शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

३ हमारा भू-मण्डल


हमारा भू-मण्डल
बहुराष्ट्रीय निगमों की गिद्ध दृष्टि
शॉन हेटिंग
पिछले ३० वर्षोंा मे विश्वभर के देशों द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियां (नवउदारवाद) अरबों लोगों को भूखमरी की ओर धकेल रहीं है । बड़े कारपोरेट संस्थानों के हित में लागू नीतियों के माध्यम होता जा रहा है । इन संस्थानों का सूत्र वाक्य है अगर लोग कीमत अदा करने में सक्षम नहीं हैं तो उन्हें खाना भी नहीं मिलेगा । १९७० में नवउदारवाद अवधारणा के मूर्तरूप लेने के पूर्व सरकारें अपने छोटे कृषकों को अनेक रियायतें देती आ रही थीं जिनमें नवीन शोध, कम ब्याज पर ऋण, वितरण सेवा, यातायात एवं प्रसंस्करण सेवाएं भी शामिल थीं । बीज, खाद और उपररणों पर सब्सिडी के माध्यमसे भी छोटे कृषकों की मदद की गई वहीं विकासशील राष्ट्रों ने अपने यहां आयात पर ऊँची दर से शुल्क लगाकर छोटे एवं मध्यम कृषकों के हितों की रक्षा की । कई सरकारों ने सहकारिता के माध्यम से छोटे कृषकों की सहायता की । यहीं वजह थी कि १९५० से १९८० तक लघु एवं मध्यम दर्जे के कृषकों ने अपने देशों की खाद्य आवश्यकताआें की बखूबी पूर्ति की । सरकारों ने गरीब उपभोक्ताआें के हितों को दृष्टिगत रखते हुए चुनिंदा खाद्य उत्पादों पर सब्सिडी दी। परंतु इस नई व्यवस्था ने सबकुछ उलट-पुलट कर दिया । १९८० के प्रारंभ में अमेरिका, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आय.एम.एफ.) और विश्व बैंक ने मिलकर तीसरी दुनिया के देशोंपर अपने ऋणपाश के माध्यम से इन नीतियों को अपनाने के लिए दबाव बनाना प्रारंभ किया । स्थानीय सरकारों ने अपनी सार्वजनिक आस्तियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचना प्रारंभ कर दिया । विदेशी कंपनियों को राष्ट्र में पूंजी लाने और वापस ले जाने की छूट दी, खाद्य सब्सिडी बंद की, निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र विकसित किए, कामगारों के अधिकारों को कुचला, पर्यावरण कानूनों को शिथिल किया और मजदूरी बढ़ाने पर रोग लगाई । एशिया अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों ने अपने यहां खाद्य पदार्थेंा पर आयात शुल्क कम कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नए बाजार खोल दिए । वहीं दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप की सरकारों ने अपने कृषि व्यवसाय के महाबली संस्थानोंको न सिर्फ सब्सिडी देना जारी रखा वरन कुछ चुनिंदा उत्पादों पर भारी आयात शुल्क जारी रखकर दोहरा फायदा पहुंचाया । परिणामस्वरुप १९८० के मध्य तक अन्य अमेरिका और यूरोप के सब्सिडी प्राप्त् खाद्य पदार्थोंा से गैर बराबरी की प्रतियोगिता मेें घिरा हुआ पाया । आय.एम.एफ. अमेरिका और विश्वबैंक द्वारा निर्देशित इस दोहरी नीति ने जहां बड़े खाद्य संस्थानों और बड़े कृषकों को निर्यात के अवसर दिए वहीं तृतीय विश्व के छोटे कृषकों को ऐसी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया जिनकी यूरोप और अमेरिका को आवश्यकता थी । उदाहरण के लिए केन्या को यूरोप के लिए फूल उत्पादन और ब्राजील को अमेरिका के लिए सोयाबीन उत्पादन के निर्देश मिले । परिणाम यह हुआ कि स्थानीय खाद्य आवश्यकता की आपूर्ति बाधित हुई । १९९५ में विश्व व्यापार सदस्य बनने के लिए राष्ट्रों से इसके कृषि समझौते (ए.ओ.ए.) पर दस्तखत की अपेक्षा थी । दुनिया के सबसे बड़े कृषि बहुराष्ट्रीय निगम कारगिल के एक पूर्व कर्मचारी द्वारा तैयार ए.ओ.ए. के मसौदे से सर्वाधिक लाभ अमेरिका और यूरोपियन संघ और इनके बड़े कार्पोरेट संस्थानों को होने वाला था । कुछ ही वर्षो पहले मुक्त व्यापार की वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य पदार्थोंा की कीमतों में कमी हुई थी । किंतु हाल ही में अमेरिका और यूरोप से आए सब्सिडी प्राप्त् खाद्य पदार्थो से दक्षिणी देशेां का बाजार पट गया है । जिसकी वजह से मक्का, दलहन और अनाज उत्पादक कृषकों को बड़ा झटका लगा है । कई छोटे किसान तो दिवालिया हो गए है । सिर्फ मेक्सिकों में ही ५० लाख छोटे किसान और कृषि मजदूर शहरों की ओर पलायन कर गए हैं वजह है अमेरिका का आयाजित खाद्य उत्पाद परिणामस्वरुप दसियों लाख हेक्टेयर कृषि भूमि अब बिना जुती पड़ी है और खाद्य पदार्थ यूरोप और अमेरिका से आयात किए जा रहे हैं । नवउदारवाद और मुक्त व्यापार ने खाद्य उत्पादन, वितरण के क्षेत्रों में एकाधिकार स्थापित किया है । आज विश्व के कुल खाद्यान्न व्यापार के ८५ प्रतिशत हिस्से पर मात्र छ: निगमों का नियंत्रण है ।कोको के व्यापार के ८३ प्रतिशत हिस्से पर मात्र तीन कंपनियों का नियंत्रण है और विश्व के केला व्यापार के ८० प्रतिशत पर भी मात्र तीन कंपनियों का नियंत्रण है । इस एकाधिकार के सहारे बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब खाद्य उत्पादों की कीमतों का निर्धारण अपने हिसाब से करके अनपेक्षित लाभ कमा रहीं है । जैविक ईधन भी खाद्य उत्पादों की कीमत बढ़ने के लिए जिम्मेदार है । बढ़ती इंर्धन आवश्यकताआें की पूर्ति के लिए नवउदारवादी नीति निर्माताआें ने इस विकल्प को प्रोत्साहन दिया है ।परम्परागत रूप से अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिकी देशों में मक्का, सोयाबीन और पाम तेलों का उत्पादन मुख्यत: पशुआें की खाद्य आवश्यकताआें को ध्यान में रखकर किया जाता था परंतु आज यह अमेरिका और यूरोप की इंर्धन आवश्यकताआें के लिए किया जा रहा है । इन फसलों की खातिर ब्राजील और पेराग्वे जैसे देशों में तो जंगल साफ कर इन फसलों की खेती की जा रही है । फलस्वरूप वहां एक और तो पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है दूसरी ओर गरीब तबके के लाखों लोगों के लिए अपेक्षाकृत सस्ते अनाज तक पहुंच कठिन होती जा रही है। डब्ल्यू.टी.ओ., आय.एम.ए., विश्वबैंक, अमेरिका और यूरोपियन संघ सभी के पास ताजा खाद्य संकट से निपटने के लिए सुझाव मौजुद हैं । उनका कहना है कि उदारवाद की राह में अभी भी शुल्कों के रूप में जो रूकावटे मौजूद हैं उन्हें भी हटा दिया जाना चाहिए, इसी से खाद्य पदार्थो की कीमतें घट पाएंगी । उदारवाद के ऐसे दुष्परिणाम देख लेने के बाद भी अगर ये संस्थाएं इस तरह से अपनी बात पर अड़ी हुई हैं तो उनकी मंशा पर संदेह की गुंजाईश बनती है । वेनेजुएला, बोलिविया और निकारागुआ जैसे नई सोच वाले लातिन अमेरिकी देशों ने खाद्य संकट से निपटने के लिए नवउदारवादी धारणा के निर्देशों की अनदेखी करना शुरू कर दिया है । क्यूबा को साथ मिलाकर इन देशों ने अपना एक क्षेत्रीय मुक्त व्यापार विकल्प अमेरिका का बोलिवेरियाई विकल्प (अल्बा) के रूप में खड़ा किया है । अल्बा के माध्यम से सदस्य देशों की खाद्य सुरक्षा के उद्देश्य से इन्होंने मिलकर पांच वृहद स्तर की कृषि परियोजनाएं प्रारंभ की है जो सोयाबीन, चावल, पोल्ट्री और दुग्ध उत्पादों का उत्पादन करेंगी । लेकिन सभी जगह ऐसा नहीं है । दक्षिण के अधिकांश देशों की सोच पुरानी है यही वजह है कि वहा जनता की भलाई के लिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है । अब अगर वहां के नागरिक खुद के बारे में सोचते हुए कोई साहसिक निर्णय लें तो ही उनकी सरकारें इस दिशा में कुछ करेंगी वरना खाद्य पदार्थोंा की कमी और कुपोषण ही उनकी नियति होगी । खाद्य समस्या को लेकर विश्व में हो रहे जन प्रदर्शनों से कुछ आशा जरूर बंधती है । बड़े निगमों की खाद्य श्रृंखला पर नियंत्रण को खत्म करने के लिए खुद जनता को ही आगे आना होगा । सिर्फ आम इंसान ही एक मुक्त, प्रजातांत्रिक, सम्मानपूर्ण, समतामूलक राष्ट्र का निर्माण कर सकता है जहां कोई इसलिए भूखा नहीं रहेगा कि उसके पास खाना खरीदने के लिए धन नहीं है । ***
प्रसारकों ने बनाया स्व नियमन तंत्र
समाचार प्रसारकों ने उच्च्तम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय स्व नियमन तंत्र का गठन किया है । देश के निजी समाचार और समसामयिक कार्यक्रमों के प्रसारकों के संघ न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन(एनबीए) ने न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टेंडर्ड डिस्प्यूट्स रिड्रेसल एथॉरिटी का गठन किया है जो उनकी आचार संहिता और प्रसारण मानकों को लागू करेगी । सरकार और प्रसारकों के बीच करीब दो वर्षोंा तक इस मुद्दे पर चल रहे विवाद के बाद हाल ही में प्रसारकों ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को संहिता का प्रारूप सौंपा था । निजी टेलीविजन चैनलों के लिये नियामक और कंटेंट कोड बनाने के उद्देश्य से सरकार के ब्राडकास्टिंग सेवा नियमन विधेयक लाने के विचार का प्रसारकों ने कड़ा विरोध किया था । प्रसारक इस उद्योग के लिये स्व नियमन तंत्र बनाने के पक्षधर थे , जिसका सरकार ने भी समर्थन किया है ।

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