शनिवार, 12 जनवरी 2008

५ विशेष लेख

वन रहवास और वनवासी
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
प्राकृतिक वनों से सजीव तथा निर्जीव वातावरण के अन्त: संबंध के अध्ययन को वन पारिस्थितिकी कहते हैं। वनों के सजीव कारको में मानव का महत्व सर्वाधिक है । अपनी सभ्यता के आदिकाल में मानव अन्य जीवो के समान पूर्णत: प्रकृति और वनों पर आश्रित था । आदिम मानव अपनी जीविका के लिए वैसा ही आचरण करता था जैसा अन्य वन्य जीव करते थे। तब वन रहवासी मानव पूर्ण रूपेण वनों पर निर्भर था । वह कंद मूल फल खाता था और गुफा कंदराआे में आश्रय पाता था । इस प्रागैतिहासिक काल में वनवासी मानव की गुणवत्ता सामान्य जंगली पशुआे जैसी थी। हाँ, अपने वृद्धि विवेक के बल पर मानव हिसंक पशुआे को भी अपने अधीन करने लगा । इसीलिए मानव को वन पारिस्थितिक, वन रहवास और प्रकृति का सर्वहारा जीवित घटक माना जाता है । मानव और पर्यावरण संबंधों का स्वरूप समय के साथ-साथ परिवर्तित हो रहा है । अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण ने मानवीय विकास प्रक्रिया को गति प्रदान की जिससे मानव आदिम अवस्था से आधुनिक समुन्नत एवं विकसित अवस्था तक की यात्रा पूर्ण कर सका । मानवीय सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ और हमारी संस्कृति पर आरण्यक पारिस्थितिक प्रभाव ही प्रमुख रहा । यही कारण है कि मानव ने जहाँ विकास के नित नये प्रतिमान गढ़ते हुए वैज्ञानिक उपलब्धियाँ एवं प्रशस्तियाँ हासिल कीं, वहीं कुछ लोगों के सहज आरण्यक जीवन पर सभ्यता के विकासशील चरणों का प्रभाव या तो पड़ा ही नहीं अथवा नगण्य रहा, और ऐसे लोग ही आदिवासी कहलाते हैं। यह आदिवासी जंगलों में जंगली पशुआे का शिकार करते हैं । जंगली कन्द मूल फल खाकर अपना पेट भरते हैं । इस प्रकार जंगलों को जीवंत रखते हुए वनरहवासी वन-वनिताआे के साथ आत्मीय रहते थे । प्राकृतिक संसाधनों के रूप में वनों ने न केवल मानवीय सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है वरन मानव अस्तित्व वनों के अवलम्बन से ही जुड़ा हुआ है । असल में वातावरण और वन पारिस्थितिक ह्रास की समस्या तब शुरू हुई जब वन वनस्पतियों से आदमी ने असहज व्यवहार शुरू किया एक बार रिश्ते बिगड़े तो बिगड़ते ही चले गये । शिकार का रूप विकृत हुआ और बहुत सी दुर्लभ वन्य जीव प्रजातियाँ विलुप्त्ता के कगार पर आ गई । दुनिया में र्निवनीकरण बढ़ा। विडम्बना यह है कि हमने वनों के महत्व को अपनी चर्चा में तब सम्मिलित किया है जबकि वनों का व्यापक स्तर पर विनाश हो चुका है तथा गहन प्राकृतिक वन २० प्रतिशत से भी कम भूभाग पर शेष बचे हैं। भूमध्य सागरीय, पूर्व एशिया तथा मध्य पूर्व के देशों के मानसूनी एवं शीतोष्ण प्रदेशों में वनों की अनियंत्रित एवं अनियोजित कटाई हुई है । आँकड़ों के अनुसार ब्रिटेन में ९० प्रतिशत, स्वीडन एवं फिनलेंड में ५० प्रतिशत से अधिक वनों का विनाश हो चुका है । कहा जा सकता है कि विश्व का मात्र ४२४०५ लाख हेक्टेयर भूभाग ही वनाच्छादित शेष बचा है । विश्वभर में वन रहवासी आदिवासी जातियों पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । कांगो के पिग्मी, लूजान के पहाड़ी क्षेत्रों के नीग्रो, न्यूगिनी के पपुआ, श्रीलंका के वेद्दा, राजस्थान के भील तथा मध्यप्रदेश के गोड़ अपने कबीलाई जीवनके लिए विख्यात है। यह आदिवासी वन प्रांतरों के प्राकृतिक स्वरूप की न केवल रक्षा करते हैं वरन् उनसे अपनी जीविका भी पाते हैं । वनवासी आदिवासी लोगों की प्राकृतिक जिजीविषा को विगत सुनामी आपदा के वक्त हम सभी ने देखा और समझा है कि किस तरह यह वन रहवासी प्रकृति के सृजन और ध्वंस को शिद्दत से जानते हैं । वह प्रकृति की धड़कनों को पहचानते हैं । समुद्र की लहरों की संगति और विसंगति को पढ़ सकते है । तभी तो सुनामी ने जहाँ एक बड़े भू-भाग में सांस्कृतिक सेंध लगाई, वहीं आदिवासी ऊँचे सुरक्षित स्थानों पर चैन की बंशी बजाते रहे और आपदा उन्हें छूने भी नहीं पाई । क्योंकि वह प्रकृति के करीब थे, प्रकृति के साथ से इतने मस्त रहते हैं कि मानवीय सभ्यता से उनका निस्प्रह भाव टूट नहीं पाता है । दूसरी ओर प्रकृति पर कथाकथित सभ्य मानवीय हस्तक्षेप और अतिक्रमण का अत्यधिक विनाशकारी प्रभाव हमारी जैव विविधता पर पड़ा है । हमने प्रकृति को तहस-नहस किया है । वन विनाश और हमारे सभ्यता जनित प्रदूषण के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि हुई है । जिससे ग्रीन हाउस प्रभाव तथा ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या सामने आ रही है । धरती के गर्माने से हिमनदो के पिघलने के कारण समुद्र सतह के ऊपर उठने का खतरा भी उत्पन्न हो गया है । वन विनाश से जलचक्र भी बाधित हुआ है । देश में भूमिगत जल स्तर घटा है । जल स्त्रोतों का ह्रास हुआ है । वर्षा अनियमित हुई है जिससे अकाल तथा सूखे की स्थिति भी दृश्यमान होती रहती है । जलवायु में ऐसे परिवर्तन हुए हैं कि धरती पर मरूस्थलों का विस्तार हो रहा है । हमारी उपजाऊ कृषि भूमि का ह्रास ही नहीं हुआ है वरन् वन रहवास और वन वासियों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है क्योंकि वन संरक्षण प्रकल्पों के प्रकम में आदिवासियों पर तरह तरह के प्रतिबंध लगे थे, जिसके परिणामस्वरूप वन रहवासी न तो स्वयं जी पा रहे हैं न हीं अपने जिजीविषा प्रदायक वनों को ही सुरक्षित रख पा रहे हैं । उनसे अपने पितृ तुल्य वनों का विछोह असहनीय हो रहा है मातृ वत्सला धरती की गोद से दूर उनका विस्थापन उन्हें उद्धेलित और आंदोलित कर रहा है । आज एक गलतफहमी हमारे समाज में जन्म ले चुकी है कि वनों को वनवासी नहीं वरन सरकारें तथा वन विभाग ही बचा सकता है । किन्तु हमें वन, वन रहवास तथा वनवासियों के सदियों पुराने रिश्तों को समझना होगा । केन्द्रीकृत कानून न तो वनवासियों का हित साधन कर सकता है और न ही वन संरक्षण कर सकता है । मेरा मन्तव्य बार-बार बनने वाले वन कानून की पड़ताल करना या इसका विश्लेषण करना कदापि नहीं है किन्तु इतना संज्ञान अवश्य है कि मूल समस्या हमारे अपने ही आचरण से जुड़ी हुई है । वन तथा वन्य जीव एवं वन रहवासियों का सदा सदा से अटूट रिश्ता है । हमारे वन क्षेत्र सामान्यत: नदियों के जलग्रहण क्षेत्र होते हैं जो जैविक विविधता के साथ-साथ हमारी प्रकृति के हरिमिता को संजोते हैं और हमारे रक्षा कवच होते हैं क्योंकि हमारी साँसों की डोर वन वनस्पतियों से ही तो जुड़ी है । प्राण रक्षक वन वनस्पतियों के संरक्षण का काम सामुदायिक स्तर पर अच्छा हो सकता है। हमारे सामने अनेकानेक उदाहरण है जबकि हमने अपनी कर्म साधना से बंजर भूमि को भी उर्वरा बना लिया और व्यापक स्तर पर वनरोपण भी किया और अब हम ही विकास के नाम पर विनाशक पथ पर गमन कर रहे हैं । कानून के शिकंजे में वनवासी अपनी जीविका से दूर हो रहे हैं अत: हमे वन संरक्षण के साथ साथ वनवासियों की जिनीविषा को भी ध्यान में रखना ही होगा। केन्द्र सरकार ने वन रहवासों पर वनवासियों का हम सुरक्षित रखने के लिए वन विधेयक अधिनियम पास किया है । अभी इस कानून का क्रियान्वयन ठीक से हो भी नहीं पाया है, कि विरोध के स्वर मुखरित होने लगे हैं और कानून की खामियाँ गिनाई जाने लगी हैं । दरअसल अधिकार तो सब चाहते हैं किन्तु कर्तव्यों से बेखबर हैं । जल जंगल जमीन को बचाये रखना हर दृष्टि से हमारी प्राथमिकता है । साथ ही जंगल से जुड़े हर जीव-जंतु ही नहीं वरन जंगल के सदियों से हमदर्द रहे वनवासियों का जीवन भी सुरक्षित करना, वन पारिस्थितिकी का ही हिस्सा है क्योंकि मनुष्य केवल कारक ही नहीं है, कर्ता भी है । अत: गैर जरूरी बहसो में उलझ कर वक्त बर्बाद करने के स्थान पर सार्थक संवाद और संरक्षण के प्रबध जरूरी है । वन सन्वर्धन के प्रयास जरूरी है । आज यह भी जरूरी है कि कानून की नजर को साफ सुथरा बनाया जाये, न कि उसकी दृष्टि में धुंधलका समाया जाये। कानून का काम सरलता, सुख और शांति देना है । कानून कभी भी जन विरोधी नहीं हो सकता अत: कानून के रास्ते में आने वाली छोटी-छोटी कठिनाइयों को सार्थक संवाद और विचार विमर्श द्वारा दूर करना चाहिए । कानून की जानकारी सभी संबंधित पक्षों को सुलभ कराना, कानून की बारीकियों को समझना और समझाना और कानून का अनुपालन करना सभी का कर्तव्य है । स्वयं सेवी संगठन इस कार्य में सरकार और जनता की मदद कर सकते है । दरअसल लड़ाई जीविका की है । जंगल के रख रखाव में आदिवासी अभी भी कारगर सिद्ध हो रहे हैं । उनकी जीविका भी इस प्रकार से वन एवं वनोपज पर टिकी होती है कि दोनों में संतुलन और सह अस्तित्व बना रह सके। जंगल में तेन्दुपत्ता, साल, महुआ, आँवला, सवई घास और अन्य वनस्पतियाँ वनवासियों की जीविका संसाधन है । कच्च माल, जड़ी बूटियाँ आदि पर वनवासियों का हक है तो उन्हें उनका हक मिलना ही चाहिए । वनवासी समुदाय को भी अपने हक के दायरे में रहकर वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण का कार्य ईमानदारी से करना चाहिए । यहाँ एमनेस्टी इंटरनेशनल के निदेशक मुकुल शर्मा का कथन ध्यान देने योग्य है - ``वन अधिकार अधिनियम बनाने और पारित कराने का लम्बा दौर चला है फिर भी विडंबना है कि इस दौर में वन अधिकारों के प्रति संवदेनशीलता बढ़ाने और वन क्षेत्रों में अशांति कम होने की बजाय द्वंद, विस्थापना, प्रदूषण, हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है । करीब दो दशकों की जद्दोजहद के बाद संयुक्त राष्ट्र ने इस साल (२००७) सितम्बर में आदिवासियों के अधिकारों का घोषणापत्र स्वीकार किया और भारत सरकार ने इसके इलाके और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों की मान्यता है । इस घोषणा पत्र के संदर्भ में भी आज केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के सामने चुनौती है कि वे इस मौजँूसमय और अवसर का इस्तेमाल करते हुए आदिवासी और बाकी समाज के बीच एक नया रिश्ता बनाने की कोशिश करें।'' दरअसल ``जनजातीय व अन्य वनवासी समुदाय (वनाधिकार मान्यता) विधेयक - २००६'' को पर्यावरण व वन्य जीव संरक्षण से जुड़ी एजेंसियों और वन विभाग के अधिकारी इसे वन विनाश के आमंत्रण के रूप में दे रहे हैं । अत: उनके संशय को भी दूर किया ही जाना चाहिए। यद्यपि सब कुछ जन आचरण नीतियाँ और कानून के पहलुआे पर निर्भर है तथा इस बात पर भी निर्भर है कि हम अपने पर्यावरण के प्रति कितने चिंतित है क्योंकि केवल कानून कभी भी कारगर नहीं होता यह उसे क्रियान्वित करने और कराने वालों की नीयत और हमारे नैतिक चरित्र पर भी निर्भर करता है कि हम स्थितियों को किस रूप में लेते हैं । यहाँ पर स्वतंत्र टिप्पणीकार व्योमेश चंद्र जुगरान की टिप्पणी को संदर्भित करना समीचीन होगा - ``जिन घोषित उद्देश्यों के लिए कानून लाया गया, वे फलीभूत होते हैं या नहीं । पर जहाँ तक वन विनाश के न्योते और असुरक्षा की चिंता का प्रश्न है, तो इस प्रलाप का कोई औचित्य नहीं है । नए कानून पर हाय-तौबा मचाने वालों से पूछा जा सकता है कि वर्ष १९२७ में पहले भारतीय वन कानून के जरिये वनवासियों के हक-हकूक पर सेंध लगाने और फिर समय-समय पर बनाये गए सख्त कानूनो के जरिये उन्हें हमेशा के लिए जंगलों से खदेड़ने के बाद क्या हमारे वन्य क्षेत्रों का आशातीत विस्तार हुआ ? यदि नहीं, तो यह मानने के वाजिब कारण होने चाहिए कि वनों का सच्च विकास वनवासियों के साये में ही हो सकता है ।'' शायद इसीलिए नए वन अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि औपनिवेशिक युग से लेकर स्वतंत्रता के छह दशक व्यतीत हो जाने तक वनवासियों की उपेक्षा करना `ऐतिहासिक अन्याय' था । इसीलिए नये कानून के द्वारा वनवसियों को वन, भूमि पर रहवास बनाने, उन पर स्वामित्व, पाने तथा आजीविका हेतु खेती-बाड़ी का अधिकार होगा । पहले जिन छोटी-छोटी वनोपज को वनवासी चोरी छिपे एकत्र करके बेचने पर मजबूर थे उन्हें व्यवस्थित ढंग से प्राप्त् अधिक आत्मीय हो सकेंगे । बाँस झाड़ियों पर लगने वाले फल, शहद, गोंद, मोम, नारियल (श्रीफल), सुगन्धित एवं औषधीय पौध, मछलियाँ तथा अन्य वनोपज रूप वस्तुआे पर उनका अधिकार हो सकेगा और वह उन्हें एकत्रित कर उचित मूल्य पर बेचकर अपनी जिजीविषा बनाये रख सकेंगे । किन्तु यहाँ यह विशेष हिदायत है कि वह शिकार कदापि नहीं करेंगे । उन्हें आखेट पर पूर्ण प्रति प्रतिबंध का पालन ईमानदारी से करना होगा । वन्य जीवो को जाल में फँसाने और उनके किसी भी अंग को निकालने का कार्य पूर्णत: वर्जित होगा, और वह वन एवं वन्य जीवों के रक्षक बनकर रहेंगे। निश्चित ही जंगल के गीत को वनवासी से अधिक भला कौन समझ सकता है । वन का मीत वनवासी ही हो सकता है । प्रभु श्री राम जी ने वनवास को केवल गौरवान्वित किया वरन वन जीवन का मर्म पूर्ण मर्यादा से दिया । अब वनवासियों एवं आदिवासियों का दायित्व है कि वह उस मर्म को समझें । पर्यावरण को संरक्षित रखें तथा लोक परम्पराआे को और मजबूत कर उनसे गहरे से जुड़े । हमारी संस्कृति सदैव प्रकृति की रक्षक रही है । वनवासियों में ही आदिम मानव के अवशेष और लोक मानस के तत्व निहित है । इसीलिए लोकानुरंजक अभिव्यक्तियों में सन्निहित मनमोदिनी एवं मनस्तोषिणी प्रवृत्तियाँ वन रहवासी जीवन की शैली को सुनीति बनाती है और उनके श्रेयस संस्कार एवं सरोकार लोकशैली में लोकगीतों में व्यवहृत होते हैं । जिनमें जीवन का स्पदंन सहजता से झलकता है और शुद्धि प्रक्रिया सुचारू रहती है । हमारा उद्देश्य प्रकृति, वन एवं वन्य जन्तुआे को संभालना है न कि प्रकृति से जुड़े जीवन को उजाड़ना । हमारे जीवन का संकल्प संघात है आघात नहीं । खुद जियें और दूसरों को भी जीने दें यही ध्येय होना चाहिए । ***

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