बुधवार, 14 जनवरी 2015

विशेष लेख 
भूगोल का आध्यात्म
सचिन कुमार जैन
पूरी सृष्टि हमेशा ही प्रवास पर रहती है । हिमालय पर्वत भी चार करोड़ वर्षों में ६००० किलोमीटर का सफर कर अफ्रीका से एशिया महाद्वीप पहुंचा है । नेपाल के जंगलों का सफर हमें अतीत के अनुभव से समझा रहा है कि स्थायित्व का हमारा आशय कमोवेश निरर्थक है । आवश्यकता इस बात की है कि हम इस घरती पर एक मेहमान की तरह ही रहें और आने वाले सहयात्री को सौंपते जाएं ।   
जंगल, पर्वत और झरने लगते तो आध्यात्म का विषय हैं, परंतु पहले यह भूगोल का विषय हैं और आध्यात्म भूगोल का विषय भी है । इन दृश्यों को जब मैंने भूगोल के  साथ जोड़ा तो मुझे इन पर्वतों की ऊँचाई से ज्यादा गहराई का अंदाजा हुआ । वास्तव में आज भारत पृथ्वी के जिस हिस्से पर है (यानी एशिया में) वह २२.५ करोड़ साल पहले ऑस्ट्रेलियाई तटों के आसपास तैरता एक द्वीप था । टेथिस महासागर इसे एशिया से अलग करता था । इसका जुड़ाव एशिया से नहीं था । धौलागिरी के यह ऊंचे पहाड़ लाखों साल पहले अस्तित्व में थे ही नहीं ।
         भारत तब गोंडवाना या गोंडवाना भूमि का हिस्सा था । इसमें दक्षिण के दो बड़े महाद्वीप और आज के अंटार्कटिका, मेडागास्कर शामिल  थे । भारत, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे देशों से मिलकर बनी यह भूमि । गोंडवाना यानि गोंडो का जंगल । इस अंचल का अस्तित्व ५७ से ५१ करोड़ साल पहले माना जाता है । ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने यह नाम दिया था । आज जमीन, जिस सीमा रेखा और राजनीतिक नक्शे के लिए लोग लड़ रहे हैं, वह पहले ऐसा नहीं था और आगे भी शायद ऐसा नहीं रहेगा । भू-भाग बदलते रहे हैं और आगे भी बदलते रहेंगे । तब यह कैसा राष्ट्रवाद, जबकि राष्ट्रों की कोई स्थाई सीमा-रेखा ही नहीं है ?
धरती की ऊपरी सतह को भू पटल कहते हैं । इसी में खनिज व गैस मिलते हैं । भूपटल के नीचे की सतह को स्थलमंडल कहते हैं । यही महाद्वीपों और महासागरों को आधार देता है । इसकी मोटाई १०० किलोमीटर या इससे कुछ ज्यादा हो सकती है । इस आवरण में मजबूत चट्टानें होती हैं । धरती में स्थलमंडल के नीचे की परत को दुर्बलतामंडल कहते हैं । यह परत द्रवीय या तरल होती है। मजबूत चट्टानों वाला स्थलमंडल इसी परत पर तैरता रहता है । ये तश्तरियां (जिन्हें टेक्टोनिक प्लेट कहते हैं) स्थिर नहीं बल्कि गतिमान होती हैं । यानी भू-गर्भीय घटनाओं और परतों की चारित्रिक विशेषताओं के कारण यह खिसकती रहती हैं । इनकी गतिशीलता के  कारण ही तीन लाख साल पहले कई महाद्वीप मिलकर विशाल पेंजिया महाद्वीप (उस समय का सबसे बड़ा महाद्वीप, जो कई द्वीपों से मिलकर बना था) बन गए थे ।
भारत तब अफ्रीका से सटा हुआ था । २० करोड़ साल पहले धरती के अंदर ताप संचरण की क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाली भू-गर्भीय घटनाओं के कारण यह महाद्वीप टूटने लगा और छोटे-छोटे द्वीपों में बंट कर अलग-अलग दिशाओं में जाने लगा । ८.४० करोड़ साल पहले भारत ने उत्तर दिशा में बढ़ना शुरू कर ६ हजार किलोमीटर की दूरी तय की और ४ से ५ करोड़ साल पहले वह एशिया के इस हिस्से से टकराया । इस टक्कर के चलते भूमि का एक हिस्सा ऊपर की ओर उठने लगा । दो महाद्वीपों के टकराने व प्लेटों के एक दूसरे पर चढ़ने के  कारण हिमालय बना । इन पर्वतों पर समुद्री जीवों के अवशेष मिलते हैं । इन पहाड़ों की ऊपरी सतह के  खिरने से जो पत्थर निकलते हैं, वे भी ऐसे ही गोल होते हैं, जैसे नदियों या बहते पानी में आकार लेते हैं,  यानी ये हिस्सा कभी न कभी पानी में रहा है । 
माना जाता है कि भारत का भूभाग ज्यादा  ठोस था और एशिया का नरम, इसलिए एशिया का भूभाग ऊपर उठाना शुरू  हुआ और हिमालय पर्वतीय श्रृंखला की रचना हुई । यहाँ के पर्वतों की ऊंचाई ज्यादा तेज गति से बढ़ी और यह अब भी हर साल एक सेंटीमीटर की दर से बढ़ रही    है । क्योंकि भारतीय विवर्तनिक प्लेट (टेक्टोनिक प्लेट) भूकंपों के कारण अब भी धीमी गति से किन्तु लगातार उत्तर की तरफ खिसक रही है इसका अर्थ है हिमालय अभी और ऊँचा  होगा । हिमालय की ऊंचाई हमेशा से १ सेंटीमीटर की गति से नहीं बढ़ रही थी । यदि यह गति होती तो ४ करोड़ सालों में हिमालय की ऊंचाई ४०० किलोमीटर हो जाती । पर्यावरणीय कारणों और अनर्थकारी मानव विकास की लोलुपता के चलते विवर्तनिक प्लेटों में ज्यादा गतिविधियां हो रही है और भूकंपों के नजरिए से भी यह क्षेत्र बहुत संवेदनशील हो गया है। प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है । हिमालय पर्वत बहुत विशाल होने के बावजूद, बहुत नाजुक पहाड़ भी है। अधिक भारी अधोसंरचनात्मक विकास गतिवि-धियां यहां विनाश ही लाएंगी । 
जब किसी सपाट सड़क पर हम आधुनिक वाहन में पर्यटन के  लिए निकलते हैं, तब क्या हमें कभी यह अहसास होता है कि धरती के  जिस हिस्से पर हम चल रहे हैं, उसका जीवन ४ से ५ करोड़ साल का हो चुका है ? यह अहसास तभी होगा जब हम इसके साथ अपने भीतर के तत्वों को जोड़ेंगे । तभी हम पंचतत्वों को पहचान पाएंगे । वर्ष २०१३ में उत्तराखंड की बाढ़ के बाद समझ नहीं आ रहा था कि पहाड़ पर बाढ़ कैसे आएगी ? वहाँ तो बारिश के पानी को रोकने के लिए कहीं कोई बाधाएं ही नहीं है । गौरतलब है आम तौर पर मेघ बूंदें बरसाते हैं, पर जब बादल फटते हैं तो आकाश से धाराएं बरसती हैं । यानि मौसम का चक्र बदलने की वजह से जमीन और आकाश के  रिश्तों में आई कड़वाहट से मेघ गुस्सा हो रहे हैं । अब वे बूँदें नहीं तूफान बरसाते हैं । संकट का दूसरा दौर हमने उत्तराखंड के पहाड़ों में जंगल काट और जलाकर तैयार कर दिया था । अब पानी की धार को कौन रोकेगा ? ये धार बांधों से तो नहीं रुकने वाली । ये तो जल्दी ही बांधों को भी बहाकर ले जाने वाली है । 
वर्ष २०१३ को अपवाद बताने वाले सन् २०१४ की कश्मीर की घाटी के प्रलय को क्या कहेंगे। वहां पानी ऐसा रुका कि बस साढ़े साती की तरह जम गया....। श्रीनगर का उदाहरण लीजिए । यह एक कटोरे के रूप में बसा हुआ शहर है । झेलम नदी इसके बीच से गुजरती है । कहीं एकाध जगह थी, जहाँ से अतिरिक्त मात्रा में आया पानी बहकर निकल जाता था । इससे पहले वहां वर्ष १९०२ में कुछ ऐसी की बाढ़ आई   थी । परंतु विकास के पैरोकारों ने कहा कि विकास करेंगे तो इससे स्थिरता आएगी । बस इसी विकास के चलते वो नहरें और धारा बिंदु मिटा दिए गए, जहाँ से श्रीनगर का पानी बाहर निकलता था । असम और अरुणाचल प्रदेश में भी पिछले साल बाढ़ आई थी और २ लाख लोग बर्बाद हो गए ।
इस साल कश्मीर के बाद उत्तर-पूर्व में फिर से बाढ़ आ गयी । इसके कारण व परिणाम दोनों ही हम जानते हैं। वैसे भी यह एक्ट आफ गाड नहीं है । सोचिए, हम किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हैं ? बीमा और मुआवजा कुछ बचा थोड़ी पाते हैं । राहत कार्यों से नदी की बाढ़, आसमान से बरसने वाला प्रलय और हिमालय की बढ़ती ऊंचाई को कुछ समझ पायेंगे ? हर बार की बाढ़ अब पहाड़ों की एक परत को बहा ले जाती है । अब बाढ़ खेत की मिट्टी की सबसे जिन्दा परत को उखाड़ कर ले जाती है । जबकि पहले तो वह उपजाऊ मिट्टी लाती थी । यानि एक बार राहत या मुआवजे देने से अब कुछ न होगा । अगले साल बाढ़ न भी आई, तो खेतों में क्या और कितना उगेगा ? किस सरकार या कंपनी में इतनी मानवता है कि वह उत्तराखंड के पहाड़ों का पुनर्निर्माण करने वाली परियोजना चला सके ? हम विश्व निर्माण की मूल कथा और उसके विज्ञान को जानना ही नहीं चाहता । 
एक नया घर बनाते समय जो कुछ हम फेंक देते हैं, वह मलबा नहीं, बल्कि हमारे अपने अवशेष हैं । हमारा जीवन कुछ सालों का नहीं, बल्कि करोड़ों सालों का है । याद रखिए यह आपदा नहीं, हमारे अपराध हैं । तय कीजिए कौन अपराधी है और कौन दंड देगा ? यह आत्मनिर्णय की घड़ी है । 

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