रविवार, 10 अगस्त 2014

कृषि जगत
भारतीय कृषि में संचार की उपयोगिता
अनिल सिंह सोलंकी
    भारतीय कृषि में कृषि-संचार की उपयोगिता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि देश के ५० प्रतिशत से अधिक किसानोंने कृषि-संचार का उपयोग तक नहीं किया है ।
    कृषि-संचार, जो विज्ञान संचार का एक उपवर्ग है, को कृषि विशेषज्ञों, कृषि विस्तार अधिकारी और स्वतंत्र लेखकोंद्वारा किया जाता है । दूसरी ओर, कृषि पत्रकारिता के जिम्मे कृषि खोजोंऔर उनके क्रियान्वयन पर जनता और समाज की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का काम है । 
     कृषि संचार का पहला काम मौसम परिवर्तन के आधार पर किसानोंको सूचना देने का होगा । हालांकि सरकारी नीतियों में इसकी अनुपस्थिति से किसानों और कृषि अनुसंधान के बीच एक अंतर बन गया है । यह उपेक्षित क्षेत्र है । अत: कृषि संचार और कृषि पत्रकारिता को फिर से एक नए रूप मोबिलाइजिंग मास मीडिया सपोर्ट फॉर शेयरिंग एग्रो इन्फॉर्मेशन शुरू किया गया है । यह परियोजना २००९ से रार्ष्टीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा देश भर के १० कृषि अनुसंधान केन्द्रोंपर शुरू की गई है । इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य जन संचार के माध्यमोंसे किसानों तक नए कृषि अनुसंधानों के परिणाम पहुंचाना है ।
    देश के लाखोंकिसान कृषि में हो रहे किसी भी नुकसान को सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़कर नहीं देखते मगर ७० प्रतिशत किसानों का कहना था कि उनकी फसल बे-मौसम बारिश, सूखा और बाढ़ की वजह से बर्बाद हुई है । १९९४ में डी.जी. राव और एस.एन. सिन्हा ने बताया जलवायु परिवर्तन किसानों को क्षति पहुंचा रहा है । जैसे भारतीय कृषि में यदि आज उपस्थित कार्बन-डाईऑक्साइड की मात्रा दुगनी हो जाए, तो जलवायु परविर्तन के चलते धान और गेहूं की पैदावार लगभग २८ से ६८ प्रतिशत तक प्रभावित हो सकती है । तापमान में २ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से चावल की उपज में लगभग ०.७५ टन/हेक्टर की कमी होने की संभावना है । कम उपज वाले तटीय क्षेत्रों में लगभग ०.०६ टन/हेक्टर तक की कमी हो सकती है । ०.५ डिग्री सेल्यिसय तापमान बढ़ने से अधिक उपज देने वाले क्षेत्रों (जैसे पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश) में पैदावार में लगभग १० प्रतिशत तक कमी हो सकती है ।
    हर वर्ष करीब २.७ लाख लोगों का जीवन समुद्र तटीय इलाकों में जल स्तर में वृद्धि होने से प्रभावित होता रहा है । ऐसे में किसानों से अपेक्षा है कि वे जलवायु परिवर्तन के चलते २०३० तक कृषि की पैदावार बिना तकनीकी सहायता के बढ़ाएं । हाल यह है कि जलवायु परिवर्तन में होने वाले बदलाव को समझने के लिए देश को बाहरी रिसर्च सेंटर्स पर निर्भर रहना पड़ता है । इस समस्या से पार पाने के लिए भारत में आईपीसीसी जैसे केन्द्र स्थापित करने होंगे ।
    मौसम विभाग बारिश के बारे में पहले से जानकारी देने देने में सक्षम है । बहुत कम लोग शायद जानते हैं कि भारतीय मौसम विभाग ओलावृष्टि की पूर्व जानकारी देने में सक्षम नहीं है । खराब मौसम के चलते इस वर्ष मध्यप्रदेश में १० लाख टन गेहूं, १० लाख टन चना, ३ लाख टन दालें और अन्य फसलें  (१,५०,००० टन) बर्बाद हो चुकी हैं । मध्यप्रदेश में किसानों को राहत के तौर पर गेहूं में १५,००० रूपये प्रति हेक्टर के हिसाब से, महाराष्ट्र में १०,०००, १५,००० और २५,००० रूपये मुआवजा राशि क्रमश: वार्षिक, फलोघान और सिंचित फसलों के लिए देने का आश्वासन किसानों को दिया गया है । जबकि राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और आंधप्रदेश में अभी किसानों को मुआवजा मिलना बाकी है, क्योंकि वहां पर फसल-कटाई विधि को मानक मानकर फसल हानि का अनुमान लगाकर क्षतिपूर्ति दी जाएगी । फसल-क्षति का जो कोई भी तरीका हो, फसल क्षति समय रहते किसानों को मिल जाए तो ये उनके लिए बहुत बड़ी मदद होगी । देश में २०० करोड़ रूपये सिर्फ फसलक्षति को पूरा करने में चला गया है ।
    कृषि संचार और कृषि पत्रकारिता मेंअंतर है । किसानों पर इनके असर को लेकर हमें हाल के वर्षो के कुछ महत्वपूर्ण डैटा मिले । कृषि विशेषज्ञों के अनुसार मध्यप्रदेश में गेहूं की उपज २० क्विंटल/एकड़ है, जो अच्छे मौसम में कुछेक किसान ही ले पाते हैं । औसतन तो गेहूं १८-२० क्विंटल/एकड़ ही निकलता है, जो विशेषज्ञों द्वारा बताई गई उपज से ६-८ क्विंटल/एकड़ कम है । इस वर्ष बे-मौसम बारिश और ओलावृष्टि ने गेहूं की इसी उपज को १०-१४ क्विंटल/एकड़ तक कर दिया है जो सरकारी औसत से १६-१२ क्विंटल/एकड़  एवं किसानों के असल औसत से ६-८ क्विंटल/एकड़ तक कम है । सिर्फ किसान के औसत से ही इस वर्ष लगभग ९३०० रूपये प्रति एकड़ रूपये का नुकसान किसानों को हुआ है । सरकार ने मुआवजा की राशि ७५०० रूपये प्रति एकड़ का आश्वासन दिया है, जिसमें किसानों को ८०० रूपये प्रति एकड़ का नुकसान मुआवजे के बाद भी है । यहां पर कृषि संचार जो सरकार के तंत्र द्वारा किया गया है, को संतुलित करने के लिए कृषि पत्रकारिता की सख्त आवश्यकता है ताकि किसानों की बात और उनकी खेती-बाडी का असल हाल सरकार के समक्ष ठीक-ठीक रखा जा सके ।
    दूसरी तरफ, मध्यप्रदेश में सोयाबीन फसल विगत ३-४ सालों से खराब हो रही है । पब्लिक-प्राइवेट सोयाबीन सेंटर्स वर्ष के शुरू में ही सोयाबीन फसल के अच्छा होने का अनुमान लगा लेते हैं । यह किसान के लिए तब बुरा होता जब वे इस पर आंख मूंदकर विश्वास करने लगते हैं और अधिक बुरा तब होता है जब कृषि संचार के तहत उनकी इस भविष्यवाणी को आधार मानकर संचार किया जाता है एवं किसान की फसल-बर्बादी का नकारा जाता है । इसका कारण है कृषि पत्रकारिता जो किसानों की दशा को ठीक से माप नहीं पाती । पत्रकारों के सीमित समय देने के कारण फार्म-रिपोर्टिग ठीक से नहीं हो पाती जिसके फलस्वरूप कृषि संचार की फसल-भविष्यवाणी को ही सर्वोपरि मान लिया जाता है । राष्ट्रीय स्तर पर इसे चुनौती देने की जरूरत है । यह काम स्थानीय मीडिया भलीभांति कर सकता है और उम्मीद की जाती है कि वे फार्म-रिपोर्टिग अच्छी तरह से करें ताकि देश-दुनिया को खबर सही-सही लगे ।
    मशहूर लेखक बिल ब्रायसन कहते है - एक किसान को तीन चीजें मार सकती है : आसमान से गिरने वाली बिजली, ट्रेक्टर से कुचला जाना और बुढ़ापा । जलवायु परिवर्तन के तहत खराब मौसम चौथा कारक होगा जो कृषि को बहुत हद तक प्रभावित कर सकता है, जो आगे चलकर उनकी मौत का कारण भी बन सकता है । फरवरी-मार्च में ओलावृष्टि ने विभिन्न राज्यों में गेहूं, दलहन, गन्ना, चना, सरसों, मक्का, मूंगफली, अंगूर, पपीता, आम, केला अहौर सब्जियों को लगभग ४०-६० प्रतिशत तक बर्बाद कर दिया है ।
    हमारे देश में कुछ और ऐसे ही कारणों की वजह से लगभग २,५०,००० किसान आत्महत्या कर चुके हैं जिनमें १५ प्रतिशत महिलाएं थी । फिलहाल देश में ११ करोड़ किसान रह गए हैं, जो २०११ में १२ करोड़ थे । कुछ और सर्वे बताते हैं कि ७६ प्रतिशत किसान खेती नहीं करना चाहते हैं, वहीं ६१ प्रतिशत का कहना है कि अगर वे बड़ी जगहों पर रहते तो उच्च्-शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के अवसरों का लाभ उठाते । समय है कृषि-संचार और कृषि पत्रकारिता पर काम करने की ताकि किसान और कृषि का विकास हो सके ।

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