ्लोरेसेंट लैम्प के संदर्भ में पारे के पर्यावरण अनुकूल प्रबंधन को लेकर एक कार्यबल गठित किया था । इस पैनल की रिपोर्ट बहुत ही स्पष्ट है । इस मुद्दे को अब और अधिक नहीं लटकाना चाहिए और लैम्प्स की अवधि खत्म होने के बाद उसके जहरीले अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण का दायित्व उद्योग व सरकार दोनों को उठाना चाहिए ।
    यह सर्वाविदित है कि जब पारा उसके यौगिक मिथाइल मरक्यूरी में तब्दील हो जाता है तो वह मछलियों में संचित होने लगता है । जब ये मछलियां खाई जाती है तो मानव के स्वास्थ्य, खासकर भ्रुण को गंभीर नुकसान पहुंचता है । पारे की वाष्प जब सांस में जाती है तो इससे भी कई स्वास्थ्य संबंधी लक्षण उभरते हैं । अन्य स्वास्थ्य संबंधी प्रभावों पर भी इस समय शोध जारी है ।
    लैम्पों के निस्तारण की समस्या को मंत्रालय के कार्यबल ने भी स्वीकार किया है । कार्यबल की रिपोर्ट के अनुसार फेंके गए लैम्पों से निकले पारे का एक अंश हवा में घुल जाता है, जबकि शेष हिस्सा मिट्टी में मिलकर सतही और भूमिगत पानी को प्रदूषित कर देता है । यह समस्या बड़े शहरों में ज्यादा गंभीर है, जहां बाजार में आने वाले कुल ४० करोड़ सीएफएल और २५ करोड़ एफटीएल में से बड़ा हिस्सा खपता है । एक और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विकसित देशों की तुलना में भारत मे बनने वाले फ्लोरेसेंट लैम्पों में पारे की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है । इस बात का खुलासा कई स्वतंत्र शोधकर्ताआें व स्वयं कार्यबल की रिपोर्ट में भी हुआ है ।
    नियमों की बात करें तो भारत में फ्लोरेसेंट लैम्प्स को न तो शहरी अपशिष्ट माना गया है और न ही इन्हें खतरनाक अपशिष्ट पदार्थो की श्रेणी में रखा गया है । पारा और उसके योगिकों को खतरनाक अपशिष्ट पदार्थ (प्रबंधन, संचालन एवं सीमापार परिवहन) नियम २००८ की अनुसूची २ के तहत श्रेणी ए मे ंसूचीबद्ध किया गया है । लेकिन जब इनका उपयोग घरों और कार्यालयों में इस्तेमाल होने वाले लैम्पों में किया जाता है तो जाहिर है कि ये शहरी कचरे में पहुंच जाते हैं ।
    जीवाश्म ईधन, खासकर कोयले को जलाने से वातावरण में उत्सर्जित होने वाले पारे की जो व्यापक समस्या है, उससे उलट फ्लोरेसेंट लैम्प्स मनुष्य जनित प्रदूषण का द्वितीयक स्त्रोत है । इस छोटी लेकिन लगातार बढ़ती समस्या को नियंत्रित करना कहीं आसान है बनिस्बत कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाले पारे को नियंत्रित करना ।
    आश्चर्य की बात तो यह है कि न तो केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय और न ही राज्य सरकारें ने इस समस्या से निपटने के लिए अपनी ओर से कोई बड़ी पहल की है । दिसम्बर २०११ में तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण व वन राज्य मंत्री  श्रीमती जंयती नटराजन ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में  बताया था कि मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राज्य सरकारों को पत्र लिखकर उनसे कहा था कि वे ऐसी रिसाइक्लिंग इकाइयां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहन दे जहां फ्यूजड़ सीएफएल और एफटीएल को अच्छी तरह से एकत्र किया जाए और फिर उनसे पारा निकालकर उसे वैज्ञानिक तरीके से रिसाइकिल किया जाए ।
    राज्य सरकारें शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थ (प्रबंधन एवं संचालन) नियम २००० को ही समुचित रूप से क्रियान्वित नहीं कर पाई है, यहां तक कि सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के तहत भी वे इसमें विफल रही हैं । ऐसे में उन्हें फ्लोरेसेंट लैम्प्स की समस्या का कोई समाधान नजर नहीं आता । चेन्नई नगर निगम के साथ भी यही स्थिति है । यह शहर की सीमा पर बने दो विशालकाय डम्प साइट्स पर रोजाना टनों कचरा डंप करता है । इस लेखक ने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन देकर चेन्नई नगर -निगम से यह जानना चाहा था कि वह फ्यूज्ड फ्लोरेसेंट लैम्प्स और बैटरियों के संग्रहण और उनके निस्तारण के लिए क्या तरीके अपनाता है । इसका जवाब उसने इस तरह से दिया - ये आइटम शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थो की श्रेणी में नहीं आते और इसलिए यह चेन्नई नगर-निगम की जिम्मेदारी नहीं हैं । हालांकि सच तो यह है कि ये लैम्प्स हर जगह निगम की कचरा-पेटियों में ही फेंके जाते हैं ।
    इससे यह साफ है कि सरकारी स्तर पर लोगों के स्वास्थ्य के प्रति कितनी उदासीनता व्याप्त् है । अदालतों द्वारा समय-समय पर पर्यावरण संबंधी सवालों पर दिखाई गई सक्रियता के बावजूद राज्यों और उनके प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वातावरण में इस अत्यन्त घातक पदार्थ को छोड़े जाने को लेकर कोई कदम नहीं उठाए हैं । पारे के निस्तारण की यह समस्या हमारे शहरों के लिए एक मौका भी है । इसके जरिए वे न केवल एक समस्या के समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, बल्कि शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थ नियमों को भी पूरी समग्रता के साथ क्रियान्वित कर सकते है । उपभोक्ता के स्तर पर ही कचरे को अलग-अलग करके और रिसाइकिल होने वाले पदार्थो को संग्रहित करके अपशिष्ट पदार्थो के निस्तारण की पूरी श्रृंखला बनाई जा सकती है । इससे बैटरियों, प्लास्टिक, कांच और धातुआें के रूप में पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सकेगा । शहरी ठोस अपशिष्ट पदार्थ नियमों में भी यही व्यवस्था की गई है, लेकिन पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से हमारे यहां इसका क्रियान्वयन ही नहीं हो पाया है ।
    फ्लोरेसेंट लैम्प्स के मामले में एक रास्ता यह है कि इसके खराब होने पर उसे स्थानीय निकायों या किसी भी मान्यता प्राप्त् रिसाइकिल उद्योग को सौंपने पर उपभोक्ता को कुछ नगद राशि प्रोत्साहन स्वरूप मिले । यह राशि एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पॉन्सिबिलिटी (निर्माता की विस्तारित जवाबदेही) सिद्धांत के तहत लैम्प्स निर्माताआें से वसूल की जा सकती है ।

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