शनिवार, 12 जनवरी 2008

११ कविता

वनों में वसन्त
गिरधारी लाल मौर्य
आली री वसुन्धरा के वसन बसन्ती भये,
फूले तरू पात प्रीत लेली अगड़ाई है ।
गन्ध मकरन्द मिले पौन पुरूवाई चले,
कानन में मुध, ऋतु आज मुसकाई है ।
लाल-लाल टेसू फूले भृंग डाल-डाल झूले,
अम्बर में इन्द्र-चाप मानो उगि आई है ।
महुआ मदाये आम मञ्जरी गादाये सखि,
ऐसेहँू में आली `गिरधारी' सुधि आई है ।।
फूले हैं रसाल, ताल विकसे जलज वृन्द,
मन्द-मन्द मारूत अजीर में डोलै लगी ।
कुञ्ज-वन-बागन में आयो ऋतुराज सखि,
सौरभ समीर अंग-अंग में चलै लगी ।
कली मुसुकाये इतराये अली डाल-डाल
पातन छिपाये पिक राग में बोलै लगी ।
ढोल और मृदंग तान, नाहीं देत बनै कान,
`गिरधारी' फागुनी-बयार है चलै लगी ।।
दारू से सदन, तृन-पात से वसन मञ्जु,
फल-फूल मूल जन-जन को लुटाती हो ।
व्याधि जो असाधि वसुधा को कहँु घेरती जो,
मूरि बन मातु सन्जीवनी पिलाती हो ।
तीन गुन प्राकृत में कौतुकी कृपा है तेरी,
प्राण-वायु देके जीव-जन्तु को जिलाती हो ।
कहें गिरधारी, धन्य धन्य है तुम्हारी दृष्टि
सृष्टि से अनिष्ट वनदेवी तँू मिटाती हो ।।
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