बुधवार, 14 जनवरी 2015

जनजीवन
स्वच्छता अभियान मेंसमग्र दृष्टिकोण जरूरी 
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित 
सफाई का महत्व सभी के लिये है । कचरे का संबंध हर व्यक्ति से है क्योंकि वह उसका उत्पादक है और कचरे से होने वाले खतरों का सामना भी उसे ही करना है । भारत सरकार द्वारा शुरू किये गये स्वच्छता अभियान के दूरगामी परिणामों के लिये सफाई से जुड़े सभी पक्षो पर विचार करना  होगा । 
मनुष्य का कचरे से संबंध बहुत पुराना है । आदि मानव अपने भोजन के लिये पशु-पक्षियों का शिकार कर मांसाहार करने के बाद बची हुई हडि्डयां एवं अन्य गंदगी कहीं भी फेंक देता था । आज २१वीं शताब्दी में जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि, शहरीकरण, औघोगिकरण और भोगवादी सभ्यता के विकास ने कचरे की समस्या को बहु-आयामी विस्तार दिया है । वर्तमान में यह दुनिया की प्रमुख समस्याआें में से एक है । 
प्रकृति में प्राकृतिक रचना और मानव निर्मित उत्पादनों में बुनियादी अंतर यही है कि प्राकृतिक उत्पाद अपनी उपयोगिता पूर्ण होने पर पुर्नचक्रित होकर पुन: प्रकृति का हिस्सा बन जाते है । वहीं मानव निर्मित वस्तुएं अनुपयोगी होने पर कचरे में शामिल हो जाती है । कचरे को उपभोक्तवादी सभ्यता का उपहार कहा जा सकता है । आज जो देश और समाज जितना अधिक उपभोक्तावादी है, वह उतना ही अधिक कचरा उत्पादक भी है । हमारे देश में भी आदिवासी समाज और ग्रामीण क्षेत्रों में जहां उपभोक्तावाद का असर कम है, वहां कचरा उत्पादन अत्यन्त कम है । 
कचरे की श्रेणी में वे सभी पदार्थ आते है, जिनके अनियोजित एकत्रीकरण से किसी न किसी रूप में प्रदूषण होता है और परिणाम स्वरूप मानव एवं अन्य जीवों के जीवन और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । कचरे में प्रमुख रूप से पॉलीथीन, प्लास्टिक, क्राकटी, कागज, कांच, धातु के टुकड़े, रबर और चमड़ा आदि है, जो बाहरों एवं ग्रामीणों क्षेत्रों में बिखरे हुए देखे जा सकते हैं । 
सौंदर्य के प्रति आकर्षण ने मनुष्य में सफाई के प्रति संवेदनशीलता पैदा की है । इसलिये कचरे से निपटने के प्रयास पिछले ५००० वर्षो से निरन्तर चल रहे है । करीब ५००० वर्ष पूर्व ग्रीस से पहली बार कचरे का उपयोग भूमि-भराव में किया गया था, आज भी सारी दुनिया में कचरे को ठिकाने लगाने के विकल्पों में भूमि-भराव प्रमुख है । देश में कचरा प्रबंधन का दायित्व स्थानीय शासन संस्थाआें पर है, किन्तु कमजोर आर्थिक स्थिति और संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश संस्थायें इस कार्य को ठीक से नहीं कर पा रही है । 
राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनि-यरिंग शोध संस्थान (नीरी) द्वारा देश के ४३ शहरों से एकत्रित जानकारी से पता चलता है कि शहरी कचरे में ४०-५० प्रतिशत तक ठोस जैव विघटनशील पदार्थ होते है । इसके अलावा राख, बारीक मिट्टी, कागज, प्लास्टिक, धातुएं और कांच वगैरह होते है । ठोस कचरे का आमतौर पर भूमि भराव में उपयोग होता है । इस प्रक्रिया से जल-प्रदूषण होता है, क्योेंकि इन स्थलों से कई विषैले पदार्थ भू-जल में रिस जाते हैं । 
देश में ठोस, अपशिष्ट विर्स्जन विधियां मोटे तौर पर तीन वर्गो में वर्गीकृत की जा सकती है - एक पदार्थ पुर्नचक्रण, दो ताप पुन: प्रािप्त् और तीन - भूमिगत    विसर्जन । कचरे से पदार्थो की पुन: प्रािप्त् और पुर्नचक्रण में कचरा बीनने वालों की भूमिका मुख्य होती है । अन्य विकासशील देशों के समान हमारे देश में कागज, प्लास्टिक और धातुआें के पृथक्करण के लिये और व्यर्थ पदार्थो की खपत के लिये सीमित संसाधन उपलब्ध है । विकसित देशों में नगरीय ठोस अवशिष्ट पदार्थो से ऊर्जा उत्पादन किया जाता है या कार्बनिक खाद बनायी जाती है । हमारे देश में मिश्रित कचरे में कम कैलोरीमान तथा नगर निकायों में संसाधनों की कमी के चलते ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है । 
सफाई प्रकृति की मौलिक विशेषता है । प्रकृति के पांच मूल तथ्य है - धरती, पानी, हवा, आकाश और प्रकाश, इन सभी में अपने आपको साफ करने का स्वाभाविक गुण होता है । प्रकृति के कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप से गंदगी और प्रदूषण की समस्या पैदा होती है । सामान्यतया गंदगी दूर करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है, यह सफाई नहीं है अपितु गंदगी का स्थानान्तरण मात्र है । 
सफाई का वास्तविक अर्थ है किसी वस्तु को उसके उपयोगी स्थान पर प्रतिष्ठित  करना याने कचरे को संपत्ति में परणित करना । वरिष्ठ सर्वोदयी विचारक धीरेन्द्र मजुमदार के शब्दों में कहे तो सफाई याने सब चीजों का फायदेमंद इस्तेमाल । इस प्रकार सफाई का अर्थ होगा अपने स्थान से हटी हुई चीजों को फिर से उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करना और कुड़े-करकट को संपति में परिणित करना । सफाई आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सामाजिक दृष्टि से भी एक क्रांतिकारी कदम है । 
हमारे सभी धर्मो में स्वच्छता पर जोर है । इस कारण जहां व्यक्तिगत जीवन में शुचिता की प्रमुखता है लेकिन साम्प्रदायिक स्वच्छता के प्रति ज्यादातर लोग उदासीन रहते है । अपने घर का कचरा दूसरे के घर के सामने, सड़क पर या अन्य स्थान पर डालने में शायद ही कोई संकोच करता है । हम सार्वजनिक स्थान और खासकर सड़क पर कचरा डालना अपना अधिकार मानते है लेकिन इन स्थानों की सफाई को कोई अपना कर्तव्य मानने को तैयार नहीं है । इस मान्यता को बदले बिना स्वच्छता अभियान सफल नहीं हो सकता है । हर नागरिक की अपनी जिम्मेदारी है, यह मानकर हरेक को अभियान में अपने हिस्से का काम करना होगा । 
भारतीय शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत ४१४ ग्राम कचरा निकलता है इसका ठीक उपचार हो तो पूरा देश स्वच्छ हो सकता है । देश में ५१०० नगरीय निकाय है, इनमें हर साल ६० लाख टन कचरा निकलता है, इसमें औघोगिक कचरे को भी शामिल कर लें तो इस कचरे से १०,००० मेगावाट बिजली बनायी जा सकती है । इस दिशा में प्रयास १९८७ से चल रहे है, लेकिन आज तक समुचित सफलता नहीं मिल पायी है । सबसे पहले नगरीय निकायों एवं राज्य सरकारों को कचरे का बेहतर प्रबंधन करना   होगा । इस दिशा में ठोस पहल करने की आवश्यकता है । जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन से जोड़कर अनेक शहरों में इस प्रकार की परियोजनायें प्रारंभ की जा सकती   है । 
हमारे देश में करीब १५ लाख टन ई-कचरा पैदा होता है । ई-कचरे से निजात पाने के लिये उपकरणों का उपयोग घटाने, और पुन:चक्रण की मिलीजुली रणनीति अपनानी होगी । इलेक्ट्रानिक उपकरणों का उचित रखरखाव करके भी ई-कचरे की मात्रा को सीमित किया जा सकता है । देश में चिकित्सीय कचरा न सिर्फ साफ-सफाई अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चिंता का विषय बनता जा रहा है । वर्तमान में ऐसे कचरे में से आधे का ही सुरक्षित निपटान हो पा रहा है । इसमें केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों प्रदूषण नियंत्रण बोर्डो और चिकित्सा संस्थानों को मिलकर तुरन्त हल खोजना होगा । 
देश में करीब ७ करोड़ लोग गंदी बस्तियों में रह रहे है । कचरा घरों के समीप रहने वाले लोगों का जहरीले कचरे की वजह से स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अधिकांश कचरे में सीसे और क्रोमियम का स्तर सामान्य से बहुत अधिक है इससे बीमारियां और विकलांगता बढ़ रही  है । शहरों-कस्बों में दुकानों-घरों के बाहर नालियां अतिक्रमण का शिकार है, सफाई कर्मचारियों द्वारा सफाई करने के बाद भी इन नालियों, गटरों में गंदा पानी रूका रहता है, इस गंदगी से बदबू एवं बीमारियाँ फैलती है । देश में करीब १ करोड़ लोग और १८ लाख बच्च्े अस्वास्थ्यकर स्थितियों में कचरा बीनकर जीविका चला रहे है । देश में ३ लाख लोग, अभी भी मानव मल साफ करने के घृणित कार्य से मुक्त नहीं हो पा रहे है । 
देश में ६६ करोड़ ७० लाख लोगों के पास शौचालय की सुविधा नही है । दूसरी तरफ देखे तो पिछले दस वर्षो में गंगा-यमुना की सफाई पर ११५० करोड़ रूपये खर्च हुए लेकिन गंगा किनारे के १८१ कस्बों से निकलने वाले सीवेज में से सिर्फ ४५ प्रतिशत कचरे की सफाई हो सकी । राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजनायें एक दशक (२०००-२०१०) में २६०७ करोड़ रूपये खर्च हुए, इसमें २० राज्यों की ३८ नदियों पर काम हुआ, परिणाम यह है कि एक भी नदी का स्वास्थ्य उत्तम नहीं कहा जा सकता है । 
इस प्रकार की स्थितियां देश में स्वच्छता से जुड़े अन्य क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है । इससे एक विचार सहजता से उभरता है कि कचरा सड़क पर कम है, ज्यादा कचरा तो लोगों के मन में है । आज देश में व्याप्त् भ्रष्टाचार, मिलावट और मृत्यहीनता की सामाजिक गंदगी बढ़ती जा रही है, इसकी स्वच्छता के लिये सरकार और समाज दोनों को ही साफ मन और निर्मल ह्दय से प्रयास करने होंगे । स्वच्छता अभियान के साथ ही राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के जन आंदोलन की जरूरत है इसमें जनमानस की भूमिका महत्वपूर्ण  होगी । 

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