बुधवार, 9 जून 2010

३विशेष लेख

धर्म और पर्यावरण
डॉ.किशनाराम विश्नोई
आदिकाल से ही प्रकृति और मानव के बीच अन्योन्याश्रित संबंध रहा है एक की उपस्थिति स्वत: दूसरे के अस्तित्व का बोध कराती है । इस उपस्थिति का सबसे ज्यादा वर्णन वैदिक साहित्य में उपलब्ध है । वैदिक मनीषा पर्यावरण संरक्षण के लिए ही बनी है वह इस तथ्य को उजागर करती है कि लोक रक्षा के लिए प्रकृति की रक्षा करो । रक्षाये पातु लोक: । यही कारण है कि वेदों में आकाश, पाताल, नदी, सागर, पर्वत, वनस्पति, औषधि, गृह नक्षत्र, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, मनुष्य-देव, सबकी समृद्धि हेतु शांति की कामना की गयी है ऋगवेद में ऋत शब्द आया है । जिसका निहितार्थ ब्रहृाण्ड का सुव्यवस्थापन या नैतिक व्यवस्था है । मानव जगत की तरह प्रकृति भी नैतिक और चिन्मय है । इसका कारण है यह प्रकृति स्वाभाविक मूल्यों से प्रेरित है और नितांत बुद्धि संगत है । तात्पर्य यह है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी नीति से जीवित अनुशासित और व्यवस्थित है । वैदिक वाड्गमय में प्रकृति के भौतिक पर्यावरण पारिस्थितिकी और प्रदूषण से संबंधित चिन्तन ही नही है अपितु जीवन पद्धति के रूप में सांस्कृतिक तथा वाक् पर्यावरण की अभिव्यक्ति पाते है । प्रकृति की मातृवत अवधारणा, वैश्विक दृष्टि की परिचायक ब्रह्माण्ड की संकल्पना प्रकृति में अन्तनिर्हित देवत्व का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन वैदिक संस्कृति में प्रस्फुटित हुआ है । विश्व जनमानस की भांति सनातन धर्मावलम्बियों ने भी प्राकृतिक शक्तियों के प्रति प्रारंभ से ही श्रद्धा का भाव रखा है वैदिक ऋतुआें में अग्नि, सूर्य, वायु, जल, वनस्पति, नदी, पृथ्वी पर्वत आदि अनेक प्राकृतिक शक्तियों की देवों के रूप में पर्यावरण को धर्म के रूप में विशेष मान्यता मिली है । पुराणों में पर्यावरण सन्तुलन की दृष्टि से सर्वाधिक वृक्षों के आध्यात्मिकता के साथ भौतिक उपादेयता का भी में वर्णन हुआ है । मत्स्य पुराण कहता है कि दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र एवं दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है । इसी प्रकार वराहपुराण में वर्णित है कि जो व्यक्ति एक पीपल, एक नीम या वट, दो अनार या नारंगी, दस पुष्प लताएं एवं पांच आमवृक्ष लगाता है, वह कभी नरक में नहीं जाता है । जबकि पद्म पुराण में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट है कि वृक्षों को काटने वाला नरक का भागी होता है । वृहतसंहिता और कोटिल्य अर्थशास्त्र जैसे ग्रथों में पर्यावरण को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाने वाले के लिए यथायोग्य दण्डविधान का उल्लेख है । वृहतसंहिता में एक अन्य पक्ष वास्तुशास्त्र की दृष्टि से स्वच्छ पर्यावरण के औचित्य की चर्चा की गई है । बौद्ध एवं जैन धर्मावलम्बी भी प्रारम्भ से ही प्रकृति संरक्षण के प्रति संवेदनशील रहे हैं । तथागत हो या अर्हत दोनों ने ही राज्य का परित्याग धर्म के लिए किया और अपनी तप भूमि एकान्त जनशून्य अरण्य को बनाया । गौतम बुद्ध को वन में पीपलवृक्ष और महावीर को सालवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त् हुआ । वस्तुत: दोनों चिन्तनधाराए वनों में ही पुष्पित एवं पल्लवित हुई । जैन धर्मावलमबी तों सृष्टि के सभी पदार्थो जड़ या चेतन में जीव का अस्तित्व होता है इसीलिए सच्च्े जैन साहित्य में पर्यावरण को विज्ञान से संबद्ध कर देखा गया है । प्राकृतिक ज्ञान और वैज्ञानिक ज्ञान जब मिलकर कार्य करते है, तो प्रकृति में एक विलक्षण अभियोजन क्षमता उत्पन्न है । गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है । सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न है अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मो से उत्पन्न है ।गीता में श्री कृष्ण ने हमें यज्ञ की भावना से कार्य करने की शिक्षा देते हुए कहा है कि आप देवताआें को संतुष्ट करेंगे तो देवता आप को श्रेयस प्रािप्त् में सहायक होंगे । यज्ञ भावित देवता आपकी सभी कामनाआें की पूर्ति करेंगे । बिना दिये जो खाता है वह चोर है । जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि आदि देवताआें से हमें बिना मांगे स्वास्थ्य सुख और समृद्धिदायक सम्पदाएं प्राप्त् होती है ।बदले में यदि हम इनको क्षतिपूर्ति नहीं करते और इन्हे प्रदूषित करते है तो हमारे वरदान को अभिशाप में बदलते देर नहीं लगेगी । महाभारत के आदिपर्व में वर्णित समुद्रमंथन के आख्यान में हम समुद्र को देवताआें से कहते सुनते है । यह अच्छी बात है, यदि प्राप्त्ु हुए अमृत मेें मेरा भी भाग रहे तो मेें मन्दरांचल के घुमाने से होने वाली पीड़ा सहर्ष सह लुंगा । यहाँ परोक्षत: संकेत यह लक्षित होता है कि मनुष्य धरती और समुद्र की सम्पदाओं का अपने पुरूषार्थ के बल पर दोहन बेशक यथेष्ट मात्रा में करें मगर शर्त यह है के इस प्रक्रिया में यहाँ ज्ञातव्य है कि राम ने राम पितु तुलसी सदैव जगतपालनहार के रूप में ही देखाहै पर्यावरण की दृष्टि से सर्वाधिक आवश्यक वृक्षों की महिमा रामचरितमानस में विशेष रूप से वर्णित है । मानस में वन देवता की एक प्रमुख देवता के रूप में स्तुति है । इसी प्रकार अयोघ्याकाण्ड के एक प्रसंग में परम पवित्र वनदेवता को सफल सुमंगलों का दाता कहा गया है मुनि प्रसाद बनु मंगलदाता जो भरत के मातृप्रेम और सेवाभावना को देख प्रसन्न होकर उने अपने आशीर्वाद से अभिसिंचित करते है देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा ।देहि असीस मुदित बन देवा ।। अध्योघ्याकाण्ड में एक अन्य स्थल पर भरत और शत्रुघ्न को वन देवता से विनती करते हुए वर्णित किया गया है ।मुनि तापस बनदेव निहोरी ।बस सनमानि बहोरि बहोरि ।। वनदेवता की सर्वाधिक महिमा तो माता कौशल्या के उन वचनों से प्रकट होती है जो उन्होने वन जाते हुए राम को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि वन में वन देवता तुम्हारे पिता एवं बनदेवी तुम्हारी माता होगी । पितु बनदेव मातु बनदेवी । बनदेवता ने भी कौशल्या के आशीर्वचनों की मर्यादा रखी और वृक्षों की छाया, कन्दमूल फलादि खाद्य पदार्थो शीतल सुखकर वायु आदि के माध्यम से राम को उसी प्रकार सुख-सुविधा और संरक्षण प्रदान किया जिस प्रकार पिता अपनी संतान को करता है । इस प्रकार कौशल्या का संदेश है कि वन राम के समान ही मानव समाज के संरक्षक हो सकते है । मनुष्य वनों पर सुखपुर्वक आश्रित रह सकता है । वन शरणागत का पितातुल्य उसी प्रकार संरक्षण करते है जिस प्रकार राम का किया था अत: वनों के प्रति पिता के सदृश्य ही श्रद्धा एवं संरक्षण का भाव अपेक्षित है । सिक्ख धर्म के पवित्र एवं महान् धर्मग्रंथ गुरू ग्रंथ साहिब में पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति रक्षा, जीवरक्षा, सृष्टिरक्षा के विषय में महत्वपूर्ण मान्यताआें का वर्णन हुआ है जपुजी साहिब दो सौ तिरपन पंक्तियों की है इसके आरंभ में मंगलाचरण में गुरू नानक देव जी ने बतलाया है कि परमात्मा एक है वह विश्व का निर्माता और सृजक है । जपुजी साहिब में एक श्लोक प्रकृति संरक्षण की भावना पर निर्भर है उसमें प्रकृति और मानव को परस्पर एक-दुसरे का पूरक और अन्योन्याश्रित बतलाया है गुरू नानक देव के अनुसार पवन गुरू है पानी पिता है, धरती माता है तात्पर्य यह है कि पांच तत्वों से निर्मित मानवशरीर का संरक्षण भी जल और पृथ्वी कर रही है और पवन रूपी गुरू उसे शिक्षा प्रदान कर रहे है और जीव को अपने अपने कर्मानुसार शुभ और अशुभ फल को प्रािप्त् हो रही है । जो गुरू की अनुकंपा से ही भगवान के नाम में प्रवृत हो रहे है उन्हे जन्म धारण करनेका फल भी प्राप्त् हो जाता है और ऐसे व्यक्ति स्वयं तो मुक्त होते ही है ओर दुसरों को भी भवसागर से पार उतार देते है । अत: सही अर्थ में प्रकृति ही मानव की जनक और जननी दोनो ही है और प्रकृति उसे शिक्षा प्रदान करने वाला गुरू भी है इसलिए मानव को प्रकृति का सानिध्य प्राप्त् करना आवश्यक है परन्तु अति भौतिकता ने मानव को प्रकृति से दूर कर दिया है और यह दूरी प्रतिदिन बड़ती जा रही है । जिसके कारण पारिस्थिकीय सन्तुलन बिगड़ गया है । इसलिए मानव को वापिस प्रकृति के सानिध्य मेंलाया जाना जरूरी है ताकि वह प्रकृति के विषय में गहन-चिंतन-मनन कर सके और अपने अस्तित्व को बचा सके । आधुनिक मानव के लिए यह अति आवश्यक हो गया है कि वह शुद्ध पर्यावरण को ही धर्म के एक आवश्यक अंग स्वरूप में अंगीकार करें । तभी पर्यावरण संरक्षण संभव है । वर्तमान समय में मानव की सभी प्रक्रियाएं व जीवन का प्रत्येक आयाम विज्ञान व तकनीकी ज्ञान से संबंधित हो गया और इन्ही कारणों से मानव धर्म से हटकर के पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और उसके निराकरण के उपायों की खोज कर रहा है परन्तु मानव को प्रदूषण की समस्या से निजात दिलाने के लिए धर्म के पर्यावरणी स्वरूप को खोजना होगा । इससे मानव और प्रकृति का सन्तुलन होगा जिससे विश्वयापी पर्यावरण प्रदूषण की ज्वलंत समस्या का समाधान होगा । ***

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